एक साथ चुनाव की पेचिदगियां

Publsihed: 10.Jun.2016, 10:08

2002-03 में अटल बिहारी वाजपेयी और भैरो सिंह शेखावत ने एक मुहिम बडे जोरदार ढंग से चलाई थी कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए. कांग्रेस को लगा कि ऐसे होने पर एनडीए ऐर भाजपा को फायदा हो सकता है.इसलिए कांग्रेस ने उससमुहिम को पंक्चर कर दिया था. चुनाव आयोग ने इस तरह के सुझाव पर विचार करने को कहा था. एनडीए में भी सहमति बनने लगी थी. बीजू जनता दल उस समय एनडीए का हिस्सा था.
इस बार पहल इस छोटे से दल बीजद ने की है. बजट सत्र के दौरान प्रधानमंत्री के सर्वदलीय रात्रिभोज में बीजद के भृतृहरि मेहताब ने यह मुद्दा फिर उठाया. नरेंद्र मोदी के जहन में यह मुद्दा वाजपेयी-शेखावत के समय से था ही, सो उन्होंने तुरंत लपक लिया और इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए एक कमेटी बना दी. कमेटी को तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा गया है, जो जुलाई आखिर में पूरी हो जाएगी. चुनाव आयोग ने 9000 करोड के एकमुश्त चुनावी खर्चे का अनुमान बताया है, निश्चित ही अलग अलग और हर साल होने वाले चुनावों में इस से कई गुणा ज्यादा खर्चा होता होगा.
पर यह काम इतना आसान भी नहीं कि सभी दलों की आसानी से सहमति हो जाएगी और संविधान संशोधन हो जाएगा.एक पेचिदा सवाल यह है कि बीच में विधानसभा भंग होगी तो क्या होगा.क्या तब चुनाव नहीं करवाए जाएंगे. अगर करवाए जाएंगे तो उस विधान सभा का कार्यकाल बाकी का बचा हुआ या संविधान में तय पांच साल की अवधि.अगर पांच साल की अवधि निर्वाचित विधानसभा का संवैधानिक अधिकार है, तो फिर अगली बार चुनाव एक साथ कैसे होंगे.
या फिर लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल फिक्स पांच साल कर दिया जाएगा और बीच में भंग ही नहीं होगी . तब जोड तोड से ही केन्द्र और राज्यों में सरकारें चलाते रहना पडेगा. ऐसी हालत में तो लोकतांत्रिक पेचिदगियां और बढ जाएंगी. खरीद फरोख्त के जमाने की वापसी हो सकती है. जैसी मनमोहन सिंह के अमेरिका के साथ परनाणु समझोते के बाद पैदा हुई थी. लोग अभी भूले नहीं होंगे कि अमर सिंह ने खरीद फरोख्त कर के कैसे मनमोहन सिंह की सरकार बचाई थी. मुख्यमंत्री को अपनी सरकार बचाए रखने के लिए अपने ही दल के विधायकों को रिश्वत देनी पडेगी. जैसी हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत को देनी पडी.
चुनावों में अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में तो और गंभीर स्थिति पैदा होगी क्योंकि केंद्र या उस राज्यसको पांच साल अस्थिरता झेलनी पडेगी. क्या विधि मंत्रालय की समिति इन पेचिदगियों का सर्वमान्य हल ले कर सामने आएंगी. सिर्फ वाहवाही के चक्कर में हडबडी में या अधूरी योजना से लिए गए फैसले भारतीय लोकतंत्र में ज्यादा पेचिदगियां पैदा करेंगी. इस लिए सर्वानुमति बनाने के लिए नई चुनाव व्यव्स्था का त्रुटिहीन माडल पेश करना होगा.
अगर 2019 के लोकसभा चुनाव तक ठोस माडल सामने नहीं आता तो ट्रायल के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ उन सभी विधानसभाओं के चुनाव भी करवा दिए जाएं जिन का कार्यकाल उस से अगले छह महीने में खत्म हो रहा है. चुनाव आयोग को मौजूदा कानून में ही छह महीना पहले चुनाव करवाने का अधिकार प्राप्त है.

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