आलोक जी के साथ बहुत पुराना रिश्ता था, भले ही मैं चंडीगढ़ जनसत्ता में था, वह दिल्ली में थे. पर हमारी मुलाकात 1989 में मेरे जनसत्ता ज्वाइन करने से पहले की थी. मैने बाद में जनसत्ता ज्वाइन किया, पर छोडा आलोक तोमर से पहले. हम दोनो जब जनसत्ता छोड चुके थे तो अक्सर मुलाकातें हुआ करतीं थी. मैने अपने जीवन में आलोक तोमर जैसा धुरंधर लिखाड नही देखा. लेखनी पर जबरदस्त पकड थी. वैसे तो प्रभाष जोशी जी ने एक बखिया उधेडने वाले छांटे थे… इसीलिए स्लोगन भी था… सबकी खबर दे, सबकी खबर ले… पर किसी की बखिया उधेडनी हो, तो आलोक तोमर की शब्दावली उधार लेनी पडती थी. आलोक तोमर जैसा खबरची और शब्दों का खिलाडी न पहले कभी हुआ, न आगे कभी होगा. आलोक ने अपने जीवन में कई प्रयोग किए. बहुत कम लोग जानते होंगें… अमिताभ बच्चन के कौन बनेगा करोडपति प्रथम के सारे सवाल आलोक तोमर ने तैयार किए थे.
मैने जनवरी 1997 में जब नवज्योति में अपना डेली कालम शुरू किया, तो वह हिंदी पत्रकारिता में नया प्रयोग था. आलोक तोमर उन लोगों में थे जिंहोंने मेरे प्रयोग की तारीफ की. तब तक जनसत्ता के तेवरो की धार कुंद होना शुरू हो चुकी थी… इसलिए राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश तक मेरे कालम को भरपूर पाठक मिले. मेरे कालम में मैने जब खडी बोली का इस्तेमाल किया तो बहुतेरे लोगों ने मेरी आलोचना की पर प्रभाश जोषी और आलोक तोमर ने मेरी तारीफ की… दोनो ही अब इस दुनिया में नही रहे… मेरे लिए व्यक्तिगत तौर की ऐसी क्षति हुई है, जिसकी भरपाई नही हो सकती… सालभर पहले जब पता चला था कि कैंसर ने आ घेरा है, कैंसर की उत्पत्ति का भी पता नही चल रहा था. आलोक तभी से लीज की जिंदगी जी रहे थे… हाल ही में नवभारत टाइम्स ने उनसे संडे के संडे स्पेशल स्टोरी लिखवाना शुरू किया था, तो लंबे समय बाद कुछ मजेदार पढ़ने को मिलना शुरू हुआ था… पर हिंदी पत्रकारिता को बेहतरीन लेखक इतने दिन ही नसीब था… जनसत्ता परिवार की पहली पीढ़ी को आलोक की बेवक्त मौत से गहरा धक्का लगा है. भगवान सुप्रिया को यह दुख सहने की शक्ति दे.
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