नैनीताल हाईकोर्ट ने जब उत्तराखंड में राष्ट्रपति राज की अधिसूचना रद्द करते हुए विधानसभा और सरकार को बहाल कर दिया था तो सुब्रह्मणयम स्वामी ने कहा था कि अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी को इस्तीफा देना चाहिए. अब सुप्रीम कोर्ट भी उसी दिशा में आगे बढ रहा है तो अटार्नी जनरल की योग्यता पर सवाल खडा होता है. उत्तराखंड विधानसभा को केंद्रीय मंत्रीमंडल ने संवैधानिक ब्रेकडाउन का मुद्दा बना कर निलंबित और सरकार को बर्खास्त किया था. अटार्नी जनरल दोनो अदालतों में सरकार का यह पक्ष तर्कपूर्ण ढंग से नहीं रख पाए. वह सुप्रीमकोर्ट को भी यह समझाने में नाकाम रहे कि उत्तराखंड का मामला सदन में बहुमत का नहीं है. विधानसभा इस मुद्दे पर बर्खास्त नहीं की गई है. उलटे वह खुद दलील देने लगे कि सदन में हरीश रावत को बहुमत नहीं था और उसे कत्रिम तरीके से बनाया गया था. अटार्नी जनरल अपने इसी तर्क से मुकद्दमें को गलत दिशा में मौडते रहे और अब सुप्रीम कोर्ट भी सदन में बहुमत का परीक्षण करवा रही है और अटार्नी जनरल को उसे मंजूर करना पडा है.
हैरानी की बात तो यह है कि अटार्नी जनरल को केंद्र सरकार से सुप्रीमकोर्ट के समक्ष यह प्रस्ताव मंजूर करने की सहमति कैसे मिली. कैबिनेट के फैसले को किसी एक मंत्री ( संभवत विधि मंत्री ) ने कैसे बदल दिया. क्या सिर्फ राज्यसभा का सामना करने के डर से ऐसा हुआ. कैबिनेट ने 27 मार्च को बहुत सोच समझ और लंबे विचार विमर्श के बाद राष्ट्रपति राज लगाया था. केबिनेट के फैसले से पीछे हटने का फैसला भी कैबिनेट में होता तो अटार्नी जनरल की योग्यता सब के सामने आती. कैबिनेट में इन सभी कानूनी पहलुओं पर भी विचार हुआ था. अंतत: स्पीकर की ओर से बजट पर वोटिंग करवाने की मांग स्वीकार नहीं किए जाने और अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिए विधीयकों की खरीद फरोख्त के स्टिंग आप्रेशन को आधार बना कर बर्खास्तगी की गई. सारे तथ्य राष्ट्रपति के सामने रख कर उन की सहमति ली गई थी. लेकिन अटार्नी जनरल दोनों ही अदालतों में केबिनेट की राय जोरदार ढंग से पेश करने में असक्षम रहे. नतीजतन सुप्रीमकोर्ट ने भी राष्ट्रपति राज की वैधता का फैसला करने से पहले सदन के बहुमत को आधार बनाने का निर्णय ले लिया.
हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के रूख में इतना मात्र परिवर्तण आया कि सुप्रीमकोर्ट ने विधानसभा से परीक्षण करवाने से पहले केंद्र से दो घंटे के लिए राष्ट्रपति राज हटवाने की प्रक्रिया अपनाई है. वरना हाईकोर्ट ने तो खुद को राष्ट्रपति से ऊपर घोषित कर दिया था.हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश ने राष्ट्रपति के खिलाफ टिप्पणी की तो अटार्नी जनरल वंहा राष्ट्रपति का बचाव भी नहीं कर पाए. जबकि उन्हें हाईकोर्ट को बताना चाहिए था कि वह अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रही है. अटार्नी जनरल ने राष्ट्रपति का बचाव नहीं किया इसलिए हाईकोर्ट ने दो कदम और आगे जाते हुए राष्ट्रपति राज की अधिसूचना रद्र कर दी. जबकि हाईकोर्ट सिर्फ राष्ट्रपति राज को असंवैधानिक ठहराने का अधिकार था. अब लोग हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश के तबादले को इस घटना के साथ जोड कर देख रहे हैं. अगर उन का तबादला इसी आधार पर हुआ है, तो सुप्रीमकोर्ट वे सही दिशा में काम किया.
अटार्नी जनरल की कमजोर पैरवी के कारण संवैधानिक ब्रेकडाउन का मामला बहुमत के इर्द गिर्द झूल रहा है. उत्तराखंड के राष्ट्रपति राज का मामला बहुमत और बोम्मई केस से एक दम अलग है.इस केस के बहाने सुप्रीमकोर्ट को संवैधानिक ब्रेकडाउन की परिभाषा तय करना चाहिए. बहुमत के आधार पर किसी राज्य को कैसे असंवैधानिक तरीकें से सरकार चलाने की इजाजत दी जा सकती है. उत्तराखंड के मामले में अंतत: क्या होगा यह तो अभी नहीं कह सकते लेकिन राज्यपाल से लेकर अटार्नी जनरल और हाईकोर्ट के जज तक संवैधानिक मुद्दों पर फिसड्डी साबित हो रहे है. संवैधानिक ब्रेकडाउन को इन तीनों संवैधानिक जिम्मेदारों ने हवा में उडा दिया. अब केंद्रीय मंत्रीमंडल तय कर सकता है कि संविधान और संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा का कैसा ढांचा है इस सरकार के पास, जो सरकार अपने केबिनेट फैसले की ढंग से पैरवी भी नहीं करवा सकती. वह सरकार अगस्ता हैलीकाप्टर घोटाले के दोषियों को सजा कैसे दिलाएगी.
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