एक आईपीएस अफसर पूरे तंत्र को अपनी ऊंगलियों पर नचा रहा था। स्कूल, अस्पताल, पुलिस थाना, सीबीआई, मुख्यमंत्री, न्यायपालिका सबको चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है एक आईपीएस अफसर ने।
हमारा प्रशासनिक राजनीतिक ढांचा चरमरा रहा है। प्रशासनिक सुधार आयोगों की रिपोटें असली मर्ज को पहचानने की कोशिश भी नहीं करतीं। राजनीतिक नेता और नौकरशाही का मकड़जाल देश के लोकतंत्र को घुन की तरह खा रहा है। नौकरशाह देश को चूसने वाले गिध्द बन गए हैं और राजनीतिक नेता उन पर नकेल कसने की बजाए छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए उनके हाथों का खिलौना बन गए हैं। कई मुख्यमंत्रियों को निजी बातचीत में यह कहते सुना है कि ब्यूरोक्रेसी से काम लेना आसान नहीं।
ब्यूरोक्रेसी (जिनमें खासकर आईएएस-आईपीएस अधिकारी) तब तक किसी राजनेता के पांव नहीं जमने देती जब तक राजनेता उन्हें संरक्षण का वायदा नहीं करते। जब वे आपस में घुल-मिल जाते हैं तो एक-दूसरे के काले कारनामों में मददगार हो जाते हैं।
रुचिका गिरहोत्रा का मामला देश में पहला नहीं है। इससे मिलते-जुलते सैकड़ों मामले मिल जाएंगे। जहां ब्यूरोक्रेसी और राजनेताओं ने समाज पर अत्याचार किए और कोई कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका। दूर क्यों जाते हो, देश की राजधानी दिल्ली के पुलिस थानों में बलात्कार की घटनाएं होती रहती हैं। मुंबई के पुलिस बूथ में बलात्कार की घटना हुई थी। चौदह साल की रुचिका के साथ जैसी छेड़छाड़ पुलिस इंस्पैक्टर जनरल एसपीएस राठौर ने की, ऐसी घटनाएं हर जिले-तहसील में आए दिन होती हैं। उन्नीस साल पहले 1990 में चंडीगढ़ में स्वतंत्रता दिवस से तीन दिन पहले राठौर ने रुचिका को अपने दफ्तर में बुलाया। वह इंस्पैक्टर जनरल के साथ-साथ हरियाणा लान टैनिस एसोसिएशन का अध्यक्ष भी था। रुचिका लान टैनिस की खिलाड़ी थी। शासन क्यों इजाजत देता है पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को खेल संघों में सक्रिय होने और दखल देने की। खेल संघों के पदाधिकारी बनने की होड़ क्यों मची है प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं में। मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और आईएसएस, आईपीएस, आईएफएस अधिकारियों पर खेल संघों और क्लबों के पदाधिकारी बनने पर रोक लगनी चाहिए। ऐसे प्रभावशाली लोगों के कारण खेलों और सामाजिक क्लबों का वातावरण दूषित हो रहा है, इनकी बेजा दिलचस्पी से खेल संघों और क्लबों में देह शोषण को बढ़ावा मिल रहा है।
क्या हमारा लोकतंत्र सफल हो रहा है। जब अपराधी और अपराधियों को संरक्षण देने वाले चुनाव जीत रहे हों, तो लोकतंत्र को सफल कैसे कहा जा सकता है। नारायण दत्त तिवारी के सैक्स स्कैंडलों के किस्से पिछले 30 साल से हर किसी की जुबान पर थे, लेकिन इन तीस सालों में उन्होंने क्या हासिल नहीं किया। वह तीन बार मुख्यमंत्री, दो बार केंद्र में मंत्री और राज्यपाल बने। जब तक उनका स्टिंग आपरेशन नहीं हुआ, कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सका। उत्तर प्रदेश के मंत्री राजा भैय्या के कारनामों पर कोई कानून उनका क्या बिगाड़ सका। उन्होंने अपनी प्रेमिका मधुमिता शुक्ला की हत्या करवा दी और बाद में एक-एक करके गवाहों को निपटा दिया। यह सब करने के बाद भी राज्य सरकार में मंत्री बन गया। उत्तर प्रदेश के ही होनहार बैडमिनटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या दिन दहाड़े हुई थी। सैयद मोदी की हत्या के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संजय