ईरानियों का वर्चस्व
‘ताज महल बनाने के लिए 20 हजार लोग 22 साल तक दिनरात जुटे रहे’-अपने इस वाक्य के लिए मशहूर हुआ फ्रांसीसी जवाहरात व्यापारी टेवरनिअर बताता है: ‘यहां तक कि सरदार ईरानी भगोड़े हैं, जिनकी जन्मभूमि हिन्दुस्तान नहीं है और जो दिल के बहुत छोटे हैं। ऐसे तंगदिल लोगों को उन लोगों का साथ मिल गया, जिन्होंने इस धरती को अपना सर्वस्व दे डाला।’ वह आगे लिखता है: ‘मैंने कहीं उल्लेख किया है कि मुगलों की रियाया में शामिल देशी मुसलमानों में से महज कुछ मुसलमानों को ही बड़े ओहदे हासिल थे, और यही वजह थी कि अनेक ईरानी लोग किस्मत आजमाने हिन्दुस्तान चले आए।
चालाक होने के नाते वे मरने-मारने के धन्धे में मौके हथियाने में कामयाब हो गए हैं। इसी के चलते, न केवल मुगल साम्राज्य, बल्कि गोलकुण्डा और बीजापुर सल्तनतों में भी उन्हें अहम सरकारी ओहदे हासिल हो गए हैं।’ औरंगजेब के दरबार में 1658 से 1665 तक रहा फ्रांसीसी डॉक्टर बॢनअर बताता है: ‘ज्यादातर दरबारी ईरानी हैं। खुद मुगल सम्राट भी तो विदेशी ही हैं। मुगल दरबार का वास्तविक स्वरूप उसके शुरूआती स्वरूप जैसा नहीं रह गया है। अब तो वह उजबेकों, ईरानियों, अरबों और तुर्कों या आम तौर पर मुगल बन बैठे उनके वंशजों की खिचड़ी की मानिंद है। विदेशियों की तीसरी या चौथी पीढ़ी के बच्चों का रंग गेहुंआ है, और वे इस मुल्क के देशी मुसलमानों जैसे आलसी हो गए हैं, उन्हें नव आगंतुक विदेशियों की तुलना में कहीं कम सम्मान मिलता है। उन्हें हुकूमत के मामलों में कभी-कभार ही शामिल किया जाता है। उन्हें अगर पैदल या घुड़सवार सेना में मौका मिल जाता है तो वे खुद को बहुत खुशकिस्मत मानते हैं।’ जब उनका यह हाल था, तो समझा जा सकता है कि मूल देशी मुसलमानों की हालत क्या रही होगी। अगर किसी उमरा की उमरावी लंबी चल जाती थी तो वह अपनी औलादों को ज्यादा से ज्यादा शाही सुविधाएं दिलवा देता था। अगर वे सलीकेदार हो जाते थे तथा उनका रंग साफ होता था और शक्लोसूरत से अच्छे होते थे, तो अंतत: वे मुगल बन जाते थे। इन निष्पत्तियों की पुष्टि कई ऐतिहासिक दस्तावेज करते हैं।
मुगलों और पठानों में कट्टर दुश्मनी
पागड़ी ने 1974 में पानीपत के मैदान का दौरा किया था। वह लिखते हैं: ‘मुगलों और पठानों में कट्टर दुश्मनी थी। औरंगजेब मराठों का दमन करने के लिए दक्खन गया, जहां वह 1682 से लेकर 1707 में अपनी मौत होने तक रहा। मराठे अंतत: विजयी रहे। लेकिन दक्खन में औरंगजेब के लंबे प्रवास के चलते पठानों को हजारों की संख्या में गंगा और यमुना के बीच के पश्चिमी इलाके यानी दोआब में फैलने पसरने का मौका मिल गया। इस दौरान बरेली के हाफिज रहमत खान, पीलीभीत के इंदे खान, अली मुहम्मद खान, फर्रुखाबाद के मुहम्मद बंगश, और इन सबमें सबसे ज्यादा खतरनाक नजीबाबाद के नजीब खान जैसे कई इलाकाई सरदारों का उदय हुआ। नजीब खान ने ही काबुल के अहमदशाह अब्दाली को दिल्ली पर चढ़ाई करने का न्योता दिया था। इसके चलते 1761 में पानीपत का युद्ध हुआ। मराठों ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला का साथ दिया। मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने लिखा: ‘इन पठानों ने हिन्दुओं से कहीं ज्यादा हिन्दुस्तानी मुसलमानों को हेय समझा।’ मनूसी लिखता है: ‘पठान सिन्धु नदी के पार यानी पश्चिम या उत्तर में रहते हैं। मुगल हमेशा पठानों से चौकस रहते हैं, क्योंकि पठानों को इस बात की तकलीफ रहती है कि वे कभी दिल्ली पर हुकूमत किया करते थे। लिहाजा मुगल और पठान एक साथ नहीं रह सकते और उनके बीच रोटी-बेटी के रिश्ते तो होते ही नहीं हैं। हालांकि पठानों में भी खेमेबाजी है।’ निज़ाम के दरबार में पेशवा के दूत गोविंदराव काले ने 1793 में नाना फडऩवीस को लिखा: ‘अटक (रावलपिण्डी के निकट) से लेकर बंगाल की खाड़ी और हिन्द महासागर तक की जमीन हिन्दुओं की है, न कि तुर्कों की।’ इस तरह मराठे तुर्कों के खिलाफ लड़ रहे थे, जो कि विदेशी हुक्मरान थे, न कि भारतीय मुसलमानों के खिलाफ।
अंबेडकर के भ्रम
डॉ. भीमराव अंबेडकर 1946 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में दो उदाहरण देते हैं। पहला उदाहरण-ख्वाजा हसन निज़ामी ने 1928 में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों पर जारी एक घोषणापत्र में ऐलान किया कि मुसलमान हिन्दुओं से अलग हैं। वे हिन्दुओं से नहीं मिल सकते। मुसलमानों ने कई जंगों में खून बहाने के बाद हिन्दुस्तान पर फतह हासिल की थी और अंगरेजों को हिन्दुस्तान की हुकूमत मुसलमानों से मिली थी। मुसलमान एक अलहदा कौम हैं और वे अकेले ही हिन्दुस्तान के मालिक हैं। वे अपनी अलग पहचान कभी भी खत्म नहीं करेंगे। उन्होंने हिन्दुस्तान पर सैकड़ों साल राज किया है। इस लिए मुल्क पर उनका निॢववाद और नैसॢगक हक है। दुनिया में हिन्दू एक छोटा समुदाय हैं। वे गान्धी में आस्था रखते हैं और गाय को पूजते हैं। हिन्दू स्व-शासन में यकीन नहीं रखते। वे आपस में ही लड़ते झगड़ते रहे हैं। वे किस क्षमता के बूते हुकूमत कर सकते हैं? मुसलमानों ने हुकूमत की थी, और मुसलमान ही हुकूमत करेंगे?...(टाइम्स ऑफ इंडिया 14 मार्च, 1928)
दूसरा उदाहरण-सन् 1926 में एक विवाद खड़ा हुआ कि 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में वास्तविक जीत किसकी हुई थी? मुसलमानों का सच यह था कि युद्ध में उनकी भारी जीत हुई थी। एक तरफ अहमद शाह अब्दाली और उसके एक लाख सैनिक थे तथा दूसरी तरफ मराठों के 4 से 6 लाख सैनिक थे। इसके जवाब में हिन्दुओं ने कहा कि भले ही वक्ती तौर पर वे पराजित हुए थे, लेकिन अंतिम जीत उनकी ही हुई थी, क्योंकि उस जंग ने भविष्य के तमाम मुस्लिम हमलों को रोक दिया। मुसलमान हिन्दुओं के हाथों हार मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने दावा किया कि वे हिन्दुओं पर हमेशा भारी साबित होंगे। हिन्दुओं पर मुसलमानों की पैदाइशी श्रेष्ठता साबित करने के लिए नजीबाबाद के मौलाना अकबर शाह खान ने पूरी संजीदगी के साथ पेशकश की कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जंग होनी चाहिए-परीक्षणकारी स्थितियों में पानीपत की चौथी