अपना दौरा टालकर बाराक ओबामा को उनकी कश्मीर नीति पर मुंह तोड़ जवाब दे सकते थे मनमोहन सिंह। यों भी संसद सत्र के समय प्रधानमंत्री को विदेश दौरों से परहेज करना चाहिए।
संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा की मेहमानबाजी का लुत्फ उठा रहे हैं। भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी आतंकवादी घटना 26/11 की कड़वी यादों को जब एक साल बाद इस 26/11 संसद में याद किया जाएगा, तो प्रधानमंत्री नदारद होंगे। कोई अंतरराष्ट्रीय समारोह या बैठक न हो तो प्रधानमंत्री संसद सत्र के समय विदेश यात्राओं से परहेज किया करते थे। जिस संसद में बहुमत के बूते कोई प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचता है, उस संसद का उसे सम्मान करना ही चाहिए। खासकर तब जब सत्र साल में सिर्फ तीन बार होता हो और वह भी पूरे साल में कुल मिलाकर सौ दिन से भी कम चलता हो।
मनमोहन सिंह इस बात के लिए खुश हैं कि बाराक ओबामा ने राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे पहले उन्हें ही अमेरिका का राजकीय मेहमान बनने का मौका दिया है। इसलिए मनमोहन सिंह ने मेहमानबाजी की वही तारीखें बेहिचक कबूल कर ली, जब संसद का शीत सत्र होता है। उन्होंने पहली बार ऐसा किया होता तो अनदेखी भी की जा सकती थी, लेकिन कभी भी लोकसभा में नहीं चुने गए मनमोहन सिंह लगातार ऐसा कर रहे हैं।
मनमोहन सिंह उसी बाराक ओबामा के न्योते पर गए हैं, जिन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद एटमी करार पर नई शर्ते लादना शुरू कर दिया है। उन्होंने पहली शर्त यह लादी है कि भारत एटमी कचरे की रि-प्रोसेसिंग नहीं करने का वायदा करे और दूसरी शर्त यह लादी है कि एटमी परीक्षण नहीं करने का लिखित आश्वासन दे। जब एटमी करार पर संसद में बहस चल रही थी तो मनमोहन सिंह ने ताल ठोककर कहा था कि देश की सार्वभोमिकता को गिरवी रख कर करार नहीं किया जाएगा। उन्होंने संसद को भरोसा दिलाया था कि देश के एटमी परीक्षण करने के अधिकार सुरिक्षत रहेंगे। जबकि विपक्षी दल शुरू से अमेरिकी शर्तों की आशंका जाहिर कर रहे थे। मनमोहन सिंह एटमी करार को अपनी सबसे बडी उपलब्धि मानते हैं लेकिन जिस का डर था, वह हमारे सामने आ गया है। एटमी करार करके भारत ने एटमी ताकत बनने का सपना हमेशा-हमेशा के लिये दफन कर दिया है। अमेरिका ने हमें परमाणु बम संपन्न देश का दर्जा नहीं दिया है, जिस कारण हमारा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता का दावा भी कमजोर पड़ गया है।
राष्ट्राध्यक्षों की विदेश यात्राएं कोई एक-दो दिन में तय नहीं होती। महीनों पहले तय होती है और उसी के अनुरूप तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा तय होने के बाद बाराक ओबामा ने अपना चीन का दौरा तय किया। चीन में बाराक ओबामा ने वहां के राष्ट्रपति के साथ मिलकर जो भारत विरोधी साझा बयान जारी किया है उस के जख्म अभी हरे हैं। मनमोहन सिंह उन्हीं हरे जख्मों के साथ ओबामा के दरबार में मौजूद हैं। अपने पिछले शासन काल में उन्होंने जार्ज बुश के साथ एटमी करार किया था तो अमेरिका की नीति चीन विरोधी थी। भारत के चीनपरस्त कम्युनिस्टों के एटमी करार विरोधी रुख का मुख्य कारण यही था। चीन भी इस करार को अपने खिलाफ मानता था इसलिए शुरू से उसने विरोध किया। एक धारणा यह थी कि एटमी करार से भारत को परमाणु ऊर्जा ईंधन की सप्लाई होगी, जिससे भारत में ऊर्जा की कमी खत्म होगी और विकास की गाड़ी चीन के बराबर दौड़ने लगेगी। चीनपरस्त भारतीय कम्युनिस्ट यह कतई नहीं चाहते कि भारत का विकास चीन की कीमत पर हो। यह अलग बात है कि मनमोहन सिंह ने एटमी करार के कूटनीतिक प्रभावों को नजरंदाज करके करार को नाक का सवाल बना लिया था, जबकि उसके सामरिक और कूटनीतिक नुकसान साफ दिखाई दे रहे थे, जिनका जिक्र ऊपर किया गया है। चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए जार्ज बुश एटमी करार का इस्तेमाल कर रहे थे। लेकिन बाराक ओबामा के राष्ट्रपति बन जाने के बाद अमेरिकी कूटनीति में आश्चर्यजनक बदलाव देखने को मिल रहे हैं। सबसे पहला बदलाव अमेरिका की चीन कूटनीति में दिखाई दे रहा है। राष्ट्रपति ओबामा ने जार्ज बुश और बिल क्लिंटन की तिब्बत नीति को बदलकर चीन का समर्थन कर दिया है। भारतीय जनता भले ही तिब्बत के लिए भावुक हो और दलाई लामा का तहेदिल से समर्थन करती हो। लेकिन बाराक ओबामा की तिब्बत नीति भारत सरकार की नीति से भिन्न नहीं है। तिब्बत स्वायत्तता को भारतीय नैतिक समर्थन के बावजूद भारत सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया है। नेहरू के बाद राजीव और फिर वाजपेयी और मनमोहन ने भी ऐसा किस सौदेबाजी में किया है यह भारतीय जनमानस को अभी नहीं बताया गया। सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा इसके बावजूद बताया कि चीन हमारी 90000 किलोमीटर जमीन पर कब्जा किए हुए है।
