चिदंबरम को आंतरिक सुरक्षा का नया ढांचा तैयार करना पड़ रहा है जिसमें आंतरिक सुरक्षा सलाहकार की भूमिका विदेशी मामलों तक सीमित कर दी जाएगी।
एमके नारायणन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पद से हटाए गए। या उन्होंने खुद हटाने की गुजारिश की थी। इस रहस्य को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के सिवा कोई नहीं जानता। लेकिन यह सच है कि पी चिदंबरम के गृहमंत्री बनने के बाद वह असहज थे। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार के नाते उनका ओहदा राज्यमंत्री का था। राज्यपाल बनकर वह मुख्यमंत्री या केबिनेट मंत्री से भी ऊपर हो गए। नारायणन की तरक्की हुई है। इसलिए राजनीतिक, कूटनीतिक और नौकरशाही में अफवाहें थम नहीं रही।
मुंबई पर आतंकवादी हमला राष्ट्रीय सुरक्षा बंदोबस्त में सबसे बड़ी खामी थी। एमके नारायणन सीधे तौर पर जिम्मेदार थे। गृहमंत्री शिवराज पाटिल से तो इस्तीफा मांग लिया गया था। लेकिन एमके नारायणन ने चारों तरह से हो रही छिछालेदर के बाद इस्तीफा दिया था। इसके बावजूद मनमोहन सिंह ने उनका इस्तीफा मंजूर नहीं किया। क्यों? मनमोहन सिंह ने इस्तीफा मंजूर नहीं किया। उससे भी अहम सवाल है कि नारायणन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के ओहदे तक पहुंचे कैसे। आईएफएस तो दूर की बात, वह आईएएस भी नहीं थे, वह डायरेक्टर आईबी के पद से रिटायर हुए एक आईपीएस अफसर थे। उनका अनुभव सिर्फ इतना था कि वीपी सिंह के प्रधानमंत्री काल में वह राष्ट्रीय सुरक्षा समन्वयक के तौर पर कुछ देर प्रधानमंत्री कार्यालय में थे। नारायणन से पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार रहे बृजेश मिश्र और जेएन दीक्षित दोनों आईएफएस थे। आतंकवाद का दायरा अब राष्ट्रीय नहीं। अलबत्ता अंतरराष्ट्रीय है। आतंकवाद की हर वारदात के तार विदेशों से जुड़े होते हैं। आतंकवाद की वारदात कोई सामान्य अपराध की घटना नहीं। आतंकवाद की गुत्थियां सुलझाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण और व्यापक समझ चाहिए। दूसरे देशों से कूटनीतिक संबंध बनाना। आतंकवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहयोग का दायरा बढ़ाना। यह सब आईपीएस अफसर की सोच से बाहर का मामला होता है। इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने सोच समझकर रिटायर्ड आईएफएस बृजेश मिश्र को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार नियुक्त किया था। बृजेश मिश्र एनडीए सरकार बनने से काफी पहले भाजपा में शामिल हो गए थे। मध्य प्रदेश के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री डीपी मिश्र के बेटे बृजेश मिश्र की राजनीतिक पृष्ठभूमि भी उन्हें इस पद के करीब ले गई। कांग्रेस को सत्ता में आता देख पूर्व विदेश सचिव जेएन दीक्षित 2003 में ही कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार के दावेदार हो गए थे। उनका कार्यकाल बहुत छोटा था और आतंकवाद की कोई बड़ी घटना भी नहीं हुई। पद पर ही उनका देहांत हो गया। एमके नारायणन की नियुक्ति से कूटनीतिक हलकों में अचंभा हुआ था। वह सोनिया गांधी से सीधे केरल संपर्क के माध्यम से इस पद पर पहुंच गए थे। वह नियुक्ति पूरी तरह राजनीतिक थी और अंतत: गलत साबित हुई।
अब मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी से सलाह लिए बिना पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया है। मेनन भारत के दोनों महत्वपूर्ण पड़ोसी देशों पाकिस्तान और चीन में उच्चायुक्त और राजदूत रह चुके हैं। इन्हीं दोनों देशों से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा है। अमेरिका से परमाणु समझौता करवाने में वही मनमोहन सिंह और बिल क्लिंटन में कड़ी का काम कर रहे थे। नारायणन गलत चयन था तो मेनन बेहतरीन चयन है। लेकिन जब गृहमंत्री पी चिदंबरम एनसीटीसी की नई अवधारणा के माध्यम से आंतरिक सुरक्षा का सारा जिम्मा अपने अधीन ले रहे हैं, तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भूमिका सीमित हो जाएगी। बृजेश मिश्र के समय राष्ट्रीय सुरक्षा का एक ढांचा तैयार किया गया था, जो सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के अधीन आता था। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के नाते बृजेश मिश्र हर रोज प्रधानमंत्री को ताजा स्थिति पर रिपोर्ट करते थे। सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार नहीं, अलबत्ता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार बोर्ड का गठन भी किया गया। सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी और सुरक्षा सलाहाकार बोर्ड को मिलाकर राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का गठन हुआ। हालांकि सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी ही लगातार सुरक्षा समीक्षा करने वाली संस्था है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड की तो पिछले ग्यारह सालों में यदा-कदा ही मीटिंग हुई होगी। बृजेश मिश्र जब तक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार रहे वह हर रोज इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक और रॉ प्रमुख को साथ लेकर प्रधानमंत्री से मुलाकात करते थे। नतीजा यह होता था कि ताजा जानकारियों का अदान-प्रदान हो जाता था। प्रधानमंत्री को सीधे जमीनी जानकारी मिलती थी। नारायणन के कार्यकाल में खुफिया तंत्र और राष्ट्रीय सुरक्षा का सारा ढांचा तहस-नहस हो गया। इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि मुंबई पर आतंकवादी हमले के समय खुफिया विभाग को कोई खबर नहीं थी। जबकि इस गणतंत्र दिवस पर देश पर हवाई हमले की खुफिया खबरें, और हवाई हमले के लिए यूरोप से खरीदे गए 50 पैरा ग्लाइडर की खुफिया रिपोर्टे पूरी तरह बोगस साबित हुई हैं।
