अजय सेतिया / साथियो , वामपंथी लीनिंग वाले पत्रकारों को लगता है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय पत्रकारिता अपने अब तक के सब से बड़े संकट के दौर से गुजर रही है | पूरी तरह नहीं , लेकिन किसी हद तक मैं भी उन से सहमत हूँ | मेरा मानना है पत्रकारों के एक वर्ग ने गोधरा काण्ड के बाद दंगों में मोदी की भूमिका के आरोप लगा टकराव की स्थिति पैदा की थी | अदालतों ने मीडिया के उन आरोपों को खारिज कर दिया, इस के बावजूद उन के रूख में कोई बदलाव नहीं आया | देश की जनता ने उन पत्रकारों के आरोपों को खारिज करते हुए 30 साल बाद मोदी को स्पष्ट बहुमत का जनादेश दिया , लेकिन उन ख़ास वर्ग के पत्रकारों ने जनादेश को भी स्वीकार नहीं किया | उन्होंने अपनी खुन्नस के कारण उन पत्रकारों को मोदी भक्त लिखना शुरू कर दिया , जो 30 साल बाद मिले स्पष्ट जनादेश का सम्मान करते थे और सरकार के साथ सद्भावपूर्ण वातावरण से नई शुरुआत चाहते थे | इस से पत्रकारों में स्पष्ट विभाजन हो गया |
मीडिया के वामपंथी लीनिंग वाले वर्ग ने पहले वामपंथी पत्रकार लंकेश गौरी की हत्या के लिए राजनीतिक दल की तरह भाजपा-संघ परिवार के खिलाफ हत्या के आरोप लगाए और अब विनोद वर्मा की गिरफ्तारी को ढाल बना कर नरेंद्र मोदी पर निशाने साधे जा रहे हैं | मैं मोदी सरकार की ओर से पत्रकारों के प्रति खुन्नस वाले व्यवहार को लोकतंत्र और स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए खतरा मानता हूँ | पिछले दिनों मैंने एक लेख में लिखा था -" पत्रकार दहशत के माहौल में हैं | पत्रकारिता की स्वतन्त्रता खतरे में है | कई न्यूज चैनेल सरकारी दबाव में चीन के ग्लोबल टाइम्स अखबार जैसे हो गए हैं , जो वहां सकारी भोंपू है | सरकार विरोधी मीडिया आर्थिक संकटों से जूझ रहा है |" इस के बावजूद मुझे लगता है कि कार्यपालिका,न्यायपालिका और विधायिका की तरह मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है और उसे भी बाकी खम्भों की तरह जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार करना चाहिए | इस लिए मैंने रविवार को फेसबुक पर सवाल उठाया था कि हर बात पर मोदी के खिलाफ बोलना पत्रकारिता है क्या ? फिर एक अन्य पोस्ट में सवाल उठाया कि हर बात पर राहुल गांधी के खिलाफ बोलना पत्रकारिता है क्या | जिस पर कुछ पत्रकारों ने बवाल खड़ा किया और मुझ पर व्यक्तिगत प्रहार किए |
प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार श्री जयशंकर गुप्त
और मेरे बीच फेसबुक पर हुए पत्राचार को आप के समक्ष रख रहा हूँ |
सोमवार को फेसबुक पर मेरी टिप्पणी : मैंने कल पहला सवाल यह उठाया कि दिन रात मोदी की आलोचना करने वाले पत्रकार हैं क्या ? मोदी की आलोचना में लगे रहने वालों ने काफी टिप्पणियां की है। ये वही लोग हैं जो मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भी उन के विरोधी थे और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी विरोध जारी है। उन पर इस देश के जनादेश का कोई असर नहीं , क्योंकि न तो उन की लोकतंत्र में कोई आस्था है, न निष्पक्ष पत्रकारिता में और न ही न्यायपालिका में। क्योंकि वे अपने वैचारिक एजेंडे पर चलते हुए गोधरा कांड के बाद से मोदी का विरोध जारी रखे हुए हैं । न उन्होंने न्यायपालिका का सम्मान किया , न जनादेश का। इन सब के बावजूद वे खुद को निष्पक्ष पत्रकार कहलाना चाहते हैं।
मैंने यह सवाल उन लोगों से पूछा था , जो इस सब को देख रहे हैं। लेकिन चोर की दाढ़ी में तिनका की तरह मोदी विरोधी मेरे सवाल से परेशान हैं और उन्होंने प्रति सवाल किया है कि मोदी भक्ति करते रहने वाले पत्रकार हैं क्या ? तो मेरा जवाब है - नहीं । मोदी भक्ति भी निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं, जो इस समय रिपब्लिक कर रहा है, वह चीन के ग्लोबल टाइम्स जैसी पत्रकारिता है, जो सिर्फ सरकार की डुगडुगी बजाता है। और द वायर का मोदी विरोध किसी भी हालत में पत्रकारिता नहीं है।क्योंकि उस के सारे पत्रकार वामपंथी विचारधारा का पोषण करने वाले लोग हैं, जिन का एजेंडा मोदी के खिलाफ लिख कर कांग्रेस को लाभ पहुंचना है।
