हमें आपकी नहीं, देश की फिक्र है, आप सुधरोगे तो लोकतंत्र मजबूत होगा। लोकतंत्र मजबूत होगा तो देश मजबूत होगा। आपने अपने अनुभव से कुछ नहीं सीखा तो युवा पीढ़ी के नए तौर तरीकों से राजनीति का क ख ग सीखिए। राहुल गांधी से सीखिए।
वैसे तो आपको आलाकमान कहूं या नहीं। इस पर मन में असमंजस है। पर परंपरा निभाने के लिए आलाकमान शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं। वैसे तो भाजपा में आलाकमान का होना ही हास्यास्पद सा लगता है। राजनीति में आलाकमान शब्द का इस्तेमाल कांग्रेस में ही शोभा देता है। इंदिरा गांधी के जमाने में आलाकमान शब्द चलन में आया। उससे पहले कांग्रेस में सिंडिकेट हुआ करता था, जिसे आम भाषा में सामूहिक नेतृत्व कह सकते हैं। नेहरू की मौत के बाद कांग्रेस में सामूहिक नेतृत्व का चलन शुरू हुआ था। इंदिरा गांधी ने सामूहिक नेतृत्व को तहश-नहश करके कमान अपने हाथ में ली। वह कांग्रेस की आलाकमान बन गई। इस तरह राजनीति में आलाकमान की शुरूआत हुई।
भारतीय जनता पार्टी इंदिरा कांग्रेस की तरह आलाकमान आधारित पार्टी कभी नहीं रही थी। अलबत्ता कांग्रेस के सिंडीकेट की तरह अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, सुंदर सिंह भंडारी, मुरली मनोहर जोशी पर आधारित सामूहिक नेतृत्व हुआ करता था। इस सामूहिक नेतृत्व की परंपरा का अंत 1997 में शुरू हो गया था, जब वाजपेयी, आडवाणी, जोशी की तिकड़ी में से मुरली मनोहर जोशी को निकाल बाहर किया गया। अगले साल लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद सुंदर सिंह भंडारी को निकाल बाहर किया गया, जब उन्हें राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया। बाकी बचे थे वाजपेयी और आडवाणी। वाजपेयी की संगठन पर पकड़ जरूर थी पर उनकी सोच का दायरा बहुत बड़ा था, वह जनता के भीतर तक घुसे थे। पार्टी में सामूहिक नेतृत्व होते हुए भी लालकृष्ण आडवाणी के रूप में एक आला कमान बन गया। इसके बावजूद वाजपेयी का वीटो भारी पड़ता रहा। कांग्रेस की तरह भाजपा का अध्यक्ष कभी भी अपनी पार्टी का आलाकमान नहीं बन पाया। थोड़े समय के लिए जब नेहरू-इंदिरा परिवार से हटकर नरसिंह राव पार्टी अध्यक्ष थे, तो वह पार्टी के आलाकमान थे। भाजपा में मुरली मनोहर जोशी तक तो सिंडीकेट परंपरा ही थी उसके बाद कुशाभाऊठाकरे, जनाकृष्णामूर्ति, बंगारू लक्ष्मण, वेंकैया नायडू या अब राजनाथ सिंह पार्टी का आलाकमान नहीं बन पाए। भाजपा अब न तो नेहरू युग की कांग्रेस जैसी सामूहिक नेतृत्व की पार्टी दिखती है और न ही इंदिरा गांधी और उनके बाद की कांग्रेस जैसी आलाकमान आधारित पार्टी। पार्टी को या तो आलाकमान आधारित बनाइए या सामूहिक नेतृत्व पर लौटिए। आपकी पार्टी तो जंगलराज का नमूना बन चुकी है। आलाकमान की पध्दति भी कांग्रेस से सीखिए। सोनिया ऐसी आलाकमान हैं, जिसे कोई वसुधंरा चुनौती नहीं दे सकती, लेकिन वह हर फैसला सलाह मशविरे के बाद करती हैं, ताकि कोई ऊंच-नीच हो तो बाकी नेता संभाल लें।
