अपनी शपथ ग्रहण के तुरंत बाद 5 जून 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्यूरोक्रेट्स के साथ मीटिंग कर के उन्हें फ्री हेंड दिया था | उस पर 22 जून 2014 को दैनिक हिन्दुस्तान में मेरा एक लेख छपा था | नरेंद्र मोदी के शासन के आख़िरी साल आज वह लेख और ज्यादा सार्थक हो गया है, क्योंकि मोदी शासन में यह छवि बनी है कि ब्यूरोक्रेसी ने राज किया | मैं अपना वह असम्पादित लेख अपने पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ, जबकि हिन्दुस्तान में छोटा करने के चक्कर में सम्पादित लेख छपा था |
अजय सेतिया/ नरेन्द्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिन्होंने ब्यूरोक्रेसी को बढ़ावा देते हुए उसके हौसले बुलंद किए हैं। उनके मंत्रिमण्डल के कई सदस्य इस बात से खफा हैं कि जिस तरह प्रधानमंत्री ने प्रशासनिक अधिकारियों को अपना फोन नंबर थमा दिया है, उस तरह उन्हें नहीं थमाया गया। उनका मानना है कि प्रशासनिक अधिकारी तो पहले ही मंत्रियों की बात नहीं सुनते। अब अगर प्रधानमंत्री उन्हें और सिर चढ़ा देंगे तो मंत्रिमंडलीय प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी। प्रधानमंत्री जिन सांसदों पर भरोसा करके उन्हें अपनी मंत्रिमण्डीय टीम का हिस्सा बनाते हैं, उनका सशक्तिकरण किया जाना भी जरूरी है। इसके विपरीत ब्यूरोक्रेसी अगर सीधी प्रधानमंत्री से बात करेगी, तो मंत्रियों का कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा। कांग्रेस के शासनकाल में ब्यूरोक्रेसी पर पहले ही कोई नकेल नहीं थी , अब अगर उन्हें और ताकतवर बनाया जाएगा तो जनप्रतिनिधियों का महत्व खत्म हो जाएगा।
ब्यूरोक्रेसी का लोकतांत्रिक ढांचे पर कितना आतंक है, इसके लिए एक उदाहरण काफी है। यूपीए शासनकाल में ब्यूरोक्रेसी को जवाब देय बनाने के लिए सूचना का अधिकार कानून बनाया गया। कांग्रेस ने अपने चुनाव अभियान में इसे अपनी बड़ी उपलब्धि की तरह पेश भी किया। लोकतंत्र को मजबूत और प्रशासन को जबावदेय बनाने की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण कदम है भी। जबकि सूचना का अधिकार अधिनियम भी किस तरह ब्यूरोक्रेसी के चंगुल में फंस गया है, इस पर शायद किसी की नज़़र नहीं पड़ी। समूचे देश मेें ऊपर से लेकर नीचे तक सूचना के अधिकार तंत्र पर ब्यूरोक्रेसी का कब्जा हो चुका हैं। देश के मुख्य सूचना आयुक्त से लेकर सभी राज्यों के सभी मुख्य सूचना आयुक्त रिटायर्ड आई.ए.एस अधिकारी हैं। अधिनियम में कहीं नहीं लिखा कि मुख्य सूचना आयुक्त रिटायर्ड आई.ए.एस अधिकारी होगा, लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर सभी मुख्यमंत्रियों ने ब्यूरोक्रेसी के दबाव में आकर मुख्य सूचना आयुक्त एवं अधिकतर सूचना आयुक्त रिटायर्ड आई.ए.एस अधिकारियों को बना दिया है। जिस ब्यूरोक्रेसी को जबावदेय बनाने के लिए सूचना आयोगों का ढांचा खड़ा किया गया था, वह सारा ढांचा उसी ब्यूरोक्रेसी के चगुंल में फंस गया है। देश के किसी भी राज्य का कोई मुख्यमंत्री ऐसी हिम्मत क्यों नहीं कर पाया कि मुख्य सूचना आयुक्त अधिनियम में तय शर्तें पूरी करने वाले किसी सामाजिक कार्यकर्ता को मुख्य सूचना आयुक्त बना पाता। उत्तराखण्ड के एक मुख्यमंत्री ने एक बार ऐसी कोशिश की थी लेकिन उसे भी ब्यूरोक्रेसी के सामने घुटने टेकने पड़े और फाईल ठंडे बस्ते में डाल दी गई।