सिंह ने अपनी पत्नी से तलाक लेकर सैयद मोदी की पत्नी अनिता से शादी कर ली। सैयद मोदी की हत्या से पहले अनिता का संजय सिंह से प्रेम शुरू हो चुका था। अनिता मोदी बाद में दो बार एमएलए और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी बनीं, संजय सिंह को भी कोई कानून चुनाव लड़ने और मंत्री बनने से कहां रोक सका। शिबू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा के उन चार सांसदों में से एक थे, जिन्हें नरसिंह राव की सरकार बचाने के लिए मोटी रकम मिली थी। रिश्वत की यह राशि अदालत में साबित हो गई थी लेकिन उन्हें बार-बार सांसद बनने, केंद्र में मंत्री बनने और अब तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने से कौन रोक सका। सुखराम के घर से उनके बाथरूम और बिस्तरे के गद्दों में काले धन की गड्डियां मिली थीं। यह काला धन उन्होंने नरसिंह राव सरकार में मंत्री होते हुए देशभर में टेलीफोन का जाल बिछाते कमाया था। कोई कानून उन्हें इसके बाद चुनाव लड़ने और मंत्री बनने से कब रोक सका। ओमप्रकाश चौटाला और मायावती के पास अकूत संपत्ति का सारा कच्चा चिट्ठा सीबीआई के पास है, लेकिन अदालतों से उन्हें बार-बार राहत मिल रही है। हम लोकतंत्र की सफलता का ढिंढोरा पीटना चाहें तो चाहे जितना पीटें। हमारी प्रशासन और राजनीति के शुध्दिकरण में जरा दिलचस्पी नहीं हैं।
प्रशासनिक अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं का गठजोड़ लोकतंत्र को मजबूत होने देना नहीं चाहता। अगर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती तो ऐसे केसे हो सकता था कि एक आईपीएस अफसर पूरे पुलिस प्रशासन को अपनी ऊंगलियों पर नचाता। पुलिस ने छेड़छाड़ की शिकायत दर्ज नहीं की थी। रुचिका के पिता ने जब गृहमंत्री संपत सिंह को शिकायत की तो उन्होंने डीजीपी आरआर सिंह को तीन दिन में जांचकर रिपोर्ट सौंपने को कहा था। आरआर सिंह ने जांच के बाद इंस्पैक्टर जनरल राठौर के खिलाफ केस दर्ज करने की सिफारिश की थी लेकिन संपत सिंह ने केस दर्ज नहीं करवाया। तत्कालीन मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला कैसे कह सकते हैं कि वह बेदाग हैं। वही मुख्यमंत्री थे उस समय। यह तो नहीं कहा जा सकता कि गृहमंत्री संपत सिंह ने केस दबा दिया होगा, वह केस दबाना चाहते तो तीन दिन में जांच रिपोर्ट ही क्यों मांगते। पिचहत्तर साल के रिटायर डीआईजी आरआर सिंह अभी भी समझ नहीं पा रहे हैं कि तत्कालीन सरकार में कौन राठौर की मदद कर रहा था। जिस चौटाला सरकार ने राठौर को राष्ट्रपति पुलिस मैडल की सिफारिश की, वह अपने हाथ कैसे धो सकते हैं। चौटाला के राज में राठौर को राष्ट्रपति पुलिस मैडल की सिफारिश करने वाला गृहसचिव बीरबल दास दहिया अब चौटाला की पार्टी में नेता हैं। सारा गठजोड़ शीशे की तरह साफ है।
रुचिका का मामला जोर पकड़ा तो आईपीएस अधिकारी की पूरे पुलिस महकमे ने मदद की। उनके इशारे पर रुचिका के भाई आशू पर चोरी का झूठा मुकदमा बनाया गया। नंगा करके उसके घर के पास घुमाया गया। राठौर की मौजूदगी में पुलिस उसकी पिटाई करती थी। राठौर ने रुचिका को स्कूल से निकलवाकर उसकी पढ़ाई बंद करा दी। रुचिका ने आत्महत्या कर ली तो भी पुलिस राठौर की मदद करती रही। पोस्टमार्टम में आत्महत्या का तरीका बदल दिया गया, यहां तक कि नाम बदल दिया गया, पिता का नाम भी बदल दिया गया। डाक्टर और अस्पताल भी राठौर के प्रभाव में उनके इशारों पर काम कर रहे थे। सीबीआई कोर्ट ने आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज करने की