यही दुविधा है भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को आलाकमान मानूं या सामूहिक नेतृत्व वाली पुरानी भाजपा की कल्पना करके आडवाणी को भी आलाकमान का हिस्सा मानूं। आलाकमान किसे कहूं। वेंकैया नायडू, अरुण जेटली और वसुंधरा राजे की कमान पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के हाथ में नहीं है। इन तीनों का आलाकमान भाजपा अध्यक्ष न होते हुए भी लालकृष्ण आडवाणी हैं। आपकी पार्टी में गुटबाजी तो हमेशा थी पर दिखती नहीं थी इसलिए आप लोग पार्टी विद ए डिफरेंस बताने लगे। अब आपको यह कहने का हक कहां रहा। अब आप पार्टी विद ए डिफरेंस नहीं हैं। आपके यहां तो न कोई आलाकमान है, न उसकी चलती है। आपका सामूहिक नेतृत्व पहले ही फेल हो गया था आलाकमान अब फेल हो गया। वैसे आप भले ही पार्टी के सामूहिक नेतृत्व को आलाकमान कहो, पर आलाकमान ऐसा नहीं हो सकता, जिसमें कई लोग शामिल हों और लोग भी ऐसे जो एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाते हों। लोकसभा चुनावों के वक्त अरुण जेटली को राजनाथ फूटी आंख नहीं सुहाते थे, इसलिए उन्होंने उन मीटिंगों में जाना बंद कर दिया था जिनकी अध्यक्षता राजनाथ सिंह करते थे। भाजपा में आलाकमान की अवधारणा तो तभी खत्म हो गई थी जब पार्टी संसदीय दल ने राज्यसभा में नेता तय करने का अधिकार पार्टी अध्यक्ष की बजाए लालकृष्ण आडवाणी को दे दिया था। क्या कांग्रेस में सोनिया गांधी के रहते ऐसे हो सकता है? आडवाणी ने तथाकथित आलाकमान को चुनौती देने वाले अरुण जेटली को राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाकर आलाकमान की अवधारणा खत्म कर दी।
इसलिए पार्टी में आलाकमान नाम की कोई चीज नहीं बची है। आलाकमान नाम की कोई चीज बची होती तो विजय गोयल हरियाणा विधानसभा चुनाव में पार्टी को मजाक का मुद्दा बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। वह कभी ओम प्रकाश चौटाला से गठबंधन बनाते-तोड़ते रहे और कभी भजनलाल से बातचीत करते रहे। पार्टी मझधार में खड़ी थी, जिधर की हवा बहे उधर जाने की कोशिश करती रही। लोकसभा चुनाव में चौटाला को राजग में लाकर राजनाथ सिंह और आडवाणी राजग परिवार में इजाफे का ढोल बजा रहे थे। पर चुनाव में हार के बाद शिमला बैठक में ठीकरा उन्हीं चौटाला के सिर फोड़ दिया। आप खुद को चौटाला के साथ डूबना मान रहे थे, पर आप तो चौटाला के बिना ही डूब गए। पार्टी में आलाकमान नाम की चीज तो दूर की बात, राजनीतिक दूरदर्शिता भी दिखाई नहीं देती। वरना हरियाणा विधानसभा चुनाव में हवा किस तरफ बह रही है, इसका अंदाजा लगाने में इतनी भूल नहीं होती। पार्टी में कोई आलाकमान होता तो प्रमोद महाजन की मौत के बाद गोपीनाथ मुंडे और नीतिन गड़करी रूपी दो ऐसे ध्रूव नहीं बनते जो पार्टी को दो विपरीत दिशाओं में खींच रहे थे। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद शरद पवार का बयान भाजपा और शिवसेना की अंतर्कथा का सटीक विश्लेषण है। उन्होंने कहा भाजपा और शिवसेना जनता का भरोसा जीतने में नाकाम रही इसलिए कांग्रेस-एनसीपी जीती।