जंग उसी जंग के मैदान में। मौलाना ने अपनी धमकी पर अमल करके यह कहते हुए पंडित मदन मोहन मालवीय को चुनौती दी: ‘मालवीय जी! यदि आप पानीपत की जंग के नतीजों को लेकर झूठे दावे जारी रखते हैं तो मैं इसके लिए एक आसान और शानदार तरीका बता सकता हंू। आप अपने सुविख्यात असर और रसूख का इस्तेमाल करते हुए ब्रिटिश सरकार को इस बात के लिए राजी करें कि वह पानीपत के चौथे युद्ध की इजाजत दे, जिसमें सरकार के दखल की कोई गुंजाइश न हो। मैं हिन्दुओं और मुसलमानों के जुझारूपन और हौसले के तुलनात्मक परीक्षण को तैयार हंू। भारत में सात करोड़ मुसलमान हैं। मैं तयशुदा तारीख पर 700 मुसलमान लेकर पानीपत के मैदान में पहुंच जाऊंगा। वे 700 मुसलमान भारत के सात करोड़ मुसलमानों की नुमाइंदगी कर रहे होंगे। और, चूंकि देश में हिन्दुओं की संख्या 22 करोड़ है, लिहाजा आप 2200 हिन्दुओं को मैदान में ला सकते हैं। वाजिब यह होगा कि युद्ध में लाठियों, मशीनगनों और बमों का इस्तेमाल न करके उनकी जगह तलवारों, भालों, तीर-कमानों और छुरों का इस्तेमाल किया जाए। अगर आप हिन्दू सेना के सर्वोच्च सेनापति का पद स्वीकार नहीं कर सकते तो यह पद सदाशिवराव या विश्वासराव के वंशजों में से किसी एक को सौंप सकते हैं, ताकि उन्हें 1761 के युद्ध में हारे अपने पुरखों की हार का बदला लेने का एक मौका मिल सके। लेकिन आप युद्ध देखने जरूर आएं, ताकि उस युद्ध के परिणामों को देखकर आप अपना नजरिया बदल सकें। मुझे भरोसा है कि उस युद्ध के नतीजों से मुल्क में मौजूदा वैमनस्य और झगड़ों का अन्त जरूर हो जाएगा। निष्कर्षत: मैं यह गुजारिश करूंगा कि मेरे उन 700 आदमियों में, जिन्हें मैं लाऊंगा, एक भी अफगानी पठान नहीं होगा, जिनसे आप बेइंतहा खौफ खाते हैं। इस लिए मैं केवल शरियत के सख्त पाबन्द अच्छे परिवारों के भारतीय मुसलमानों का लेकर ही आऊंगा।’...(टाइम्स ऑफ इंडिया, 20 जून 1926)
खुली पोल
अंबेडकर हिन्दू-विरोधी फोबिया से ग्रस्त और मुसलमानों की डींगों से बुरी तरह प्रभावित थे। उनके लिए इससे ज्यादा और क्या दयनीय होगा कि उनकी खुद की जाति महार, जो पहले अछूत मानी जाती थी, एक मशहूर लड़ाका जाति है। यहां तक कि भारतीय सेना में तो महार रेजिमेंट तक है। केवल 2200 महार, जो मराठों की श्रेणी में ही आते हैं, आराम से मुसलमानों का गुरूर तोड़ सकते थे। लेकिन अंबेडकर ने ऐसा नहीं किया। बहु प्रचारित 1929 के मुस्लिम दंगे ऐसा ही एक और उदाहरण हैं। दंगों से पहले मुसलमानों ने डींग हांकी थी कि 29 हिन्दुओं पर एक अकेला मुसलमान ही भारी है, और वह भी एक आम भारतीय मुसलमान। एक पठान तो 100 हिन्दुओं के छक्के छुड़ा सकता है। और फिर हुआ क्या? दंगे हुए तो वे पठान ही थे, जो जान बचाते भाग रहे थे और दुहाई दे रहे थे कि दंगे फौरन थमें।
पानीपत की तीसरी लड़ाई का सच
