पाक में जमहूरियत समर्थक और विरोधी आमने-सामने आ गए हैं क्योंकि अमेरिकी असैन्य आर्थिक मदद की शर्तें सेना और आईएसआई की बेजा हरकतों पर अंकुश लगाने वाली हैं।
सार्क सम्मेलन के मौके पर जनवरी 2004 में पाकिस्तान जाना हुआ तो जियो टीवी के मौजूदा सीईओ आमिर मीर के साथ बातचीत का मौका मिला। होटल के बाहर सड़क पर ही काफी देर टहलते-टहलते बात होती रही। आमिर मीर की भारत से शिकायत थी कि वह पाकिस्तान के चुने हुए शासकों के साथ बातचीत नहीं करता, लेकिन जब-जब सैनिक शासक आ जाता है, बातचीत तेजी से शुरू कर देता है। उनका कहना था कि भारत के इस रवैये ने पाकिस्तान में लोकतंत्र मजबूत नहीं होने दिया। आमिर मीर की यही शिकायत अमेरिका के साथ भी थी।
भारत के बारे में बातचीत करते हुए उनके मन में कोई तल्खी नहीं, अलबत्ता सिर्फ शिकायत थी। जबकि अमेरिका के बारे में बात करते समय तल्खी साफ दिखाई देती थी। यह तल्खी इस्लामाबाद से लेकर रावलपिंडी तक हर किसी से बातचीत के समय उभर कर आई। शीत युध्द के समय भारत और पाकिस्तान दोनों बड़े गुटों में बंटे हुए थे। जवाहर लाल नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति के बावजूद हम सोवियत संघ के ज्यादा करीबी थे और पाकिस्तान की पीठ पर अमेरिका का हाथ था। सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर एक तरह से कब्जा कर रखा था। उस समय अफगानिस्तान हमारे बहुत करीब था, जबकि पाकिस्तान से उतना ही दूर था। अमेरिका पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई के माध्यम से अफगानिस्तान में विद्रोहियों को आर्थिक मदद पहुंचा रहा था। पाकिस्तान उस आर्थिक मदद का तब से भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता रहा है। सोवियत संघ टूटने के बाद उन्हीं तालिबानों का अफगानिस्तान पर शासन हो गया, जिन्हें अमेरिकी मदद मिला करती थी।
ग्यारह सितंबर 2001 को अमेरिका पर आतंकवादी हमले तक अमेरिका ने भारत की उस शिकायत पर कभी तवज्जो नहीं दी थी, जिसमें पाकिस्तान की ओर से भारत में आतंकवादी वारदातें किए जाने के सबूत दिए जाते थे। अमेरिका पर आतंकी हमले के बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जार्ज बुश से कहा था कि भारत एक दशक से अमेरिका को सावधान करता रहा था। अमेरिका को नाईन इलेवन के बाद एहसास हुआ और राष्ट्रपति बुश ने पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए मजबूर किया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने आतंकवाद के खिलाफ सहयोग की पूरी कीमत वसूल की। अमेरिका ने मुशर्रफ को अंधाधुंध पैसा भेजा। इसके बावजूद पाकिस्तानी जनमानस में अमेरिका के प्रति सद्भावना पैदा नहीं हुई। अमेरिका जहां एक तरफ अफगानिस्तान में जमहूरियत की दुहाई दे रहा था वहां पाकिस्तान में नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर सैनिक शासक बने परवेज मुशर्रफ को पूरा समर्थन और शह देकर मजबूत कर रहा था। आमिर मीर जब पाकिस्तान में जमहूरियत के पांव नहीं जमने की बात कह रहे थे तो वह भारत के साथ अमेरिका को भी उतना ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे। पाकिस्तान में मुझे भारत के प्रति उतनी नफरत नहीं दिखी जितनी अमेरिका के प्रति दिखी। इसकी दो वजहें मेरी समझ में आई। एक तो यह कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ दोस्ती का हाथ मिलाकर अमृतसर से लाहौर तक बस पर यात्रा की थी। लंबे समय के बाद पाकिस्तानी आवाम की यह इच्छा पूरी हुई थी कि भारत पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार से बातचीत करके वहां की जमहूरियत को मजबूत करने में सहायक हो रहा था। दूसरी वजह यह समझ में आई कि जहां भारत सरकार परवेज मुशर्रफ से कड़ाई के साथ पेश आ रही थी वहां अमेरिका सैन्य शासक मुशर्रफ को संरक्षण देकर उन्हें अफगानिस्तान में मुसलमानों की हत्याओं के लिए इस्तेमाल कर रहा था।