आलाकमान सिर्फ पार्टी पर हकूमत करने के लिए नहीं होता। राहुल गांधी के गरीब की झोपड़ी में पहुंचने की खिल्ली उड़ाने वाले आपके नेताओं को अपने गिरेबान में झांकने को कहने की हिम्मत किसमें है। जिन्हें प्राइवेट हवाई जहाजों पर दौरे करने में मजा आता है उन्हें राहुल गांधी का गरीब की झोपड़ी में जाना नौटंकी ही लगेगा। राहुल गांधी भी प्राइवेट विमानों पर सफर करते हैं, लेकिन जिन्हें आप विदेशी प्रेमिका और विदेशी संस्कृति वाला बताकर खारिज करते रहे, वह आपसे बहुत पहले जनता में अपनी साख बनाने में कामयाब हो गया है। सोनिया गांधी ने 1998 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद ऐसे ही लोगों के बीच जाकर देश की राजनीति और संस्कृति को समझा था। आप आलाकमान की झूठी ठसक लेकर बैठे रहें और जनता के बीच जाने की जिम्मेदारी आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों पर छोड़ दें तो आपको राजनीतिक पार्टी होने का भी हक कहां है। संघ भी जनता से सीधे संपर्क का हवाला देकर भाजपा का अध्यक्ष तय करेगा तो आपकी पार्टी का भी यही हश्र होना था, जो राजनाथ सिंह के अध्यक्ष काल में हुआ। भाजपा-संघ का रिश्ता विचारधारा का होता तो गनीमत था, संघ का बंधक बनकर भाजपा राजनीतिक दल नहीं बन पाएगी। पार्टी खुद सीधे जनता से जुड़कर राजनीतिक दल बनेगी तभी देश को एक दलीय राजनीति से बचाने के काबिल बन पाएगी। अपने वक्त के ताकतवर आलाकमान लालकृष्ण आडवाणी ताल ठोककर कहते थे कि देश को दो दलीय नहीं तो दो ध्रूवीय राजनीति में लाने में वह कामयाब रहे हैं। अब लालकृष्ण आडवाणी की आंखों के सामने देश की राजनीति फिर जवाहर लाल नेहरू के वक्त वाली एक ध्रूवीय लोकतंत्र की ओर बढ़नी शुरू हो गई है। इसकी जिम्मेदारी किसी और की नहीं, भारतीय जनता पार्टी यानी आपकी ही है, जिसे जनता ने मौका दिया था। पर आप लोगों ने राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय देते हुए बिल्लियों की तरह रोटी के टुकड़े के लिए ही आपस में झगड़ते-झगड़ते यह मौका हाथ से जाने दे रहे हैं। कांग्रेस गिरते-गिरते फिर उठ खड़ी हो रही है, तो उसकी वजह पार्टी का अंदरूनी लोकतंत्र और जनता के बीच जाकर अपनी गिरती साख बचाने की कोशिश भी है। लोकसभा चुनावों के बाद लगता था कि आप सुधारात्मक कदम उठाएंगे। शिमला बैठक में पार्टी की नीतियों में परिवर्तन कर आप जनता के करीब पहुंचने वाली नीतियां अपनाएंगे। पर लोकसभा की हार से सबक सीखने की नीतियां और नेतृत्व बदलने की बजाए एक-दूसरे की पीठ में छुरा घोंपने की राजनीति से अभी फुरसत नहीं मिली है आपको। आप हार का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोड़ने और एक-दूसरे का गला काटने को ही सुधार समझ बैठे हैं, इसलिए महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजे आपके सामने हैं।
माफ करना आपको यह चिट्ठी इसलिए लिखनी पड़ी क्योंकि देश में लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए दो ध्रूवीय राजनीति की बेहद जरूरत है। हमें आपकी नहीं, देश की फिक्र है, आप सुधरोगे तो लोकतंत्र मजबूत होगा। लोकतंत्र मजबूत होगा तो देश मजबूत होगा। आपने अपने अनुभव से कुछ नहीं सीखा तो युवा पीढ़ी के नए तौर तरीकों से राजनीति का क ख ग सीखिए। राहुल गांधी से सीखिए।
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