आयुष्मान के बाद क्यों मर रहे हैं बच्चे

Publsihed: 22.Jun.2019, 13:15
अजय सेतिया / बच्चों के अधिकारों से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकोल में स्वास्थ्य को बच्चों के “मौलिक अधिकार” में शामिल किया गया था | 1989 में बने इस प्रोटोकाल पर भारत ने 1992 में दस्तखत कर के बच्चो के स्वास्थ्य की गारंटी दी हुई है | इस प्रोटोकाल पर दस्तखत करने के बाद भारत सरकार को बच्चों के स्वास्थ्य सुरक्षा से सम्बन्धित वायदों को निभाने के लिए कदम उठाने थे | प्रोटोकाल में दस्तखत करने वाले देशों ने बच्चों के लिए तीन “पी” का वायदा किया था | जिसे अंगरेजी में प्रोविजन , प्रोटेक्शन और पार्टीसिपेशन यानी प्रावधान, सुरक्षा और भागेदारी कहते हैं | आज हम सिर्फ पहले “पी “ यानी प्रावधान का जिक्र करेंगे क्यों कि पिछले साल उत्तरप्रदेश के गौरखपुर और इस साल बिहार के मुजफ्फरपुर की घटनाओं ने उस सरकारी वायदे की पोल खोली है, जो भारत ने 26 साल पहले संयुक्त राष्ट्र से किया था |
प्रथम “पी” में बच्चों के मौलिक अधिकारों का जिक्र किया गया है | इस में कहा गया है कि बच्चों को स्तरीय जीवन जीने , स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और सेवाओं के पर्याप्त मानक,  खेलने और मनोरंजन करने का अधिकार शामिल है । संतुलित आहार, सोने के लिए एक मुलायम बिस्तर और स्कूली शिक्षा तक पहुंच भी इन मौलिक अधिकारों में शामिल है । यानि प्रोटोकाल में भोजन और स्वास्थ्य की गारंटी की बात कही गई है | लेकिन हम आंगनबाडी और मिड डे मील की विश्व की सब से बड़ी बाल कल्याण की योजनाएं चलाने के बावजूद इन दोनों ही मोर्चों पर विफल क्यों हो रहे हैं | गौरखपुर और मुजफ्फरपुर की घटनाओं से यह बात भी सामने आती है कि जहां जहां बच्चों की बीमारियों से मौत होती है, वहां मरने वाले लगभग सौ फीसदी बच्चे गरीब परिवारों के होते हैं | उन बच्चो की प्रतिरोधक क्षमता कम पाई जाती है | इस से साबित होता है कि गरीब बच्चों के पोषण के लिए चलाई जाने वाली आंगनबाडी और मिड डे मील योजना में खोट है | इन दोनों योजनाओं को सुचारू रूप से चलाने और फंडिंग की जिम्मेदारी बाल कल्याण विभाग की होती है | हम ने पिछले पांच सालों में देखा कि इन दोनों योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार हुआ | 
केंद्र सरकार के बाल कल्याण विभाग के अधिकारियों के दबाव , राज्य सरकार और जिला स्तर  के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के कारण लगभग हर राज्य में खाद्ध्य पदार्थों की आपूर्ति का ठेका बड़ी कम्पनियों को दे दिया गया , जिन के बड़े तामझाम में बच्चों को मिलने वाले भोजन की मात्रा घट गई | भोजन में स्थानीय सब्जियों आदि का समावेश खत्म प्राय हो गया | इस लिए जरूरी यह है कि आंगनबाडी और मिड डे मील योजनाओं की निगरानी में उपभोक्ता बच्चों के माता पिता की भागेदारी सुनिश्चित की जाए ताकि बच्चों को भर पेट पोषक भोजन मिल सके और उन की रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ सके | 
अब हम समीक्षा करें कि जिस अंतर्राष्ट्रीय वायदे के बाद हमें विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से इन वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक मदद मिल रही है, क्या हम उन्हें पूरा कर रहे हैं | अठारह साल की उम्र होने तक सरकार से मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करना हर बच्चे का मौलिक अधिकार है | संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकाल पर दस्तखत करने के बाद भारत सरकार ने देश के कितने जिलों में गरीब अनाथ बच्चों के लिए बाल गृह खोले , बच्चो के लिए कितने अलग अस्पताल खोले , कितने बाल विशेषग्य डाक्टरों की भर्ती की | हालत यह है कि गौरखपुर और मुजफ्फरपुर जहां हर साल विभिन्न बीमारियों से बच्चों की मौत हो जाती है, वहां भी न तो बच्चो के लिए अलग से सरकारी अस्पताल हैं और न ही डाक्टर हैं | मुजफ्फरपुर के जिस अस्पताल में बच्चो का इलाज हुआ , वहां के डाक्टरों को सीटी स्कैन मशीन तक नहीं चलानी आती थी | राजनीतिक सिफारिशों से भर्ती और फिर मन चाही शहरी अस्पताल में नियुक्ति से बाल कल्याण नहीं हो सकता |  
केंद्र और राज्य सरकारें बच्चों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने के कई झूठे दावे कर सकती हैं , लेकिन सरकारों को झुठलाने के लिए एक बात तो कानूनी तौर पर हमारे सामने है कि 18 वर्ष की आयु तक मुफ्त शिक्षा का अधिकार सरकार ने नहीं दिया है , कानूनी तौर पर भी आठवीं कक्षा यानी 14 साल तक मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया है , बाल मजदूरी पर भी 14 वर्ष की आयु तक रोक लगाई गई है | यह बात सही है कि प्रोटोकाल पर दस्तखत के बाद भारत में बच्चों की मृत्यू दर में कुछ गिरावट  आई है , लेकिन अभी भी हर साल भारत में करीब दस लाख बच्चों की मौत होती है | हम लक्ष्य से बहुत पीछे हैं क्योंकि पिछले दो दशक में शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण ने सरकार को जिम्मेदारी से विमुक्त कर दिया | 