सिफारिश की तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने राठौर को राहत दे दी। जिस सीबीआई अफसर आरएम सिंह ने आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला जोडने की सिफारिश लिखी, उसे सीबीआई के डायरेक्टर और सीबीआई के कानूनी सलाहकार ने हटवा दिया। बताएं प्रशासन और न्यायतंत्र का कोई ऐसा कमरा बचा है, जो बेदाग हो। एक आईपीएस अफसर पूरे तंत्र को अपनी ऊंगलियों पर नचा रहा था। स्कूल, अस्पताल, पुलिस थाना, सीबीआई, मुख्यमंत्री, न्यायपालिका सबको चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है एक आईपीएस अफसर ने।
शिक्षा का मंदिर स्कूल, न्याय का मंदिर अदालत, इंसाफ दिलाने की जिम्मेदार सीबीआई और इन सब पर निगाह रखने वाली चुनी हुई सरकार- सब चरमरा कर गिर गए हैं। रुचिका और उसके परिवार पर अत्याचार करने वाले पुलिस कर्मचारियों की लंबी सूची है। क्या राठौर के साथ-साथ उन सब पर भी कानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। क्या उन सब पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जिनकी आंखों के सामने यह घोर अपराध हो रहा था और वे आंख मूंदे हुए थे। क्या केंद्र की तत्कालीन चंद्रशेखर से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक की सरकारों के गृहमंत्री कटघरे में खड़े नहीं होने चाहिए, जिनके तहत देशभर के आईपीएस अफसर काम करते हैं। क्या चौटाला, बंशीलाल, भजनलाल कटघरे में नहीं खड़े होने चाहिए, जो इतने बड़े अपराध पर आंखें मूंदे हुए थे। किसी एक मुख्यमंत्री ने राठौर को निलंबित करने की जहमत नहीं उठाई। इसीलिए राठौर छह महीने मात्र की सजा सुनकर मुस्कराता हुआ कोर्ट से बाहर निकला, क्योंकि उसे अब भी उम्मीद है कि जैसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने पहले उसकी मदद की, इस बार भी करेगी। रुचिका से ज्यादा अलग नहीं है राजस्थान की आदिवासी महिला का मामला। जिसका राजस्थान के डीआईजी मधुकर टंडन ने तेरह साल पहले बलात्कार किया था। फर्क सिर्फ इतना है कि वह तब से भगौड़ा है, लेकिन पुलिस अब भी उसकी मददगार बनी हुई है। वह कानून की नजर से लगातार बचा रही है अपने फरार डीआईजी को। डीआईजी बार बार उस महिला और उसके पति को उठाकर पुलिस थाने ले जाता है और समझौता करने का दबाव बनाता है। पुलिस कहती है, वह लापता है और मुख्यमंत्री उस पीड़ित महिला को मिलने से इनकार कर देते हैं क्योंकि वह एक ऐसे सांसद के साथ उन्हें मिलने पहुंचती है जो उनकी पार्टी में नहीं है। यह है हमारा सफल लोकतंत्र।
पुलिस तंत्र, प्रशासनिक तंत्र और लोकशाही में आमूलचूल परिवर्तन ही देश को लोकतंत्र की सही पटरी पर ला सकता है। पुलिस को हर शिकायत की एफआईआर दर्ज करने की हिदायत ही काफी नहीं। पुलिस से टार्चर करने के सारे अधिकार वापस लेने होंगे। पुलिस रिमांड का कानूनी प्रावधान खत्म करना होगा। पुलिस न्यायिक हिरासत में ही पूछताछ करे। प्रशासन में बैठे भ्रष्ट और बेईमान अफसरों को फैसले करने वाले पदों से हटाना होगा। चुनाव लड़ने के नियम ज्यादा कड़े करने होंगे। जिन नेताओं के खिलाफ तीन चार्जशीट पर अदालत संज्ञान ले चुकी हो, उन्हें चुनाव लड़ने या कोई भी राजनीतिक पद ग्रहण करने से वंचित करना होगा। ये सब कदम भी काफी नहीं हैं, लोकतंत्र को पटरी पर लाकर देश में सुशासन की स्थापना करने के लिए। जैसी जागृति जेसिका लाल, नीतिश कटारा, प्रियदर्शनी मट्टू, के अदालती फैसलों के बाद देश की जनता ने दिखाई है, ऐसी जागृति हमेशा कायम रहे, तभी कानून के रक्षकों को भक्षक बनने से रोका जा सकेगा।
आपकी प्रतिक्रिया