साल 2009 बीत रहा है। यह साल मीडिया के लिए भी कई खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरा है। साल की पहली तिमाही में जरनैल सिंह ने कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेंस में गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंककर मीडिया के लिए असमंजस की स्थिति पैदा कर दी थी। तो बाद में जरनैल सिंह एक सिख पत्रकार के तौर पर नाइंसाफी के खिलाफ लड़ने वाले जुझारू पत्रकार के रूप में मशहूर हुए। एक जमाना था जब मीडियाकर्मियों और मीडिया को नाइंसाफी के खिलाफ लड़ने वाला मिशनरी माना जाता था। स्वतंत्रा संग्राम के आंदोलन में मीडियाकर्मियों की भूमिका इसलिए ज्यादा अहम थी। बाजारीकरण ने पिछले एक दशक में मीडिया की जुझारू छवि को धूल धूसरित कर दिया था।
पिछले दो दशक में मीडिया के स्वरूप में भारी बदलाव आए। वह प्रभावशाली लोगों के गठबंधन की ओर से की जा रही नाइंसाफियों को आंख मूंदकर देखने लगा। मीडिया की लापरवाही के कारण ब्यूरोक्रेसी और राजनीतिज्ञों के गठबंधन में कई जगह पर ज्यूडिशरी के शामिल होने की घटनाएं भी सामने आई। जबकि बीत रहा 2009 साल मीडिया के लिए अपनी साख बचाने की जद्दोजहद करने और मिशनरी आग को फिर से धधकाने के लिए तैयार होने के रूप में देखा जाएगा।
उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ लोगों ने मिलकर मृतक संघ बनाया है। लेटर हैड पर मृतक संघ पढ़कर गुदगुदाने वाला आश्चर्य होता है। ये वो लोग हैं, जो नौकरशाही और न्यायपालिका के गठबंधन का शिकार हुए हैं। अदालतों में इन्हें मृतक साबित करके इनके रिश्तेदारों या प्रभावशाली लोगों ने इनकी जमीन-जायदाद हड़प ली है। अदालती फैसलों में ये सभी मृतक घोषित हो चुके हैं, जबकि वास्तव में वे जिंदा हैं। ऐसे फैसले करवाने में प्रशासन, प्रभावशाली लोगों और न्यायपालिका का गठबंधन रहता है। अदालतों की तरफ से मृतक घोषित हो चुके लोगों की तादाद तीन सौ से ज्यादा है। इन सभी ने इंसाफ के लिए संगठन बना लिया है और पिछले कुछ सालों से हर दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। हमारी न्यायपालिका कितनी चरमरा गई है, मृतक संघ इसका पुख्ता सबूत है।
पिछले कुछ सालों में मीडिया ने प्रभावशाली लोगों की ओर से इंसाफ को प्रभावित करने के कई मामले बेनकाब किए हैं। जेसिका लाल हत्याकांड, प्रियदर्शिनी मट्टू, शिवानी भटनागर, नितीश कटारा हत्याकांड में प्रभावशाली लोगों को बेनकाब करके अदालतों को कड़ी सजा के लिए मजबूर करने और बीएमडब्ल्यू केस में वकील के बिक जाने का मामला मीडिया ने उजागर किया है। इन मामलों से मीडिया के उस पुराने युग की याद ताजा हुई है, जब मीडिया एक प्रोफेशन नहीं, सिर्फ मिशन हुआ करता था जहां मीडिया में काम करने वाले लोगों और समाज के लिए कुछ उत्साहवर्धक उदाहरण हैं। वहां हाल ही के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मीडिया की साख को बट्टा भी लगा है। कुछ अखबारों ने (जिनमें राष्ट्रीय स्तर का अखबार होने का दावा करने वाले अखबार भी शामिल थे) उम्मीदवारों पर दबाव बनाकर उनके समर्थन में लिखने के पैसे वसूल किए। 