कहते हैं, दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंककर पीता है। कर्नाटक में लोकायुक्त की मार से सहमी भारतीय जनता पार्टी पर यह कहावत कितनी लागू होती है, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन जिस तेजी से भाजपा ने उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदला, उससे कर्नाटक का सबक सीखने की भनक तो लगी ही। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप सुर्खियों में नहीं आए थे। गाहे-बगाहे अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले जरूर आए। अदालतों ने तीखी टिप्पणियां भी की, सरकार के कुछ फैसले रद्द भी किए। विपक्ष भ्रष्टाचार के मामले उजागर करता, उससे पहले ही कर्नाटक के लोकायुक्त की रिपोर्ट आ गई। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को तो हटाना ही पड़ा, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को भी आनन-फानन में रुखसत कर दिया गया।
निशंक इतने घमंडी हो गए थे कि कुछ दिन पहले ही उन्होंने उत्तराखंड के एक संपादक से डींग हांकते हुए कहा था, ‘मुझे हाईकमान हटाकर तो देखे’। लेकिन उन्हें नहीं पता था कि जब उन्हें हटाने का फैसला किया जाएगा, तो पत्ता भी नहीं फटकेगा। जिस भुवन चंद्र खंडूड़ी के खिलाफ विधायकों ने बगावत की थी, उन्हीं खंडूड़ी को सिर माथे पर बिठाने के लिए विधायकों ने पलक-पांवड़े बिछा दिए। जनता और प्रदेश के प्रति खंडूड़ी की प्रतिबद्धता और उनकी ईमानदारी पर कोई शक नहीं कर सकता। राजस्व के एक रुपए का खर्च भी उन्हें ऐसे लगता है जैसे उनकी जेब से जा रहा हो। भाजपा ने जब नेतृत्व परिवर्तन का फैसला किया, तो छवि के लिहाज से खंडूड़ी से बेहतर विकल्प हो भी नहीं सकता था। वैसे भाजपा दस साल पहले उत्तराखंड में ही चुनावों से ठीक पहले नित्यानंद स्वामी को हटाकर भगत सिंह कोशियारी को मुख्यमंत्री बनाकर देख चुकी थी। चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री बदलने से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इसके बावजूद भाजपा को उत्तराखंड में सरकार की बिगड़ती छवि और पार्टी की गिरती साख को बचाने के लिए कुछ तो करना ही था।
खंडूड़ी को सत्ता संभाले दो महीने भी पूरे नहीं हुए कि उन्होंने भ्रष्टाचार पर नकेल डालने के दो बहुत ही अहम फैसले कर डाले। पहले से तय विधानसभा के 30-31 सितंबर के सत्र में सेवा कानून के अधिकार को मंजूरी दी तो अब 31 अक्तूबर और एक नवंबर के विशेष सत्र में ऐतिहासिक लोकायुक्त कानून को मंजूरी देने का फैसला किया। अल्पकाल में किए गए इन दो फैसलों को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि जहां एक का ताल्लुक आम जनता को रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने से है, तो दूसरे का ताल्लुक बड़े पैमाने पर होने वाले राजनीतिक भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने से है।
अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद विभिन्न राज्य सरकारों ने राइट-टू-सर्विस एक्ट लागू करने की पहल की है। मध्य प्रदेश और ओडिशा देश के पहले राज्य थे, जहां राइट टू-सर्विस एक्ट लागू किया गया था। कई जगह पर राइट-टू-सर्विस को तय समय सीमा में बांधकर बिना कोई कानून बनाए ही जल्दबाजी में लागू कर दिया गया है। लेकिन उत्तराखंड की नई सरकार ने इतने अल्पकाल में न सिर्फ राइट-टू-सर्विस लागू कर दिया, बल्कि कानून भी बना दिया। इस कानून के तहत अब वैसा ही आयोग बनाया जाएगा जैसा सूचना के अधिकार के तहत विभिन्न प्रदेशों में बनाया गया है या बनाया जा रहा है। हालांकि यह अलग बात है कि सूचना के अधिकार कानून के तहत बनने वाले आयोगों में एक खराबी अभी से दिखाई देने लग गई है। राज्य सरकारों ने भ्रष्टाचार पर नकेल डालने वाले इस कानून के तहत बनने वाले आयोगों की बागडोर उसी नौकरशाही के हाथ सौंप दी है, जिसके खिलाफ मिली शिकायतों की आयोगों को जांच करनी है। सोनिया गांधी के हाथों बने सूचना के अधिकार कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत आयोगों का अध्यक्ष सेवानिवृत्त मुख्य सचिव को बनाया जाए। लेकिन राज्य सरकार कांगे्रस की हो, भाजपा की हो या अन्य किसी दल की, देश में कोई ऐसा राज्य नहीं है, जहां सेवानिवृत्त मुख्य सचिव के अतिरिक्त किसी अन्य को आयोग का अध्यक्ष बनाया गया हो। यहां भी चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत चरितार्थ हो रही है। जिस उत्तराखंड का हम जिक्र कर रहे हैं, वहां के मुख्य सूचना आयुक्त पर ही प्लाटों के आबंटन की गंगा में डुबकी