गठबंधन तोड़ कर ही मजबूत होगी भाजपा 

Publsihed: 02.Mar.2017, 12:38

अजय सेतिया / पंजाब विधानसभा के चुनाव नतीजे भी बाकी चार राज्यों के साथ ही 11 मार्च को आयंगे , लेकिन पंजाब के चुनाव नतीजे उत्तरप्रदेश,उत्तराखंड और गोवा से थोड़ा अलग होंगे, इस सम्बन्ध में किसी को कोई आशंका नहीं होनी चाहिए | जहां उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में भाजपा की सरकारें बनाने की संभावना बनी हुई है, वहां पजाब भाजपा के नेता भी मानते हैं कि पजाब में एनडीए के दुबारा सत्ता में आने की कोई संभावना नहीं है | इस लिए एक बात स्पष्ट है कि चुनाव नतीजों के लिहाज से पंजाब बाकी तीन राज्यों से अलग है |
उत्तरप्रदेश में पिछले पच्चीस साल से भाजपा  मुख्य मुकाबले से बाहर थी | मुख्य मुकाबले में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ही रह रही थी | भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में लम्बे समय के बाद मुख्य मुकाबले में शामिल हुई है, आज या तो यह कहा जा रहा है कि भाजपा और बसपा में मुकाबला है, या यह कहा जा रहा है कि मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा में है | यानि भाजपा तो मुख्य मुकाबले में है ही | भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस को समाजवादी पार्टी के जूनियर पार्टनर के तौर पर चुनाव लड़ने पर मजबूर होना पडा है, जबकि चुनाव शुरू होने से पहले कांग्रेस ने शीला दीक्षित को अपना मुख्य मंत्री पद का उम्मीन्दवार भी घोषित कर दिया था | भाजपा से डर कर ही सपा ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठजोड़ किया, अन्यथा पिछ्ला विधानसभा चुनाव तो सपा ने अकेले ही लड़ कर सत्ता हासिल की थी | 
गोवा और उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा का आमने सामने सीधा मुकाबला है | भाजपा 10 साल पहले तक गोवा में कहीं नहीं थी | लेकिन पिछले पांच साल से शासन कर रही है | मनोहर पर्रीकर ने अच्छे प्रशासक की छवि बनाई है, हालांकि नरेंद्र मोदी उन्हें केंद्र सरकार में ले आए, लेकिन वह आज भी मौजूदा मुख्यमंत्री से ज्यादा लोकप्रिय हैं | १९६७ में राज्य के गठन के बाद से १९८० तक लोकल पार्टी एमजीपी गोवा की सत्ता पर काबिज रही , कांग्रेस पहली बार  १९८० में सत्ता में आई | दस साल तक तो प्रताप सिंह राणे मुख्यमंत्री बने रहे, लेकिन १९९१ में जब कांग्रेस हाईकमान ने गोवा की राजनीति में अपना दखल शुरू तो 1991 से 1999  तक 10 साल में गोवा ने 10 कांग्रेसी मुख्यमंत्री झेले | जिस कारण गोवा की जनता का कांग्रेस से मोह भंग हुआ और एमजीपी के साथ मिल कर भाजपा सत्ता के करीब पहुँची, लेकिन जब भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया,तो ईसाई बहुमत वाला प्रदेश होने के बावजूद जनता ने भाजपा को सत्ता सौंप दी | 
उत्तराखंड को बने अभी 16 साल हुए हैं, वहां शुरू से ही कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला है और दोनों पार्टिया बारी बारी सत्ता में आती रही हैं | इस बार भाजपा का पलड़ा भारी है और उस की बारी भी है, लेकिन भाजपा ने जिस तरह कांग्रेस से आए 14 नेताओं को पार्टी का टिकट दिया, उस से पार्टी के वफादार कार्यकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर विद्रोह किया है |  मुख्यमंत्री हरीश रावत ने पहाड़ों में कांग्रेस की हालत खस्ता देख कर कर मैदानी जिलों उधमसिंह नगर और  हरिद्वार में फॉक्स किया और खुद भी पहाड़ छोड़ कर इन्हीं दोनों जिलों की दो सीटों पर चुनाव लड़ा ताकि सब से ज्यादा सीटों वाले इन दो जिलों से अधिकतम सीटें जीती जा सकें | उन की यह रणनीति काफी हद तक कामयाब भी रही है | ये दोनों जिले कांग्रेस को बढ़त देंगें | हालांकि इस के बावजूद भाजपा की हार का कोई कारण समझ नहीं आता,  फिर भी भाजपा अगर हारती है, तो दलबदलुओ को टिकट देना उस की मुख्य वजह होगी | 
