मुखर्जी-उपाध्याय, अटल-आडवाणी के बाद अब सुषमा-गड़करी
मोहन भागवत ने भाजपा के नए नेतृत्व के चयन की जिम्मेदारी लालकृष्ण आडवाणी को सौंपकर पिछले चार साल से चली गुटबाजी को विराम देने की कोशिश की है। आडवाणी की ओर से चुने गए पार्टी के तीनों नए नेता सुषमा स्वराज, नितिन गड़करी और अरुण जेटली अब पिछले चार साल की गलतियां सुधारने में जुटेंगे।
मौसम परिवर्तन को लेकर कोपेनहेगन में दुनियाभर के नेता कोई सर्वमान्य हल निकालने की मशक्कत कर रहे थे, लेकिन वहां कोई हल नहीं निकला। जबकि भारत में ठीक उसी समय भारतीय जनता पार्टी में मौसम परिवर्तन हो गया।
अठारह दिसंबर की शाम पांच बजे से शुरू हुई भाजपा में मौसम परिवर्तन की मुहिम अगले दिन उन्नीस दिसंबर के शाम तीन बजे तक जारी थी। बाईस घंटों के भीतर किसी भी राजनीतिक दल में दो पीढ़ियों का इतना बड़ा अंतर कभी नहीं देखा गया। इन बाईस घंटों में बनी भाजपा संसदीय दल की नेता सुषमा स्वराज और भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी का जन्म जनसंघ के गठन के बाद हुआ है। अब तक भाजपा की बागडोर जनसंघ के गठन से पहले पैदा हुए नेताओं के हाथ में थी। सुषमा स्वराज जनसंघ के जन्म 21 अक्टूबर 1951 से करीब चार महीने बाद 14 फरवरी 1952 को पैदा हुई। जबकि नितिन गड़करी का जन्म तो जनसंघ के गठन से पांच साल बाद 27 मई 1957 को हुआ। रायसभा में छह महीने पहले ही विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी संभालना शुरू कर चुके अरुण जेटली का जन्म भी 28 दिसंबर 1952 को हुआ था। उम्र के लिहाज से सुषमा स्वराज इन तीनों में सबसे बड़ी हैं, हालांकि वह भी सिर्फ 57 साल की हैं। भाजपा को लंबे अर्से के बाद 52 साल का अध्यक्ष मिला है।
अठावन साल पहले जब जनसंघ का गठन हुआ, तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी अध्यक्ष और दीनदयाल उपाध्याय संगठन मंत्री थे, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी कुछ महीनों बाद जनसंघ में शामिल हुए। श्यामाप्रसाद मुखर्जी के जम्मू जेल में निधन के बाद पार्टी की बागडोर दीनदयाल उपाध्याय के कंधों पर आ गई थी, तो 1968 में दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के बाद पार्टी की बागडोर अटल बिहारी वाजपेयी के कंधों पर आ गई। दीनदयाल उपाध्याय के कार्यकाल में भारतीय जनसंघ बाकी छोटे-बड़े राजनीतिक दलों के साथ मिलकर बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब में संविद सरकारों में शामिल हो गई थी, लेकिन अटल जी के कार्यकाल में यह संविद सरकारें गिर गई और 1969 के चुनावों में जनसंघ बुरी तरह हारी थी। अटल बिहारी वाजपेयी को तब पार्टी के भीतर से भी बलराज मधोक के विरोध का सामना करना पड़ा था, जो उनसे काफी पहले जनसंघ के अध्यक्ष रह चुके थे। जब जनसंघ में वाजपेयी-मधोक में घमासान चल रहा था, ठीक उसी समय इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस को दोफाड़ कर दिया। जनसंघ की केंद्रीय राजनीति में लालकृष्ण आडवाणी का उदय 1970 में रायसभा के सदस्य के रूप में हुआ। तब से लेकर 2004 तक जनसंघ और भाजपा पर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का चुनौतीरहित कब्जा बना रहा। इस बीच वाजपेयी और आडवाणी ने पार्टी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया, तो उन्हीं की मौजूदगी में पार्टी पिछले दो लोकसभा चुनाव लगातार हारी।