पाकिस्तान के विभिन्न लोगों से बातचीत के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा था कि वहां की आवाम भारत-पाक रिश्तों में कड़वाहट के लिए अपनी सेना को जिम्मेदार मानती हैं। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पाक सेना भारत के खिलाफ जहर फैलाती रही और जिस किसी चुनी हुई सरकार ने भारत से रिश्ते सुधारने की कोशिश की उसका तख्ता पलट दिया गया। नवाज शरीफ का तख्ता पलट तो इसका ताजा सबूत था। परवेज मुशर्रफ ने जहां एक तरफ आतंकवाद के लिए लड़ाई के नाम पर अमेरिका से करोड़ों डालर की मदद ली वहां उस धन का इस्तेमाल भारत में आतंकवाद फैलाने के लिए किया जाता रहा। अब इस आरोप के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं है क्योंकि राष्ट्रपति पद से हटने के बाद निर्वासित जीवन जी रहे परवेज मुशर्रफ ने खुद ही कुछ दिन पहले यह कबूल किया है। अब जब अमेरिकी सरकार ने पहली बार पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार को मजबूत करने के लिए पांच साल तक लगातार 150 करोड़ डालर सालाना असैन्य मदद का कानून पास करवाया है तो पाकिस्तानी फौज उसकी शर्तों से तिलमिला उठी है। पाकिस्तानी आवाम जहां एक तरफ इसका स्वागत कर रहा है, वहीं भारत विरोधी मानसिकता वाली फौज और कट्टरपंथी मुखालफत पर उतर आए हैं। पाक को असैन्य मदद के लिए सितंबर में अमेरिकी कांग्रेस से पास हुए 'कैरी-लुगर बिल' के कुछ प्रावधान पाकिस्तान की भारत विरोधी ताकतों को रास नहीं आने की ठोस वजहें हैं। इस बिल में अमेरिकी मदद की कुछ शर्तें रखी गई हैं। वे शर्तें इस प्रकार हैं-
- अमेरिकी विदेश मंत्री को हर साल यह सर्टिफिकेट देना होगा कि पाकिस्तान परमाणु संवर्धन पर रोक लगाने में मदद कर रहा है। इस मदद में उन पाकिस्तानियों के बारे में सूचनाएं मुहैया करवाना भी शामिल है, जो परमाणु संवर्धन और इससे संवर्धित नेटवर्क से जुड़े हैं। (स्पष्ट इशारा ए क्यू खान की तरफ है, जिसने हाल ही में खुलासा किया है कि वह पाकिस्तान के सैन्य शासक मुशर्रफ के इशारे पर ही मुस्लिम देशों को परमाणु तकनीक मुहैया करवा रहे थे।)
- अमेरिकी विदेशमंत्री को हर साल सर्टिफिकेट देना होगा कि पाकिस्तान आतंकवाद विरोधी वचनबध्दता निभा रहा है और पाकिस्तान की फौज के तत्व या गुप्तचर एजेंसी आतंकवादी संगठनों की कोई मदद नहीं कर रहे।
- अमेरिकी विदेशमंत्री को यह सर्टिफिकेट भी देना होगा कि पाक सरकार ऐसे तत्वों की कोई मदद नहीं कर रही जो अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना पर हमले कर रहे हैं या पड़ोसी देश में आतंकवादी वारदातें कर रहे हैं। (स्पष्ट इशारा भारत के खिलाफ आतंकवादी वारदातें करने वाले लश्कर-ए-तोएबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों की ओर है, जिन्हें पाकिस्तानी फौज और गुप्तचर एजेंसी आईएसआई मदद कर रही है।)
- बिल के मुताबिक अमेरिकी विदेशमंत्री हर छटे महीने बाकी चीजों के अलावा आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान में हुई कार्रवाई की समीक्षा करेगा/करेगी। इसमें यह भी जांचना होगा कि पाक को दी जा रही मदद का परमाणु हथियार कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल तो नहीं हो रहा।
- अमेरिकी विदेशमंत्री की इस पर भी निगाह रहेगी कि पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार का सेना पर कितना नियंत्रण है। वह अपने राजनीतिक प्रशासनिक अधिकारों का इस्तेमाल कर रही है या नहीं। वह रक्षा बजट पर निगरानी रख रही है या नहीं। सेना में पदोन्नति की प्रणाली ठीक ढंग से काम कर रही है या नहीं। नागरिक प्रशासन की सामरिक मामलों में कितनी भूमिका है और नागरिक प्रशासन में सेना का कितना दखल है।
अमेरिका की पाकिस्तान को असैन्य मदद की पांचों ही शर्तें पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत करने और सेना के दखल को कमजोर करने में कारगर साबित होने वाली हैं। मोटे तौर पर पाकिस्तान को मिलने वाली अमेरिकी मदद पर भारत आपत्ति उठाता रहा है क्योंकि पाक उस मदद का भारत के खिलाफ बेजा इस्तेमाल करता रहा है। यह पहली बार है जब भारत को अमेरिकी मदद के साथ जुड़ी शर्तों पर खुशी होनी चाहिए। पाकिस्तान में जमहूरियत को मजबूत देखने वाली ताकतें इन शर्तों पर कोई आपत्ति नहीं कर रहीं। सिर्फ वही लोग इन्हें पाकिस्तान की संप्रभुता में दखल बता रहे हैं जो फौजी शासन के पैरवीकार रहे हैं। पाकिस्तानी फौज का अमेरिकी शर्तों पर आपत्ति करना स्वाभाविक ही है, क्योंकि वह जेहादी संगठनों को हर तरह की मदद पहुंचा रही है।
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