जहां तक पानीपत के युद्ध का संबंध है, हरेक को यह तथ्य याद रहे कि युद्ध के केवल चार दिन बाद ही अहमद शाह अब्दाली ने पेशवा बालाजी बाजीराव को एक पत्र भेजा था, जिसमें मेल-मिलाप की बात कही गई थी। एक विजेता ऐसा क्यों लिखेगा? जवाब बहुत आसान है। उसे यह अच्छी तरह मालूम था कि मराठे बदला जरूर लेंगे और वे अपनी हार का मुंह तोड़ जवाब देने में पूर्णत: सक्षम हैं। लड़ाई के कुछ महीनों बाद ही बालाजी बाजीराव का निधन हो गया और जब उनके 16 वर्षीय बेटे माधवराव को पेशवाई सौंपी गई तो उसी अहमद शाह अब्दाली ने उनके पास सम्मानपत्र भेजा। उस पत्र के साथ बहुत सी बेशकीमती सौगातें भी भेजी गईं। अंबेडकर यह इतिहास बहुत आसानी से भूल गए। संभव है कि उन्होंने केवल अंगरेजों द्वारा लिखित इतिहास ही पढ़ा होगा। लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि पानीपत के युद्ध के बाद खुद अब्दाली ने मराठों की बहादुरी की प्रशंसा की थी और स्वीकार किया था कि यह युद्ध अभूतपूर्व था।
जरा देखिए तो मगरूरी!
सर सैयद अहमद, शायर हुसेन हाली और पत्रकार वहीवुद्दीन सलीम के लेखन में मगरूरी साफ-साफ देखी जा सकती है: हम हिन्दुस्तान आए और हमने इस मुल्क पर हुकूमत की। वहीउद्दीन सलीम अपनी एक कविता में कहते हैं: गरचे हममें मिलती-जुलती तेरी कौमियत न थी, तूने लेकिन अपनी आंखों पर लिया हमको बिठा, अपनी आंखों पर बिठाकर तूने इज्जत दी हमें। कवि अल्ताफ हुसेन अली का परिवार सैकड़ों साल भारत में रहा। लेकिन वह अभी भी उसी सुर को अलापे जा रहे हैं। सर सैयद अहमद पर भी यही बात लागू होती है। कुछेक मामलों में वे सही हो सकते हैं। लेकिन ज्यादातर मुसलमान धर्मांतरित हिन्दुओं की औलादें हैं। ऐसे अहमन्यताभरे विचार सभी मुसलमानों के क्यों और कैसे हो सकते हैं? सच तो यह है कि भारतीय मुसलमानों का उन विदेशी मुसलमानों से कुछ लेना-देना नहीं है, जो या तो खुद हमलावर थे, या जिन्होंने विदेशी मुसलमान शासकों के नुमाइंदे के तौर पर भारतीय क्षेत्रों पर हुकूमत की। उनमें केवल एक ही बात साझी है-‘इस्लाम’।
पागड़ी अपना खुद का अनुभव बताते हैं कि वह 1933 में निज़ाम की हुकूमत के दौरान भू-राजस्व सेवाओं में शामिल होने के लिए इम्तहान में बैठे थे। उनका साबका अबू तुरब नामक एक मुसलमान से पड़ा। पागड़ी की उत्तर पुस्तिका की नकल करके वह पास हो गया। कुछ साल बाद उन दोनों की कहीं फिर मुलाकात हो गई। अबू तुरब का तबादला मराठीभाषी क्षेत्र मराठवाड़ा में हो गया था। पागड़ी ने उससे कहा: ‘आप अपने इलाके के मसलों को बेहतर ढंग से समझने और रोजमर्रा की जिन्दगी को सहज बनाने के लिए थोड़ी मराठी सीख लें, ठीक वैसे ही जैसे कि मैंने उर्दू और फारसी सीख ली है।’ उसका जवाब था: ‘हम मुसलमानों को तुम्हारी जुबान सीखने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हीं लोगों को हमारी भाषा सीखने की ज़रूरत है।’ पागड़ी ने 1963 में लिखा: ‘अबू तरब की बातें इतनी ज्यादा मगरूरी भरी थीं कि मैं 30 साल बाद भी उन्हें भूल नहीं सका हँू। यह मुझे बेनहूर नामक फिल्म की याद दिला जाती है। बेनहूर यहूदी था। उसके बचपन के एक दोस्त का नाम मसाला था जोकि रोमन था। उसे फलस्तीन का गवर्नर बनाकर भेज दिया गया। मसाला का स्वागत करते हुए बेनहूर ने कहा: बहुत खुशी की बात है कि तुम गवर्नर बन गए हो। मैं तुम्हारा स्वागत इसलिए और ज्यादा करता हँू कि तुम यहूदियों को ज्यादा करीब से जानते हो। लेकिन मसाला का जवाब था: हम रोमनों के लिए यहूदियों को करीब से जानने की क्या ज़रूरत है? यह तो उनके लिए ज़रूरी है कि वे रोमनों को जानें और समझें। अबू तरब और मुसलमानों के दिलोदिमाग में यही मगरूरी गहरे तक बैठी हुई है।’