भाजपा का छह साल का शासनकाल संघ परिवार से खट््टे-मीठे रिश्तों का दौर रहा। संघ परिवार के तीन संगठन विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और स्वदेशी जागरण मंच एनडीए सरकार की शुरू से लेकर आखिर तक आलोचना और विरोध करते रहे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक के सुदर्शन के साथ न तो अटल बिहारी वाजपेयी के रिश्ते अच्छे थे, न लालकृष्ण आडवाणी के। हालांकि जिस समय एनडीए सरकार बनी, उस समय इन दोनों नेताओं के उस समय के सरसंघचालक राू भैया के साथ संबंध बेहतरीन थे। एनडीए सरकार के समय ही राू भैया ने संघ की जिम्मेदारी के सुदर्शन को सौंपकर एक तरह से सरकार के लिए कांटों का मार्ग खड़ा कर दिया। सिर्फ राम जन्मभूमि मंदिर ही नहीं, सरकार की आर्थिक नीतियों पर भी संघ परिवार से टकराव की नौबत आ गई। अटल बिहारी वाजपेयी ने इन परिस्थितियों से निपटने की जिम्मेदारी लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दी थी, लेकिन वह के सुदर्शन को संतुष्ट नहीं कर पाए। नतीजतन दोनों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास की खाई चौड़ी होती गई, जिसका विस्फोट चार-पांच जून 2005 को लालकृष्ण आडवाणी की कराची में कायद-ए-आजम मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर दिए गए भाषण के बाद हुआ। लालकृष्ण आडवाणी ने ऐसा कुछ नहीं कहा था, जिससे सरसंघचालक का गुस्सा इतना भड़कता। आडवाणी से खार खाए बैठे विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल की ओर से मौके का फायदा उठाया जाना तो समझ में आता था, लेकिन सरसंघचालक ने भी जिन्ना की थोड़ी सी तारीफ पर आसमान सिर पर उठा लिया। आडवाणी ने जिन्ना को सेक्युलर नहीं कहा था, हालांकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जिन्ना को बार-बार ऐसा सेक्युलर दिखाया गया है, जो कांग्रेस की उनके प्रति नफरत के कारण कट्टरपंथी मुसलमान बना। आडवाणी ने जिन्ना की मजार पर भाषण देते हुए पाकिस्तानियों को याद दिलाया था कि 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा में भाषण देते हुए जिन्ना ने पाक को ऐसा सेक्युलर स्टेट बनाने का वादा किया था जिसमें सभी धर्मों के लोगों को उपासना की आजादी होगी और उसके नागरिकों से धर्म के आधार पर भेद नहीं किया जाएगा। पहले भारतीय मीडिया ने और बाद में संघ परिवार ने इसे जिन्ना के तारीफ के तौर पर पेश करके आडवाणी की छवि को धूमल करने की आपराधिक कोशिश की।
पहले से ही अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी से खफा चल रहे सरसंघचालक के सुदर्शन ने इन दोनों के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए दोनों को अपने-अपने पद छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। यह भारतीय जनता पार्टी के कामकाज में संघ का सीधा-सीधा दखल था, जबकि इससे पहले इस तरह का दखल इस तरह खुल्लम-खुल्ला कभी नहीं हुआ था। जनसंघ के जन्म के समय भी श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गुरु गोलवरकर के साथ जब नई पार्टी बनाने का विचार-विमर्श किया था, तो संघ ने पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने के लिए संघ के प्रचारक भेजने मात्र का समझौता किया था। आरएसएस ने उसी परंपरा के तहत भाजपा में कार्यरत संगठन महामंत्री संजय जोशी का लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल किया। जनसंघ के शुरूआती समय से ही भाजपा से जुड़े रहे लालकृष्ण आडवाणी को भी 2005 के चेन्नई अधिवेशन में यह कहना पड़ा कि संघ पार्टी के रोजमर्रा के काम में दखल न दे। लेकिन संघ नेतृत्व पर इसका कोई असर नहीं हुआ, आडवाणी अध्यक्ष पद छोड़ने को राजी हो गए थे, बेहतर होता कि उन्हीं की पसंद का नया अध्यक्ष बनाया जाता, क्योंकि वह पच्चीस साल से पार्टी को सींच रहे थे। लेकिन संघ ने आडवाणी विरोधियों से सलाह-मशविरा करके राजनाथ सिंह को पार्टी अध्यक्ष पद सौंप दिया। संघ अगर आडवाणी से सलाह-मशविरा करके उन्हीं से राजनाथ सिंह का नाम आगे बढ़वाता, तो पिछले चार साल में पार्टी जिस गुटबाजी का शिकार हुई, वैसा न होता। पार्टी पहले दिन से ही आडवाणी समर्थकों और आडवाणी विरोधियों में बंट गई, दोनों गुटों में अविश्वास की खाई इतनी बढ़ गई थी, जिसका असर 2009 के लोकसभा चुनावों में साफ दिखाई दे रहा था।
नए सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने पूर्ववर्ती सरसंघचालक के सुदर्शन के रोडमैप का अनुसरण करते हुए पार्टी को नया नेतृत्व देने की सलाह देने में बेहतर ईमानदारी का परिचय दिया है। उन्होंने पार्टी युवा कंधों पर सौंपने के समय और युवा कंधों के चयन का फैसला लालकृष्ण आडवाणी पर सौंपकर पार्टी को गुटबाजी से निजात दिलाने की ईमानदार कोशिश की है। नतीजतन जनसंघ गठन के बाद पैदा हुए नितिन गड़करी, अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के चयन का फैसला लालकृष्ण आडवाणी के हाथों हुआ है। अब लालकृष्ण आडवाणी की जिम्मेदारी इन तीनों को प्रशिक्षित करके कुशल नेतृत्व देने में सक्षम करने और निचले स्तर पर नया नेतृत्व उभारने की भूमिका निभाना है। जिसमें लालकृष्ण आडवाणी मन-कर्म-वचन से लग गए हैं। मोहन भागवत ने आडवाणी के करीबी वेंकैया, जेटली, अनंत, सुषमा या नरेंद्र मोदी को अध्यक्ष बनाने का कभी विरोध नहीं किया। नरेंद्र मोदी खुद गुजरात से अभी मुक्त नहीं होना चाहते थे, जेटली और सुषमा को आडवाणी संसदीय जिम्मेदारी के लिए तैयार कर चुके थे, इसलिए विकल्प सिर्फ वेंकैया नायडू और अनंत कुमार बचते थे। अनंत कुमार को अपेक्षाकृत विवादास्पद माना गया, क्योंकि वह कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा के खिलाफ हैं, जबकि वेंकैया नायडू का प्रयोग पार्टी पहले ही कर चुकी थी। लालकृष्ण आडवाणी को ही अन्य नाम सुझाने की सलाह दी गई थी और इसी सलाह-मशविरे में नागपुर के किसान और उद्योगपति नितिन गड़करी का नाम उभरा, जो समाजपरक राजनीति से अपना लोहा मनवा चुके थे। संघ मुख्यालय के नजदीक घर होना उनकी योग्यता नहीं है, मशहूर केतकी सिल्क साड़ी कंपनी के मालिक होना भी उनकी योग्यता नहीं है, पीवीसी पाईप बनाने वाली या पाउडर कोटेड प्रीमियम फर्नीचर या क्राफ्ट पेपर को-आपरेटिव सोसायटी चलाना भी उनकी योग्यता नहीं है। वाजपेयी सरकार के समय बनी प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना का पहला प्रयोग नितिन गड़करी ने महाराष्ट्र का पीडब्ल्यूडी मंत्री रहते हुए किया था। चतुर्भुज राष्ट्रीय राजमार्ग संबंधी वाजपेयी के सपने को साकार करने वाली कमेटी से भी नितिन गड़करी जुड़े रहे। वह उतना समय राजनीति में नहीं लगाते, जितना समाजसेवा में लगाते हैं। गड़करी ने पार्टी को गुटबाजी से मुक्त करने का वादा करके चार्ज लिया है।
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