'पेड न्यूज' से अखबारों को काले धन की कमाई हुई, जिनका उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग को दी गई खर्चे की सूची में उल्लेख नहीं किया। देश के लिए यह सुखद आश्चर्य है कि शुरूआती चुप्पी के बाद मीडिया और मीडिया संगठनों ने पत्रकारिता में प्रवेश कर रही इस आत्मघाती कुरीति के खिलाफ खुद ही मुहिम छेड़ दी है। भारत की मीडिया में शुरू हुए इस भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली आवाज अमेरिका के एक अखबार में उठी। जिसे पढ़कर हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने सबसे पहले कलम उठाई। उन्होंने लिखा- 'ऐसे अखबारों के रजिस्ट्रेशन रद्द कर देने चाहिए और उन्हें सिर्फ प्रिटिंग प्रेस का लाइसेंस देना चाहिए।' हिंदी मीडिया के लिए यह गर्व की बात है कि 'पेड न्यूज' के खिलाफ हिंदी के एक पत्रकार की ओर से शुरू की गई मुहिम अब व्यापक रूप ले चुकी है। विभिन्न मीडिया संगठनों ने इसके खिलाफ प्रस्ताव पास किए हैं और संसद के अगले सत्र में इस पर विशेष चर्चा होने के आसार हैं।
देश के लिए यह गर्व की बात है कि साल के आखिर में मीडिया ने सालों की चुप्पी तोड़ते हुए ब्यूरोक्रेसी, ज्यूडिशरी और एडमिनिस्ट्रेशन के गठबंधन की नाइंसाफी पर भी प्रहार शुरू कर दिए हैं। पहली चुप्पी 1990 में एक पुलिस अफसर की मनमानी का शिकार हुई चौदह साल की किशोरी रुचिका के हक में आवाज उठाने से टूटी। रुचिका गिरहोत्रा प्रभावशाली लोगों के देहशोषण का पहला उदाहरण नहीं है। करीब पांच साल पहले एक न्यूज चैनल ने कई सांसदों-विधायकों की रंगरलियों का स्टिंग आपरेशन दिखाया था। ऐसा ही एक स्टिंग आपरेशन फिल्मी हस्तियों का भी हुआ था। स्टिंग आपरेशन को कानून का डंडा दिखाकर रोक दिया गया। पच्चीस साल पहले भी इसी तरह की एक घटना दिल्ली में हुई थी। एक प्रभावशाली व्यापारी ने दिल्ली के एक सैन्य फार्महाऊस में रात्रिभोज रखा था, आधी रात के बाद तक चले इस भोज में शराब और शबाब का नंगा नाच हुआ। जिसमें सभी राजनीतिक दलों के नेता और छोटी अदालतों के कई जज भी शामिल थे। एक अखबार ने जब इसका विस्तृत ब्योरा छापा, तो सुप्रीम कोर्ट ने सुओ मोटो नोटिस लेते हुए अखबार और पत्रकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।
हरियाणा के इंस्पेक्टर जनरल शंभू प्रताप सिंह राठौर ने अपनी बेटी से भी एक साल छोटी रुचिका गिरहोत्रा के साथ दुरव्यवहार किया, लेकिन जब उसने अपने घर वालों को यह बात बता दी और बात कानून के पास पहुंचने को हुई, तो रुचिका और उसके परिवार का मुंह बंद करने के लिए हर तरीका इस्तेमाल किया गया। शंभू प्रताप सिंह की डयूटी भाखड़ा नंगल बांध पर लगी थी, अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्होंने उन सब लोगों पर बिजली चोरी के केस बनवा दिए, जो रुचिका और उसके परिवार की मदद कर रहे थे। रुचिका के किशोरावस्था भाई को थ्री व्हीलर चोरी में गिरफ्तार किया गया। सात और कारों की चोरी के मामले भी एक-एक कर दायर कर दिए गए। राठौर की मौजूदगी में पुलिस थाने में उसकी पिटाई की गई। उस पर दबाव डाला गया कि वह अपनी बहन से शिकायत वापस लेने के लिए कहे। मार-मार कर अधमरी हालत में रुचिका के भाई को हथकड़ी लगाकर उसके घर लाया गया ताकि उसकी बहन यह सब देख सके। अपने भाई को इस तरह देखने के बाद रुचिका ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसका परिवार उसकी वजह से सजा भुगत रहा था। सारी हरियाणा पुलिस, प्रशासन और सत्ताधारी राजनीतिज्ञ पुलिस इंस्पेक्टर की मदद कर रहे थे। वह इतना प्रभावशाली था कि निचली अदालतों से संभावित कार्रवाई को रोकने के लिए हाईकोर्ट से स्थागनादेश हासिल कर लेता था। एक नहीं, तीन बार हाईकोर्ट से पुलिस इंस्पेक्टर जनरल को राहत मिली। केस सीबीआई के सुपुर्द हुआ, तो सीबीआई ने आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज करने से इंकार कर दिया। अब जब उन्नीस साल बाद राठौर को छह महीने की कैद हुई है तो मीडिया के दबाव में पुलिस-प्रशासन और राजनीतिज्ञों का नापाक गठजोड़ चौराहे पर खड़ा है।