पिछले 35-40 वर्षों में राजनीतिक ढांचा कमजोर हुआ है, और ब्यूरोक्रेसी मजबूत हुई है। पूर्व में चुने हुए प्रतिनिधि जो मंत्री भी होते थे, अपने दौरों में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को अहमियत देते थे, इससे निचले स्तर पर प्रशासनिक अधिकारियों को संदेश जाता था उनके असली आका जनता की ओर से चुने गए प्रतिनिधि हैं। आपात स्थिति में सारा ढांचा ही बदल दिया गया। राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर ब्यूरोक्रेसी हावी हो गई, क्योंकि ब्यूरोक्रेसी ने विधि सम्मत कार्यवाही करने की बजाए राजनीतिक आकाओं की चापलूसी सीख ली थी। समाज की सत्ता में भागीदारी सीमित होती चली गई। एक वह भी जमाना था, जब किसी कार्यक्रम के निमत्रंण पर मंत्री उस जिले की अपनी पार्टी की इकाई से पूछते थे कि निमंत्रण स्वीकार किया जाए या नहीं। मंत्री अपने दौरे के समय राजनीतिक कार्यक्रम भी रखते थे, ताकि सत्ता का समाज से तारतम्य बना रहे। जबकि गत 35-40 वर्ष में सत्ता और संगठन एक दम अलग-अलग हो गए। मंत्री अपने दौरे के निमत्रंण पर जिलाधीश से पूछते हैं, दौरे के समय सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक करते हैं। मंत्रियों के इर्द गिर्द जल्द ही उद्योगपति मंडराने लगते हैं, जो सरकारी ठेकों के लिए लाबिंग करते हैं। इन सभी उद्योगपतियों की मंत्री तक सीधी पहुंच ब्यूरोक्रेसी के माध्यम से ही होती है। राजनीतिक कार्यकर्ता भी इसी दौर में इन धंधों को समझ गया है। इस लिए वह भी अपने संबंधों का लाभ उठाते हुए किसी उद्योगपति को अपनी फंडिंग एजेंसी बनाकर मंत्री तक पहुंचाता है। सत्ता सरकारी ठेके देने-दिलाने-कमाने का जरिया बन कर रह गई है। प्रधानमंत्री ब्यूरोक्रेसी और राजनीतिको के इस गठजोड़ को कैसे तोडे़ंगे ?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव में जिस प्रकार संचार क्रांति का इस्तेमाल किया, उससे संचार क्रांति से जुड़े तकनीशियन और विशेषज्ञ भी स्तब्ध रह गए। कांग्रेस तो अनुमान ही नहीं लगा सकी कि नरेन्द्र मोदी गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में गत दो वर्ष से संचार क्रान्ति के माध्यम से लोकसभा चुनाव में उसे पटकनी देने की रणनीति बना रहे थे। राहुल गांधी जयपुर में कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष बनने के दिन से अघोषित तौर पर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषण दे कर उन्होंने युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश की थी, लेकिन नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषण देते समय जब संचार क्रांति का इस्तेमाल किया, तो संकेत मिलने लगे थे, कि मोदी की तैयारी ज्यादा है। हालांकि तब तक भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था। नरेन्द्र मोदी ने जन जन तक पहुंचाने की रणनीति किस तरह बनाई थी, उसे इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है। उत्तराखण्ड का पौड़ी जिला सर्वाधिक पिछड़ा हुआ जिला है, बेरोजगारी का आलम यह है कि खुबसूरत पहाड़ छोड़ कर लोग शहरों में छोटे-मोटे काम करने को मजबूर है। दुर्गम पहाडि़यों पर न सड़के हैं, न स्कूल, न चिकित्सालय। अपने बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए लोग शहरों में पलायन कर गए हैं और बचे खुचे पलायन कर रहें हैं। ऐसे दुर्गम क्षेत्र में चुनाव प्रचार के समय भाजपा के उम्मीदवार भुवन चंद्र खण्डूरी की बेटी ऋतु खंडूरी ने एक बुर्जुग महिला के सामने जब वोट की गुहार लगाई तो वोटर महिला ने उसे पानी की पेशकश करने हुए कहा ‘‘वोट तो मैं इस बार मोदी को ही दूंगी’’ । खुश होते हुए ऋतु ने कहा कि वह मोदी के लिए ही वोट मागंने आई है। इस पर बुलंद महिला ने ऋतु से कहा- ‘‘नौनी अब खाना खैईक जा’’।
एक तरफ ऐसी संचार क्रांति के मुखिया और दूसरी तरफ भारत के 90 फीसदी आईएएस अधिकारी तब तक अपना ई मेल खोलकर नहीं देखते, जब तक उन्हें फोन पर ई मेल भेजने की सूचना न दी जाए। ताजा उदाहरण देखिए बारह जून को बाल श्रम विरोधी अंतर्राष्ट्रीय दिवस के संदर्भ में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने देश में चार राऊंड टेबल कांफ्रैस आयोजित की थी। देश को चार हिस्सों में बांटा गया। विषय क्योंकि बाल श्रम से जुड़ा था, अतः सभी राज्यों के प्रमुख सचिव श्रम एवं श्रम आयुक्तों को निमंत्रण भेजा गया। सभी राज्यों के समाज विभाग के प्रमुख सचिवों और आईसीपीएस योजना के निदेशकों को भी न्योता भेजा गया। ये सभी आईएएस अधिकारी होते हैं। कांफ्रेस आयोजित करने वाले राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोगों के कार्यालयों ने भी ई मेल से न्यौता भेजा, लेकिन जब उत्तर भारत के किसी भी राज्य से किसी अधिकारी ने आने की पुष्टि नहीं की, तो फोन मिलाने का सिलसिला शुरू हुआ। सौ फीसदी आई.ए.एस अधिकारियों का जवाब था कि उन्होंने ई मेल नहीं देखा। प्रधानमंत्री को सबसे पहले तो देश के सभी आई.ए.एस अधिकारियों को निर्देश देना चाहिए कि ई मेल का जवाब 24 घण्टे में देना सीखें।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से देश को बहुत आशाएं है। वह नई पीढ़ी के भाजपा के नेता है, इस लिए उन्हें इतना अपार समर्थन मिला है। अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की भाजपा कभी 183 से आगे नहीं बढ़ सकी थी। डा0 श्यामा प्रशाद मुखर्जी और प0 दीन दयाल उपाध्याय की जनसंघ कभी 35 सीटों (1967 की सर्वाधिक सीटे) से आगे नहीं बढ़ पाई थी, लेकिन 1967 में बागडोर संभालने के बाद इंदिरा गांधी ने जिस तरह 287 सीटें जीती थी, ठीक उसी तरह नरेन्द्र मोदी ने चुनाव की बागडोर संभालने के बाद भाजपा को 280 पर पहुंचा दिया। इंदिरा गांधी ने जो गलतियां कांग्रेस को कमजोर करके की थी, अगर नरेंद्र मोदी वही गलतियां दोहरा कर अपने मंत्रियों, पार्टी संगठन को कमजोर और ब्यूरोक्रेसी को मजबूत करके करेंगे तो जिस तरह इंदिरा गांधी पर लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगता है, उसी तरह उन पर भी लगने लगेगा। ऐसा