अमर उजाला, 07 June 2015
राजनीति को गंभीरता से देखने वालों की नजर कश्मीर पर है। मोदी सरकार का एक वर्ष पूरा हो जाने के बाद उनकी आर्थिक, विदेश और राजनीतिक उपलब्धियों की समीक्षा तो हो रही है, लेकिन कश्मीर नीति की समीक्षा बाकी है। या यों कह सकते हैं कि समीक्षा के लिए थोड़ा इंतजार और किया जाना चाहिए। मोदी सरकार का एक वर्ष पूरा होने पर हुए सर्वेक्षणों में लोगों ने इंतजार करने की बात कही है। यानी जनता निराश नहीं है। कश्मीर में तो सरकार बने हुए 100 दिन होने को हैं। नरेंद्र मोदी ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों के समय कहा था कि कश्मीर समस्या के हल का एक ही रास्ता है, और वह है वाजपेयी का रास्ता। तब कुछ लोगों को आश्चर्य हुआ था, क्योंकि मोदी को वाजपेयी के मुकाबले कम धैर्य वाला और कट्टरवादी नेता माना जाता है। कश्मीर पर बात करते समय हमें सिर्फ वाजपेयी की नीति ही ज्यादा स्पष्ट दिखाई देती है। यूपीए के 15 वर्ष के शासनकाल की कश्मीर नीति पूरी तरह दिग्भ्रमित रही। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो कश्मीर समस्या के साथ बलूचिस्तान को जोड़ दिया था। पाकिस्तान को भी आतंकवाद का पीड़ित बता दिया था, जबकि वाजपेयी सरकार के शासनकाल में हमारा प्रयास दुनिया को यह समझाने का था कि पाकिस्तान दक्षिण एशिया में आतंकवाद का जनक है।
मोदी सरकार की कश्मीर नीति की शुरुआत गत वर्ष अगस्त में भारत-पाक की सचिव स्तरीय वार्ता को रद्द करने से हुई थी। भाजपा का काडर इससे काफी खुश था, क्योंकि वह यूपीए सरकार की 10 वर्ष की पाकिस्तान के सामने झुकने की नीति के एकदम विपरीत था। यह मोदी के मिजाज से मेल खाने वाली नीति थी। हालांकि मोदी की इस नीति को वाजपेयी की नीति के विपरीत मानने वालों की भी कमी नहीं थी। जबकि मोदी ने लोकसभा चुनाव में वाजपेयी की कश्मीर नीति को ही अपनाने की बात की थी। शुरुआती कड़े तेवरों के बाद मोदी ने पीडीपी के साथ सरकार बनाकर वाजपेयी की कश्मीर नीति को ही आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है। हालांकि वक्त के साथ भाजपा काडर का मिजाज भी बदल चुका है और वह मोदी को मोदी के असली रूप में ही देखना चाहता है। उधर नरेंद्र मोदी के सामने दो लक्ष्य हैं, जो भाजपा काडर की तमन्ना भी है। पहला, भारत-पाक बंटवारे के समय पाक के कब्जे वाले कश्मीर और पंजाब से आकर जम्मू में बसे शरणार्थियों को नागरिकता और उनके मानवीय अधिकार दिलाना। संकेत है कि इस संबंध में कैबिनेट जल्द फैसला करेगी। दूसरा, घाटी में नई सुरक्षित हिंदू बस्तियां बनाकर कश्मीरी पंडितों को वापस लाकर बसाना। ये दोनों काम धैर्य के हैं।
इस बीच मुफ्ती सरकार की आए दिन कट्टरवादियों का खुश करने की नीति और आए दिन कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा फहराए जाने की घटनाओं से भाजपा काडर नाखुश है। पिछले दिनों अमित शाह ने कश्मीर के प्रभारी नेताओं को बुलाकर पूछा कि यह क्या हो रहा है, काडर को जवाब देते नहीं बन पा रहा है। भाजपा के रणनीतिकारों ने कहा कि अभी तो सौ दिन भी नहीं हुए, अप्राकृतिक गठबंधन के सामने समस्याएं आनी तो स्वाभाविक हैं। भाजपा काडर मानता है कि अलगाववादियों से जितनी सख्ती से निपटा जाना चाहिए, उतनी सख्ती से नहीं निपटा जा रहा। सैयद अली शाह गिलानी खुलेआम कह रहे हैं कि वह भारतीय नहीं है। घाटी में आए दिन पाकिस्तान समर्थक झंडे फहराए जाने लगे हैं। ऐसे में भाजपा काडर का निराश होना स्वाभाविक है।
पाकिस्तान इस अवसर का भरपूर लाभ उठाने की फिराक में है। जिस सैयद अली शाह गिलानी को परवेज मुशर्रफ ने किनारे कर दिया था, उन्हीं गिलानी को अब पाकिस्तान से नई ऑक्सीजन मिलनी शुरू हो गई है। पाकिस्तान का प्रयास गिलानी की रहनुमाई में हुर्रियत के तीनों खेमों को एकजुट करने का है। मीरवाइज उमर फारूक और शब्बीर शाह पर पाकिस्तान का भारी दबाव है कि उन्हें फिर से इकट्ठा होना चाहिए। भारतीय गुप्तचर एजेंसियों का मानना है कि पाकिस्तान तीनों की आर्थिक मदद करता है और तीनों का एक-दूसरे पर नजर रखने के लिए इस्तेमाल करता है। लेकिन आम भारतीयों के विपरीत पाकिस्तान के रणनीतिकार मानते हैं कि मोदी की कश्मीर नीति से निपटना आसान नहीं होगा। अगर मोदी की कश्मीर नीति कामयाब हो गई और घाटी में विकास एवं शांति स्थापित हो गई, तो कश्मीर हमेशा के लिए उनके हाथ से निकल जाएगा।
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