ईसाइयों का मुगालता
मजे की बात तो यह है कि भारतीय ईसाई भी इस मुगालते को पाले हुए हैं कि उन्होंने ब्रिटिश राज के दौरान डेढ़ सौ सालों तक भारत पर हुकूमत की, या कि उन्होंने गोवा पर चार शताब्दियों तक शासन किया।
गलती सुधार रहे
इस परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान की हुकूमत के खिलाफ 1971 में बांग्लादेशियों के संघर्ष को देखे जाने की जरूरत है। पाकिस्तान में उर्दू और पंजाबियों के वर्चस्व के खिलाफ अपनी पहचान और मातृभाषा की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए सिंधियों के संघर्ष को भी इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है। सिंध के मुसलमानों ने अब हिन्दू राजा दाहिर को अपना पूर्वज मानना और मुहम्मद बिन कासिम को एक हमलावर के रूप में मानकर उससे घृणा करनी शुरू कर दी है।
अंगरेजों का भ्रमजाल
अंगरेजों ने हिन्दुओं को भरमाने के लिए यह दुष्प्रचार बड़े पैमाने पर किया कि अगर वे भारत छोडक़र गए तो मुसलमान अतीत की भांति उनपर हुकूमत करना फिर शुरू कर देंगे। उन्होंने मुसलमानों को यह कहकर बहकाया कि हिन्दू अतीत के मुसलमानी शासन का बदला तुमसे चुकाएंगे। इस तरह उन्होंने एक तस्वीर साफ बना दी-मुसलमान यानी बहादुर और हिन्दू यानी डरपोक तथा व्यापारी हिन्दू जिन्हें सिर्फ पैसे बनाने से मतलब होता है और जिनकी कोई इज्जत नहीं। अंगरेजों द्वारा लिखे गए इतिहासों, उनकी जीवनियों, कहानियों की किताबों और उपन्यासों में इसे जगह-जगह देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए ‘मदर इंडिया’ और ‘वरडिक्ट ऑफ इंडिया’ पढक़र देखिए।
बंद हो भ्रम की अंधी गली
भ्रम की इस अंधी गली को खत्म होना चाहिए। मुसलमानों को खुद को भारतीय समाज का अविभाज्य अंग समझना चाहिए। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन की दीवार ध्वस्त कर दी जानी चाहिए। फासले खत्म करने और दोनों को एक कतार में लाने का यह काम मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं। जो हिन्दुओं का इतिहास है, ठीक वही इतिहास भारत के मुसलमानों का भी है। यह सच हर समय ध्यान में रखा जाना चाहिए। इससे मुसलमानों में खुद को अलग समझने की भावना कम होगी। खेद है कि भारतीय सियासतदांओं की दिलचस्पी तो केवल मुसलमानों को नित नई रियायतों की रेबडिय़ां बांटने में है। यह बेहद जरूरी है कि भारतीय मुसलमानों को सही ढंग से शिक्षा दी जाए और ऐतिहासिक तथ्यों से उन्हें अवगत कराया जाए। जरूरत इस बात की भी है कि वे महाराणा प्रताप, शिवाजी और विजयनगर साम्राज्य के राजाओं पर गर्व करना सीखें। (समाप्त)
- एलएन शीतल
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