जब से एमके नारायणन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार बने, उन्होंने खुफिया प्रमुखों की प्रधानमंत्री से रोजाना मीटिंगों का सिलसिला ही बंद कर दिया। वह हर रोज इंटेलिजेंस निदेशक से इनपुट तो लेते थे, लेकिन उनकी प्रधानमंत्री से मुलाकात नहीं करवाते थे। उन्होंने इंटेलिजेंस डायरेक्टर को प्रधानमंत्री से कम ही मिलने दिया। रॉ प्रमुख के साथ तो खुद भी रोजाना की बजाए साप्ताहिक मुलाकातें होने लगी थी। जबकि आतंकवाद से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय सूचनाएं आज के युग में ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। बृजेश मिश्र के समय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार परिषद सचिवालय में दो काम होते थे। पहला गुप्तचर सूचनाओं की जानकारी हासिल करना और आतंकवाद से निपटने के लिए दीर्घकालीन रणनीति बनाकर उसे लागू करने की योजना तैयार करना। लेकिन एमके नारायणन ने गुप्तचर सूचनाओं का समायोजन करने के लिए बनाई गई संयुक्त खुफिया परिषद (जेआईसी) को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद से अलग कर दिया। एमके नारायणन के कार्यकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद (जेआईसी) में वरिष्ठ स्टाफ की भारी कमी आ गई थी। विदेश सेवा से जुड़े अफसर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार परिषद में जाने से कन्नी काटने लगे थे। इस विभाग में विदेशी भाषाओं के जानने वालों का होना भी जरूरी था, लेकिन नारायणन के कार्यकाल में इसमें भी भारी कमी आई। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एमके नारायणन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार परिषद सचिवालय में भी तालमेल की भारी कमी आ गई थी।
मुंबई पर आतंकी हमले के बाद भले ही शिवराज पाटिल के साथ एमके नारायणन की विदाई नहीं हुई। लेकिन गृहमंत्री बनने के बाद पी चिदंबरम लगातार राष्ट्रीय सुरक्षा के ढांचे की समीक्षा कर रहे हैं। उन्होंने पहला काम यह किया था कि रोज दोपहर को एक मीटिंग लेने लगे थे। इस मीटिंग में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार नारायणन, गृहसचिव, गुप्तचर एजेंसी रॉ सचिव, डायरेक्टर आईबी, चेयरमैन जेआईसी और गृहमंत्रालय के विशेष सचिव शामिल हो रहे थे। नारायणन पहले सिर्फ प्रधानमंत्री को अकेले ही राष्ट्रीय सुरक्षा पर रिपोर्ट देकर इतिश्री कर रहे थे। चिदंबरम की ओर से बुलाई गई मीटिंगों में बैठना नारायणन को पूरी तरह असहज कर रहा था। हालांकि चिदंबरम की इन कोशिशों से सूचनाओं का आदान-प्रदान तेजी से होने लगा है और आतंकी वारदातों में व्यापक कमी आई है। चिदंबरम ने सभी गुप्तचर एजेंसियों की सूचनाएं एक जगह इकट्ठी करने के लिए 'नेटग्रिड' की स्थापना करने का भी फैसला किया है। यह नेटग्रिड डेढ़-दो साल में स्थापित हो जाएगा। यह काम राष्ट्रीय सलाहाकार का था, लेकिन कोई योजना बनाने में वह पूरी तरह नाकाम रहे। संसद से कानून बनवाकर राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी का गठन कर देने के बाद पी चिदंबरम अब राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केंद्र स्थापित करना चाहते हैं। मार्च के पहले हफ्ते में राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केंद्र (एनसीटीसी) का ड्राफ्ट केबिनेट के सामने रख दिया जाएगा। चिदंबरम की योजना एनसीटीसी को सीधे गृहमंत्रालय के अधीन लाकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार की भूमिका कम या खत्म करने की है। एनसीटीसी बन जाने के बाद प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार विदेश संबंधों, चीन के साथ सीमा विवाद, परमाणु समझौते जैसे मुद्दों पर ज्यादा कारगर ढंग से काम कर सकेंगे। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार आंतरिक सुरक्षा को बाहरी खतरे के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकेगा। वह गृहमंत्री के माध्यम से एनसीटीसी और प्रधानमंत्री में भी पुल का काम कर सकता है। चिदंबरम ने मन बना लिया है कि नई बनी राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी (एनआईए) एनटीआरओ, जेआईसी, एनसीआरबी सीधे एनसीटीसी के तहत काम करेगी। सीबीआई, रॉ आदि की भूमिका भी तय होगी। चिदंबरम इन दोनों एजेंसियों को भी एनसीटीसी के साथ जोड़ना चाहते हैं। मिलिट्री इंटेलिजेंस और वित्त मंत्रालय की इंटेलिजेंस एजेंसियों के नुमाइंदे भी एनसीटीसी में शामिल होंगे। इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा का नया ढांचा तैयार होगा, जो अमेरिका के मौजूदा ढांचे के अनुरूप होगा।
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