जिस समय संयुक्त राष्ट्र में बच्चों के प्रोटोकोल पर दस्तखत हुए ठीक उसी समय भारत में उदारीकरण की बयार चल पड़ी | केंद्र और राज्य सरकारें वेलफेयर स्टेट के उद्देश्य से दूर हो गई , जिस कारण सब कुछ प्राईवेट अस्पतालों और स्वास्थ्य बीमा योजनाओं पर छोड़ दिया गया, नतीजतन सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत बिगडती चली गई | पिछले साल एक परिचर्चा में तत्कालीन स्वास्थ्यमंत्री जेपी नद्दा ने माना था कि प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत खस्ता है और सरकार का ल्श्य उन्हें मजबूत करने जका है, लेकिन क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा पूरी तरह ध्वस्त हो गया है इस लिए फिलहाल स्वास्थ्य बीमा योजना जैसे तात्का;लिक इंतजाम किए गए हैं | अभी करीब एक सवा साल साल पहले केंद्र सरकार ने आयुष्मान भारत नाम से स्वास्थ्य योजना शुरू की थी | जिस की सफलता के लम्बे चौड़े दावे किए गए और किए जा रहे हैं | इस के बावजूद गौरखपुर और मुजफ्फरपुर जैसी जगहों पर हर साल सैंकड़ों बच्चे मर रहे हैं |

जून माह में मुजफ्फरपुर में डेढ़ सौ के आसपास बच्चों की मौत की खबर ने देश को एक बार फिर झकझोरा है | मरने वाले बच्चे उन्हीं गरीब परिवारों के हैं , जिन के लिए आयुष्मान भारत योजना शुरू की गई थी | मुजफ्फरनगर की ताजा घटना ने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो बड़ी योजनाओं स्वच्छ भारत और आयुष्मान भारत की धरातल पर विफलता की पोल खोली है | आयुष्मान भारत योजना के तहत हर साल ग़रीब परिवार को पाँच लाख रुपए के स्वास्थ्य बीमा देने की बात कही गई है | जिसमें सभी तरह की जाँच, दवा, अस्पताल में भर्ती के खर्च शामिल हैं | क्योंकि आयुष्मान भारत के तहत परिवार के आकार या आयु पर कोई सीमा नहीं है,ऐसे में दावा है कि इसमें हर किसी का मुफ़्त इलाज होगा |

योजना के प्रचार प्रसार में अक्सर एक लाइन लिखी जाती है- '' अब नहीं रहा कोई लाचार, बीमार को मिल रहा है मुफ़्त उपचार | ''  अगर यह योजना इतनी फूलप्रूफ थी तो फिर मुज़फ्फ़रपुर में इलाज के अभाव में बच्चों की मौत क्यों हो रही है | मजेदार बात यह है कि एक्यूट इनसेफ़िलाइटिस सिंड्रोम (AES) और वायरल इन्सेफ़िलाइटिस दोनों ही बीमारियां आयुष्मान भारत योजना के तहत कवर हैं | और मुजफ्फरपुर में मरने वाले सभी बच्चे इन्हीं दो बीमारियों से ग्रस्त थे |

 

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार और बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं )

 

 


 

 

 

 

 

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