साल के आखिरी हफ्ते की आखिरी घटना में एक राजनीतिज्ञ को कुर्सी छोड़ने के लिए मजबूर करने का श्रेय भी मीडिया को जाएगा। तीन दशक से राजनीतिक हलकों में हर कोई एनडी तिवारी की फितरत से वाकिफ था। हर साल तिवारी से जुड़ी कोई नई घटना सामने आती थी। केंद्रीय मंत्री प्रोफेसर शेर सिंह की बेटी उज्जवला अपने बेटे को पिता का नाम दिलाने के लिए पिछले उनतीस साल से नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ संघर्ष कर रही थी। इन उनतीस सालों में तिवारी दो बार मुख्यमंत्री, तीन बार केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल बने। उनकी अपनी पार्टी के अलावा सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को इस किस्से की सालों से जानकारी थी। उज्जवला का उनतीस साल का बेटा रोहित शेखर पिछले साल अदालत से इंसाफ लेने गया, तो उस जज को बदलवा दिया गया, जो कड़ा रुख अपना रहा था। अदालत में केस दायर होने के बावजूद दिल्ली में बैठे शासकों ने राज्यपाल की कुर्सी पर बने रहने में उनकी मदद की। अदालत ने रोहित शेखर को इस आधार पर इंसाफ देने से इंकार कर दिया कि उसे अठारह साल का होने पर ही अदालत आना चाहिए था, अब बहुत देर हो गई। अदालतें कितनी देर से इंसाफ देती हैं, इसका ताजा उदाहरण तो रुचिका गिरहोत्रा का मामला ही सामने है।
आंध्र प्रदेश के एक अखबार और न्यूज चैनल ने राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के सेक्स स्कैंडल का स्टिंग ऑपरेशन करके पिछले तीन दशक से उनके बारे में चली आ रही अफवाहों को पुख्ता सबूत के तौर पर पेश कर दिया। आंध्रज्योति नाम का यह अखबार कुछ साल पहले बंद हो गया था। इसे पिछले साल ही एक पत्रकार ने खरीदकर दुबारा शुरू किया। दिसंबर के दूसरे पखवाड़े में ही अखबार ने अपना न्यूज चैनल एबीएन शुरू किया। सेक्स स्कैंडल की सीडी दिखाने पर अदालत ने फौरन रोक लगा दी, लेकिन जिस तरह मीडिया के दबाव से रुचिका मामले में हरियाणा और केंद्र सरकार हरकत में आई, उसी तरह केंद्र सरकार को एनडी तिवारी के खिलाफ हरकत में आना पड़ा। परिणामस्वरूप अदालती रोक के बावूजद चौबीस घंटे के अंदर तिवारी को इस्तीफा देना पड़ा।
नारायण दत्त तिवारी ने जब अर्जुन सिंह के साथ मिलकर तिवारी कांग्रेस बनाई थी, तो एक रात वह अचानक गायब हो गए थे। अर्जुन सिंह ने उनके अपहरण की एफआईआर दर्ज करा दी थी, लेकिन वह अगले दिन सुबह दिल्ली से सत्तर किलोमीटर दूर गजरौला के एक गेस्ट हाऊस में संदिग्ध हालत में पाए गए थे। मीडिया ने उस समय भी इस घटना को उजागर किया था, लेकिन यह पृष्ठभूमि भी रोहित शेखर को अदालत से इंसाफ दिलाने में काम नहीं आई। इंसाफ मिला, मीडिया के हरकत में आने से। इसलिए बीत रहे साल को अपराधियों का किला भेदने में मीडिया की सफलता के तौर पर भी याद किया जाएगा।
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