इस पर प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार श्री जयशंकर गुप्त की टिप्पणी : अजय, बात बे बात सरकार और उसके प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों (चाहे वह किसी भी दल के हों या रहे हों) के सही गलत कार्यों का अंध समर्थन और उनके पक्ष में दुंदभि बजाना पत्रकारों और पत्रकारिता का धर्म या दायित्व कबसे बन गया! इसके लिए सरकारी प्रचार माध्यमों को सक्षम और समर्थ बनाना पर्याप्त है।
इससे पहले की सरकारों के बारे में हमने, आपने कितनी भक्ति दिखाई और प्रशस्तिगाथाएं लिखी या सुनाई थी। अपने बारे में कह सकता हूं कि हमने ऐसा कभी नहीं किया। आपने किया हो तो बताएं। आपको शायद स्मरण हो , तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में 416 सांसदों के प्रचंड बहुमत से राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने के बाद वरिष्ठ संपादक प्रभाष जोशी ने दीन हीन विपक्ष (भाजपा के केवल दो ही सांसद चुन कर आए थे) का जिक्र करते हुए पत्रकारिता और पत्रकारों से सजग विपक्ष की भूमिका निभाने का आह्वान किया था ताकि शासन और शासक निरंकुश नहीं हो सकें।
इस समय नक्कारखाने में तूती की आवाज सदृश चंद अपवादों को छोड़ दें तो बहुतायत मीडिया, मालिक, संपादक और पत्रकार प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों के जयघोष की दुंदुभि बजाने में समर्पित भाव से जुटे हैं, अपवादस्वरूप होनेवाली असहमति और आलोचनाएं भी नागवार और नाबर्दाश्त होने लगें तो अफसोस ही होता है। अगर यह सब करने से हमारे किसी या किन्हीं मित्रों का अभीष्ट प्राप्त होता हो तो, हमें कुछ नहीं कहना। लगे रहिए आज नहीं तो कल......
अजय सेतिया : आप कुछ भी लिख सकते हैं। आप की अंतिम पंक्ति अजित अंजुम की तरह व्यक्तिगत टिप्पणी है। मेरी दिक्कत यह है कि मैं आप की तरह व्यक्तिगत टिप्पणियां नहीं करता।
इस के बाद जयशंकर गुप ने मेरी उपरोक्त टिप्पणी और अपनी टिप्पणी को लेकर अपनी वाल पर एक पोस्ट डाली ,जिस पर काफी लोगों ने प्रतिक्रिया दी है, जिन में कुछ का मैंने जवाब भी लिखा है | उन का जिक्र यहाँ आवश्यक नहीं |
अजय सेतिया : मेरे संघर्षशील मित्र जयशंकर गुप्त ने एकतरफा बवाल खड़ा किया। मैंने अपनी पोस्ट में मोदी के अंधविरोध की पत्रकारिता पर सवाल उठाया था तो अंध भक्ति की पत्रकारिता पर भी सवाल उठाया था। जयशंकर गुप्त ने जानबूझ कर मेरी पोस्ट के उस अंश की अनदेखी की और कुछ लोगों ने बिना मेरी पूरी पोस्ट पढे जयशंकर गुप्त के प्रति अंधभक्ति दिखा दी।
जय शंकर गुप्त : गजब, अजय! आप क्या कुछ लिखे जा रहे हैं! आप मुझ पर बेवजह एकतरफा बवाल खड़ा करने का आरोप लगा रहे है। हम किसी के भक्त नहीं और हमारा भी कोई भक्त नहीं, हमारी अंध भक्ति का आरोप तो हमारे साथ ज्यादती ही होगी। हमने आपकी पूरी पोस्ट बिना किसी काट छांट के, बिना कामा, फुलस्टाप बदले या हटाए चस्पा की है। हमें जवाब लिखना इसलिए जरूरी लगा कि इधर कुछ दिनों से पत्रकारों और पत्रकारिता को लेकर एक सुनियोजित साजिश के तहत अजीबोगरीब टिप्पणियां होने लगी हैं। ऐसे लोग भी स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता के मानदंड समझाने लगे हैं जिनका संपूर्ण पत्रकार जीवन एक पार्टी और परिवार, उसकी सरकार के खिलाफ निंदा अभियान चलाने और एक अन्य पार्टी, परिवार और उसकी सरकार के यशोगान में ही बीता है। कुछ लोग, कुछ गिने चुने गलत सही उदाहरणों कौ सामने रखकर समझाने लगे हैं कि पत्रकारिता से इतर कार्यों में