संतुलन बनाना होगा, जिसमें सŸाा चुने हुए नुमाइंदों के हाथ में रहे। ब्यूरोक्रेसी विधि और नियमों का पालन करते हुए संसद और विधानसभाओं के निर्देशों का अक्षरशः पालन करे। संसद और विधानसभाओं के बनाए अधिनियमों के अनुपालन की कहीं, किसी स्तर पर कोई समीक्षा नहीं होती। जो कानून बनाए जाते हैं, या भारत सरकार जनकल्याण की जो योजनाएं बनाती है, उसका अनुपालन करना और जमीन पर उतारना ब्यूरोक्रेसी का काम है। ब्यूराक्रेसी अगर चुने हुए नुमाइंदों की ओर से लिए गए फैसलों का अनुपालन नहीं करती तो उन पर कार्रवाई होनी चाहिए। कानूनों और योजनाओं के अनुपालन की निगरानी एवं आम जनता को न्याय दिलाने के लिए विभिन्न स्तरों पर आयोगों का गठन किया जाता है। अगर ब्यूरोक्रेसी न्यूनतम समय में कानूनों और योजनाओं का अनुपालन करवा दे, तो इन आयोगों के गठन और उन पर करोड़ों रुपये के खर्चे को बचाया जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय को भी समय-समय पर लोकहित की याचिकाओं पर ब्यूरोक्रेसी को निर्देश देने पड़ते हैं। गत 67 वर्ष में हम सक्षम ब्यूरोक्रेसी का गठन नहीं कर सके , अलबत्ता देश की ज्यादातर समस्याओं की जड़ ब्यूरोक्रेसी को और मजबूत करने की बात कह कर लोकतंत्र को कमजोर करने का कदम उठा रहे हैं। उन्हीं की सरकार के वित्त एवं रक्षा मंत्री अरुण जेटली हमेशा इस मत के रहे हैं कि रिटायर्ड जजों और रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारियों को महत्वपूर्ण पद नहीं सौंपे जाने चाहिए। सिर्फ विशेषज्ञ अधिकारियों की सेवाएं विशेष कार्यों के लिए ली जानी चाहिए, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ली भी हैं। लेकिन हम जानते हैं कि अपने संबंधों का लाभ उठा कर और सेवा अवधि के दौरान बेजा फायदा देकर रिटायर हो रहे प्रशासनिक अधिकारी आयोगों, प्राधिकरणों में सदस्य एवं अध्यक्ष बन कर सारी उम्र सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाते रहते हैं।
जिस लोकतंत्र की ताकत ने देश में पहली बार एक सामान्य परिवार में पैदा हुए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पर पंहुचाया है, उस लोकतंत्र की भावना के अनुरुप ही काम होना चाहिए। लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत करने की जरुरत है, न कि ब्यूरोक्रेसी की। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में पंचायती राज प्रणाली को मजबूत करने की दिशा में कानून बना था। विभिन्न राज्यों ने ऐसे दर्जनों कार्यों की पहचान करके बाकायदा अधिसूचना जारी की, जिन्हें पंचायतों को सौंपा गया था। लेकिन अधिकतर राज्यों में पंचायतों को जमीन पर कोई अधिकार नहीं मिले, चुने हुए जिला पंचायत अध्यक्ष, पंचायत अध्यक्ष अभी भी छोटी-छोटी मांग के लिए ब्यूरोक्रेसी के सामने गिड़गिड़ाते हैं। कारण साफ है ब्यूरोक्रेसी ने संसद के बनाए कानून को जमीन पर उतरने ही नही दिया। प्रधानमंत्री पंचायतों को ब्यूरोक्रेसी से मुक्त करवाकर इसकी शुरुआत कर सकते हैं। अब ब्यूरोक्रेसी का सशक्तिकरण नहीं, जवाबदेही तय होनी चाहिए।
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