भाजपा ने गोवा , महाराष्ट्र और हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ कर अपनी ताकत बधाई है | आज इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार इस लिए है, क्योंकि गोवा में एमजीपी, महाराष्ट्र में शिवसेना और हरियाणा में इनलोद से अलग हो कर अकेले चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटाई | हरियाणा में जहां हर चौथा वोटर एक जाट है और पार्टी के पास एक भी कदावर जाट नेता नहीं था | जाट समुदाय हरियाणा की आबादी का 25 फीसदी है | यही सवाल महाराष्ट्र को लेकर भी था जहां राजनीतिक पार्टियों की कामयाबी की चाभी मराठा मतदाताओं के पास रहती है | लेकिन भाजपा के पास कोई कदावर मराठा नेता नहीं था | इस के बावजूद नतीजों पर गौर करें तो 90 विधानसभा सीटों वाली हरियाणा विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी ने 47 सीटें जीती  और 288 सदस्यों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में 122 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, अनत: शिवसेना को वापस भाजपा के साथ आ कर साझा सरकार बनानी पडी | अगर भाजपा अकेले चुनाव न लड़ती तो दोनों क्षेत्रीय पार्टियों की जूनियर पार्टनर बनी रहती और कभी अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाती | 
अब मुम्बई नगर निगम के  चुनाव नतीजे भी अकेले लड़ने की हिम्मत दिखाने का परिणाम है | विधानसभा चुनाव नतीजो के बाद भाजपा-शिवसेना का फिर से गठबंधन हो गया था, इस के बावजूद भाजपा ने अकेले लड़ने का फैसला किया, क्योंकि भाजपा महानगर निगम में भी शिवसेना की जूनियर पार्टनर बन कर नहीं रहना चाहती थी | भाजपा अगर गठबंधन में ही चुनाव लड़ती तो महाराष्ट्र की 10 में से आठ महानगर परिषदों पर उस का कब्जा कतई नहीं हो सकता था | यही बात पंजाब में भी लागू होती है | दो साल पहले पंजाब प्रदेश भाजपा में यह मानस बन रहा था कि  एक बार अपनी ताकत अजमाने के लिए अकालियों से अलग हो कर विधानसभा चुनाव लड़ा जाए | भारतीय जनता पार्टी जनसंघ के जमाने से ही अकाली दल से गठबंधन में है, मदन लाल खुराना जब पंजाब भाजपा के प्रभारी थे, तब गठबंधन में यह तय हो गया था कि 117 में से 23 सीटें भाजपा लडेगी और बाकी सारी सीटें अकाली दल लडेगा | उस के बाद पांच चुनाव हो चुके सीटों का नंबर वही का वही रहा | नतीजा यह है कि पंजाब में भाजपा सिर्फ 23 विधानसभा क्षेत्रों की पार्टी बन कर रह गयी है, बाकी 94 विधानसभी सीटों पर उस की ईकाई सिर्फ खानापूर्ति के लिए ही है |
लोकसभा चुनाव नतीजों से यह साफ़ हो गया था कि पंजाब में अकाली दल आम लोगों की पसंद नहीं रह गयी है, इसलिए उस के साथ गठबंधन को बरकार रखना अपना पैरों पर कुल्हाड़ी मारना ही होगा, यह सोच सामने आने के बाद भाजपा में  गठबंधन तोड़ने और और सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ने की मान्दिकता बन गयी थी | इस सम्बन्ध में आरएसएस से भी चर्चा हुई थी, और उन की भी यही राय थी | पिछले साल के मध्य में जब गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी में सहजधारी सिखों को वोट के अधिकार का विवाद खडा हुआ था, तब अकाली दल और भाजपा दोनों ही गठबंधन तोड़ने की मानसिकता बना रहे थे | यह मुद्दा भी भाजपा के लिए मुफीद होता ,क्योंकि इस मुद्दे पर वह पंजाब के हिन्दुओं को अपने पक्ष में लामबंद कर के 40-50 सीटों पर अपना आधार मजबूत कर सकती थी | नवजोत सिंह सिद्धू भी पार्टी पर दबाव बना रहे थे कि गठबंधन तोड़ कर अकेले चुनाव लड़ा जाए | नवजोत सिंह सिद्धू भाजपा को पहला मजबूत सिख नेता मिला था, जो भाजपा का आधार सिखों में भी खडा कर सकता था | लेकिन अंतिम निर्णय के लिए दिल्ली में वित्तमंत्री के घर पर हुई बैठक में सारी परिस्थितियाँ बदल गयी | गठबंधन बनाए रखने का फैसला हुआ , यह जानते हुए भी कि अकाली दल के साथ डूबने के सिवा और कोई नतीजा नहीं आएगा | 

 

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