लिप्त लोग भी पत्रकार की सरकारी मान्यता लेकर घूम रहे हैं। अगर वाकई ऐसा है तो उनकी पहिचान कर उनके विरुद्ध कार्यवाही होनी चाहिए। लेकिन सरकार से असहमति जताने और सरकार के विरुद्ध लिखने बोलनेवालों को कांग्रेसी या कम्युनिस्ट करार देना न सिर्फ गलत बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात भी है। हम तो इसके भी पक्षधर हैं कि पीआइबी का कार्ड लेकर पत्रकारिता से इतर कार्यों में व्यस्त लोगों की पहिचान कर उनके विरुद्ध कार्यवाही हो। वैसे भी नैतिकता का तकाजा तो यही है कि पत्रकारिता से इतर कार्यों में लगे लोगों के अपने मान्यता कार्ड लौटा दें लेकिन ऐसा कहां हो रहा है। राजनीतिक दलों, सरकार एवं मंत्रियों के यहां उच्च पदों पर बैठे लोग भी इसके लिए तैयार नहीं दिख रहे।
अजय सेतिया : क्या मैंने गलत लिखा है | क्या मैंने अपनी मूल पोस्ट में दोनों तरह की पत्रकारिता पर सवाल नहीं उठाया था , फिर आप ने किस आधार पर मेरी आलोचना की , बताइए | आप कह रहे हैं कि -" हम तो इसके भी पक्षधर हैं कि पीआइबी का कार्ड लेकर पत्रकारिता से इतर कार्यों में व्यस्त लोगों की पहिचान कर उनके विरुद्ध कार्यवाही हो। वैसे भी नैतिकता का तकाजा तो यही है कि पत्रकारिता से इतर कार्यों में लगे लोगों के अपने मान्यता कार्ड लौटा दें |" तो आप बताइए कि क्या आप ने विनोद वर्मा की यह जांच कर ली है कि वह कांग्रेस के पेड़ वर्कर हैं या नहीं | इसी तरह की घटना पिछली एनडीए सरकार में इफ्तिखार के साथ हुई थी, तो मैंने खुल कर उन के समर्थन में लिखा था
जयशंकर गुप्त : विनोद वर्मा अगर पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं तो पीआइबी की प्रेस मान्यता समिति को उनके कार्ड पर विचार करना चाहिए लेकिन तब तो ऐसे बहुत से स्वनामधन्य धन्य पत्रकारों के कार्ड पर सवाल उठने लगेंगे जो सरकार में बड़े पदों पर आसीन होने के बावजूद पीआइबी कार्ड धारक हैं। भाई मेरे हम बार बार कह रहे हैं कि हमने आपकी पूरी पोस्ट (दूसरीवाली) बिना काट छांट के हूबहू लगाकर उस पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी। आपकी पहली पोस्ट तो और भी गजब की थी। अब तो यह हमारे आपके फेसबुकिया मित्रो पर है कि वो उसका क्या संदर्भ लें। हमने तो किसी से नहीं कहा कि वे आपके किस अंश को देखें और किसे नहीं। आपकी सुविधा के लिए आपकी पहली पोस्ट भी लगा दे रहा हूं। कृपा कर अपनी पहली पोस्ट भी देखें फिर बताएं कौन गलत सही लिख रहा है! अजय सेतिया की पत्रकारों के बारे में पहली पोस्ट :"खुलेआम हर बात पर मोदी के खिलाफ बोलते और लिखते रहने वालों को पत्रकार कहेंगे क्या ? द वायर से जुड़े सभी यही कर रहे हैं।"
अजय सेतिया : मैं इसे दोहराता हूँ | "खुलेआम हर बात पर मोदी के खिलाफ बोलते और लिखते रहने वालों को पत्रकार कहेंगे क्या ? द वायर से जुड़े सभी यही कर रहे हैं।" और आप मेरी दूसरी पोस्ट क्यों छूपा रहे हो, वह पोस्ट थी --"दूसरा सवाल। हर बात पर राहुल गांधी के खिलाफ बोलते रहने वालों को पत्रकार कहेंगे क्या ? रिपब्लिक से जुड़े सभी यही कर रहे हैं ।"
अजय सेतिया : आप प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं, अगर आप पत्रकारिता नहीं कर रहे पीआईबी कार्ड होल्डरों की मान्यता रद्द करने के पक्ष में हैं तो आप ने विनोद वर्मा का समर्थन करने का स्टैंड कैसे लिया | मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि मैं दस-पन्द्रह-बीस-पच्चीस साल पत्रकारिता करने वालों का एक्रिडीएशन रद्द करने के पक्ष में नहीं हूँ | पर उन्हें अपने गैर पत्रकारीय कार्यों में पीआईबी कार्ड को ढाल नहीं बनाना चाहिए और गैर पत्रकारीय कार्यों के कारण होने वाली कार्रवाई पर प्रेस एसोसिएशन या प्रेस क्लब को उन का बचाव नहीं करना चाहिए |
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