अमर उजाला, 21 February 2015
जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन की खबर चुनाव परिणाम के तुरंत बाद शुरू हो गई थी। नतीजों के बाद दोनों दलों में बातचीत भी शुरू हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, तो गर्वनर राज लागू हो गया। दिल्ली चुनाव नतीजों के बाद भारतीय जनता पार्टी ने बातचीत का दूसरा दौरा शुरू किया। जैसे ही बातचीत की खबर आई, कांग्रेस से बड़ी दिलचस्प प्रतिक्रिया सामने आई। कांग्रेस की तरफ से कहा गया कि अगर पीडीपी-भाजपा का गठबंधन हो सकता है, तो सूरज भी पश्चिम से निकल सकता है। राजनीति तो संभावनाओं का खेल है। राजनीति में सौरमंडल की तरह कोई चीज असंभव नहीं होती। बीती सदी के नब्बे के दशक में जब कांग्रेस ने द्रमुक पर राजीव गांधी की हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया था, तो कौन सोच सकता था कि 13 वर्ष बाद कांग्रेस-द्रमुक गठबंधन होगा। पीडीपी-भाजपा में राजनीतिक दुश्मनी जैसा कोई इतिहास भी नहीं रहा। हां, अगर पीडीपी-भाजपा का गठबंधन होता है, तो देश में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की नई शुरुआत की कल्पना की जा सकती है। पीडीपी की ओर से जीतकर आने वाले 28 विधायकों में एक भी हिंदू नहीं है, जबकि भाजपा के 25 विधायकों में एक मुस्लिम है।
हमें बीती सदी के साठ के दशक में हुई पंजाब की घटनाएं याद करनी चाहिए। पचास के दशक में राज्य पुनर्गठन आयोग ने पंजाबी भाषा के आधार पर पंजाबी सूबे की मांग ठुकरा दी। अगर राज्य पुनर्गठन आयोग भाषाई आधार पर पंजाबी सूबे की मांग मान लेता, तो पंजाबी भाषी पंजाब में 60 प्रतिशत सिख होते। दरअसल कांग्रेस नहीं चाहती थी कि कोई राज्य धर्म के आधार पर बन जाए। इसलिए राज्य पुनर्गठन आयोग का अजीब-ओ-गरीब तर्क था कि पंजाबी अलग भाषा ही नहीं है। इस घटना के बाद पंजाब के सिखों में स्वाभाविक ही रोष था। अकाली दल ने 1955 में जेल भरो आंदोलन शुरू किया, जिसमें करीब 12,000 लोग जेलों में गए। 1960 में दोबारा शुरू हुए आंदोलन में लगभग 26,000 लोग जेलों में रहे। इसलिए 1961 की जनगणना दो समुदायों के बीच टकराव का कारण बन गई थी। राज्य के कई हिंदी भाषी समाचार पत्रों ने हिंदुओं से अपील की थी कि सभी हिंदू अपनी मातृभाषा हिंदी लिखवाएं।
जनसंघ तब तक राज्य में सिर्फ हिंदुओं की पार्टी थी, जिसके विधायकों की संख्या तीन-चार से आगे कभी नहीं बढ़ी थी। आर्य समाज का पंजाब में काफी प्रभाव रहा है, जनगणना में आर्य समाज ने ही हिंदुओं को हिंदी लिखवाने पर जोर दिया। इसलिए जनसंघ भी उनकी पिछलग्गू हो गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर ने उस समय पंजाब का दौरा किया। उन्होंने देखा कि भाषा के कारण हिंदुओं और सिखों में तनाव बढ़ रहा है, इसलिए उन्होंने हिंदुओं से अपील की कि वे अपनी मातृभाषा पंजाबी लिखवाएं, क्योंकि वे सामान्य बोलचाल में व घर पर भी पंजाबी ही बोलते हैं। इस तरह के टकराव भरे माहौल के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सितंबर, 1966 में अकालियों की मांग स्वीकार करते हुए भाषा के आधार पर राज्य पुनर्गठन का ऐलान किया।
1967 के पंजाब विधानसभा चुनाव में हिंदुओं की प्रतिनिधि बनकर उभरे जनसंघ को बंटवारे वाले छोटे पंजाब में नौ सीटें मिलीं। हालांकि पंजाबी सूबे की लड़ाई जीत लेने के बावजूद 104 के सदन में अकाली दल सिर्फ 26 सीटें जीत पाया था। आज जिसे कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन को सूरज का पश्चिम से उगना बताया जा रहा है, तब 1967 में एक दूसरे का विरोध कर रहे जनसंघ और अकाली दल में गठबंधन हुआ था, जिसमें संघ की अहम भूमिका थी। तब से लेकर अब तक अकाली-जनसंघ (अब भाजपा) की सात गठबंधन सरकारें बन चुकी हैं। क्या पंजाब का यह प्रयोग कश्मीर में नहीं दोहराया जा सकता? कश्मीर में हिंदू-मुसलमान शदियों से शांति और भाई चारे के सह अस्तित्व के आधार पर रह रहे थे। भारत पाक बंटवारे के बाद धर्म के आधार पर जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा जताया, तब भी कश्मीर घाटी में हिंदू-मुस्लिम एकता एवं भाईचारा बरकरार रहा। नब्बे के दशक के दौरान कश्मीरी पंडितों को निष्कासित किए जाने तक भाईचारा बरकरार था। अगर अब भाजपा के 24 हिंदुओं और पीडीपी के 28 मुसलमानों की साझा गठबंधन सरकार बनती है, तो कश्मीर में शांति और एकता का नया पैगाम लेकर आ सकती है।
आपकी प्रतिक्रिया