लगाने का मामला सुर्खियों में है। राजनेताओं और नौकरशाहों की सांठ-गांठ को तोड़ने की हिम्मत सूचना अधिकार कानून भी नहीं कर पा रहा है। उत्तराखंड में राइट-टू- सर्विस एक्ट के तहत आयोग बनना अभी बाकी है। लेकिन पास किए गए कानून में मुख्य सचिव स्तर के सेवानिवृत्त अधिकारी को अध्यक्ष बनाने का प्रावधान तो कर ही दिया गया है। नौकरशाही के हाथों बना यह कानून भुवन चंद्र खंडूड़ी की आंखों से भी ओझल हो गया। हालांकि लोकायुक्त का प्रारूप अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से काफी हद तक प्रभावित है। खंडूड़ी ने लोकायुक्त बनाने को अमलीजामा पहनाने से पहले अण्णा समूह को देहरादून आने का न्योता देकर उनके लोकपाल बिल की बारीकियों को समझा। यह बात तो अण्णा हजारे समूह भी मान चुका था कि देशभर के सारे सरकारी कर्मचारी और विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री एक ही कानून के दायरे में नहीं लाए जा सकते। इस मामले में भाजपा और कांग्रेस में आम सहमति बन चुकी है कि लोकपाल के दायरे में केंद्र सरकार के तहत आने वाले सांसद, मंत्री और नौकरशाह ही रहें। जबकि राज्यों में लोकायुक्त बनाए जाने चाहिए। हालांकि हम जानते हैं कि यह बात राज्य सरकारों पर निर्भर रहती है। केंद्र का कानून बन जाने के बावजूद बहुत सारी सरकारें उसे लागू नहीं करतीं। जैसे मानवाधिकार कानून के तहत केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी आयोग बनाने का प्रावधान रखा गया था। लेकिन पांच राज्यों में तो लागू होने के 18 साल बाद भी आयोग नहीं बने। चार-पांच राज्य ऐसे हैं जिनमें सिर्फ एक सदस्यीय आयोग बनाया गया है जबकि कानून में तीन सदस्यीय आयोग का प्रावधान है।
भुवन चंद्र खंडूड़ी ने अपने राज्य में अण्णा हजारे की परिकल्पना वाला सशक्त लोकायुक्त कानून बनाकर पूरे देश और केंद्र सरकार के सामने मिसाल कायम कर दी है। केंद्र सरकार को अपना कानून बनाते समय उत्तराखंड के कानून को आदर्श के रूप में सामने रखना होगा। केंद्र के लिए लुंज पुंज लोकायुक्त बिल बनाना अब आसान नहीं होगा। अब लोकपाल के प्रारूप को देख रही संसद की स्थायी समिति और केंद्र सरकार के सामने उत्तराखंड के लोकायुक्त का प्रारूप आदर्श के रूप में सामने है जो मोटे तौर पर अण्णा समूह की सहमति से बनाया गया है। इससे यह भी जाहिर है कि राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति हो, तो नौकरशाही बाधा नहीं बन सकती।
उत्तराखंड में बनने वाले लोकायुक्त में पांच से सात सदस्य बनाने का प्रावधान रखा गया है। सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सर्च कमेटी बनेगी। सर्च कमेटी हर सदस्य के लिए तीन-तीन उम्मीदवारों का पैनल तैयार करेगी जिससे सात सदस्यीय चयन समिति के सुपुर्द किया जाएगा। चयन समिति सीवीसी का चुनाव करने वाली तीन सदस्यीय समिति से भी ज्यादा प्रभावशाली बनाई गई है। लोकायुक्तों का कार्यकाल मानवाधिकार आयोग के सदस्य की तरह ही पांच साल और 70 साल की उम्र तक वाला ही होगा। लोकायुक्त को पूर्ण स्वायत्तता होगी, बजट पर भी राज्य सरकार की कोई निगरानी नहीं होगी। लोकायुक्त के बजट की निगरानी महालेखा निरीक्षक यानी कैग करेगा। लोकायुक्त सदस्यों या कर्मचारियों के खिलाफ भी लोकायुक्त से शिकायत की जा सकेगी। लोकायुक्त को हटाने का प्रावधान वैसा ही रखा गया है जैसा सूचना आयोग के सदस्यों को हटाने का है। सुप्रीम कोर्ट की सिफारिश पर राज्यपाल ही लोकायुक्त को हटा सकेगा। लोकायुक्त के सदस्यों में से आधे कानूनी पृष्ठभूमि के होंगे जबकि आधे लोकसेवा, गुप्तचर सेवा, भ्रष्टाचार विरोधी सरकारी संगठनों, वित्त प्रबंधन और पत्रकारिता से जुड़े हुए होंगे। लोकायुक्त के तीन प्रभाग बनाए जाएंगे। एक अन्वेषण, दूसरा अभियोजन से और तीसरा न्यायिक।
केंद्र सरकार भले ही सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाने पर आनाकानी कर रही हो लेकिन उत्तराखंड में बनाए गए लोकायुक्त कानून में राज्य की सतर्कता इकाई को लोकायुक्त के अधीन किया जाएगा। लोकायुक्त की खासियत यह रखी गई है कि वह मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्रियों, विधायकों, सभी तरह के सरकारी कर्मचारियों, सहकारी निकायों, नगर पालिकाओं, पंचायतों, विश्वविद्यालयों और राज्य से सहायता प्राप्त किसी भी संगठन की जांच कर सकेगा। अगर इसी तरह का लोकपाल केंद्र में लागू कर दिया जाए, तो भ्रष्टाचारी न सिर्फ डरेंगे बल्कि उनकी रातों की नींद भी हराम हो जाएगी।
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