बाराक ओबामा सिर्फ तिब्बत को चीन का हिस्सा बताते तो गनीमत था, हमारे लिए एतराज करने वाली कोई बात नहीं थी। लेकिन उन्होंने भारत-पाक संबंधों को सुधारने का ठेका चीन को देने का एलान किया है, यह सीधे-सीधे भारतीय सार्वभोमिकता में दखल है। बाराक ओबामा की भारत पर दादागिरी की हिम्मत एटमी करार के कारण ही पैदा हुई है। यह अधिकार तो संयुक्त राष्ट्र को भी नहीं है कि वह बिना हमारी सहमति के किसी तीसरे देश को बिचौला बनने का अधिकार दे। राष्ट्रपति पद के चुनाव में बाराक ओबामा ने कश्मीर में जो दिलचस्पी दिखाई थी, वह उसी के अनुरूप काम करते दिखाई दे रहे हैं। तब उनका इरादा कश्मीर समस्या हल करने के लिए अमेरिकी प्रतिनिधि नियुक्त करने का था। वह तो उन्होंने अभी नहीं किया, लेकिन चीनी प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया है। कश्मीर में चीन की दिलचस्पी उतनी ही है, जितनी पाकिस्तान की। पाकिस्तान की कश्मीर में दिलचस्पी धार्मिक आधार पर है, लेकिन चीन की दिलचस्पी सामरिक कारणों से है। कश्मीर पर चीन की ललचाई नजर से भारत पूरी तरह वाकिफ है। पाक ने अपने कब्जे वाले कश्मीर का काफी हिस्सा कराकोरम मार्ग के लिए चीन को सौंप दिया था। जिस भारतीय कश्मीर का एक हिस्सा चीन ने हड़प रखा है, उस कश्मीर का विवाद निपटाने के लिए चीन को कहना निश्चित रूप से अमेरिका का भारत विरोधी कदम है। हाल ही में चीन की ओर से कश्मीरी नागरिकों को भारतीय पासपोर्ट की बजाए सादे कागज पर वीजा दिया जाना और अब चीन का कश्मीर में मध्यस्थ बनने की कोशिश भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय साजिश की ओर इशारा करते हैं।
अमेरिका के पास अब इस बात के ठोस सबूत हैं कि पाकिस्तान के सभी परमाणु परीक्षण चीन की ओर से दिए गए यूरोनियम से हुए थे। पाक के परमाणु वैज्ञानिक ए.क्यू. खान ने अब इसे जगजाहिर भी कर दिया है। पाकिस्तान मूल के कनोडियन नागरिक तहाब्बुर हुसैन राणा और पाक मूल के ही अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमन हेडली की गिरफ्तारी के बाद अमेरिका को यह सबूत भी मिल चुके हैं कि भारत पर 26/11 के आतंकवादी हमले की साजिश में पाकिस्तानी फौज और गुप्तचर एजेंसी आईएसआई भी शामिल थी। सिर्फ भारत के खिलाफ नहीं, अलबत्ता दुनियाभर के आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान के तार जुड़ने के सबूत मिलने लगे हैं। अब तो अमेरिका को इस बात के भी सबूत मिल चुके हैं कि अफगानिस्तान के तालीबानी नेता मुल्ला उमर को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने सुरक्षित कराची पहुंचा दिया है। ताकि वह बलूचिस्तान में अमेरिकी ड्रोन हमलों का निशाना न बन सके। इन सब सबूतों के बावजूद ओबामा प्रशासन का पाकिस्तान को आर्थिक मदद बरकरार रहना आश्चर्यजनक है। कश्मीर मसले पर अमेरिका की दिलचस्पी साफ दर्शाती है कि दुनियाभर के लिए खतरा बन रहे पाक के प्रति उसका रुख अभी भी नरम बना हुआ है। इसका मतलब यह भी निकलता है कि अमेरिका पहले तो सिर्फ पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा था, अब उसका चीन को भी भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने का इरादा है। पाक सरकार ओबामा प्रशासन को यह यकीन दिलाने में कामयाब होती दिखाई दे रही है कि जब तक कश्मीर समस्या का हल नहीं होगा, वह आतंकवाद को नहीं रोक सकती। ओबामा प्रशासन पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई, पाक फौज और पाक प्रशासन के आतंकवादियों को सहयोग के ठोस सबूतों के बावजूद उसके दबाव में काम रहा है। जबकि कश्मीर समस्या पाकिस्तान की आतंकवाद नीति का एक छोटा सा हिस्सा है। दूसरी तरफ चीन में ओबामा का कश्मीर पर बोलना भारत सरकार की कूटनीतिक विफलता का भी सबूत है। भारत ने ओबामा के स्टैंड का विरोध जरूर किया है लेकिन प्रधानमंत्री अपनी अमेरिका यात्रा टालकर कड़ा विरोध कर सकते थे। ओबामा ने मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा से ठीक पहले कश्मीर मुद्दा उठा कर उन लोगों को करारा झटका दिया है जो अमेरिका को भारत का नया अंतरराष्ट्रीय साथी मानने लगे थे।
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