अमेरिका ने भारत को एनपीटी-सीटीबीटी करारों के दायरे में लाने के लिए चौतरफे दबाव शुरू कर दिए हैं। मनमोहन सरकार समझती थी कि एनएसजी और आईएईए से छूट मिलने के बाद अब भारत को इन दोनों प्रस्तावों पर दस्तखत की जरूरत नहीं पड़ेगी।
यह सवाल तो तब से उठ रहा है जबसे मनमोहन सरकार अमेरिका के करीब हुई है। लेकिन अब यह सवाल ज्यादा गंभीरता से पूछा जा रहा है- क्या भारत सीटीबीटी पर दस्तखत कर देगा? नरसिंह राव ने सीटीबीटी पर भी वही रुख अपनाया था, जो इंदिरा गांधी ने एनपीटी के समय अपनाया था। नरसिंह राव के बाद सभी प्रधानमंत्रियों ने भी अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की ओर से तय की गई विदेश नीति अपनाई। इसलिए कोई अंतरराष्ट्रीय दबाव में नहीं झुका।
अटल बिहारी वाजपेयी ने तो मई 1998 में परमाणु परीक्षण करके सीटीबीटी को खुली चुनौती दे दी थी। मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा ईंधन समझौता करते समय वायदा किया कि भारत परमाणु परीक्षण नहीं करेगा, लेकिन एनपीटी और सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करेगा। जब यह सवाल संसद में उठाया गया था तो सरकार की तरफ से जवाब आया कि एनडीए सरकार ने ही परमाणु परीक्षणों पर विराम लगाने का एलान कर दिया था। यह बात सही है कि 1998 में परमाणु परीक्षण करने के बाद एनडीए सरकार ने कहा था कि अब किसी और परीक्षण की जरूरत नहीं है। इसलिए भारत खुद परीक्षणों को विराम देता है, लेकिन भारत परमाणु सम्पन्न देश हो जाने के बावजूद भेदभावपूर्ण एनपीटी पर दस्तखत नहीं करेगा। परीक्षणों पर स्वयं विराम देने के बावजूद सीटीबीटी पर भी दस्तखत नहीं करेगा और अपना विकल्प खुला रखेगा। विपरीत परस्थितियों के बावजूद भारत ने कभी भी अमेरिकी दबाव को कबूल नहीं किया। नतीजतन हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान के भी एनपीटी और सीटीबीटी पर दस्तखत करने का सवाल नहीं था, सो उसने भी दस्तखत नहीं किए।
अमेरिका ने टेढ़ी उंगली से घी निकालने की रणनीति अपनाई। इसी के तहत मनमोहन सरकार से एटमी करार किया गया। एटमी करार करने के लिए उसे परमाणु ईंधन सप्लाई करने वाले देशों (एनएसजी) से भारत के साथ व्यापार की छूट दिलाने का प्रस्ताव पास करवाना पड़ा। यह प्रस्ताव पास करवाने के लिए भारत का अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) से सेफगार्ड का करार कराने में मदद की। अपनी सरकार को दांव पर लगाकर मनमोहन सिंह अमेरिका से एटमी करार कर रहे थे तो संसद में विपक्षी दलों ने चेतावनी दी थी कि इसके बाद भारत परमाणु परीक्षण नहीं कर पाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माना था कि अमेरिका ने भारत को परमाणु सम्पन्न देश मानने से इनकार कर दिया है, इसके बावजूद परमाणु ऊर्जा ईंधन देने को तैयार है। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत ने एनपीटी और सीटीबीटी पर दस्तखत करने का कोई वायदा नहीं किया है। इसके बावजूद आईएईए ने छूट दे दी है और एनएसजी देशों ने ईंधन सप्लाई पर सहमति दे दी है।
अमेरिकी नीयत सबसे पहले जुलाई के आखिर में हुए जी-8 देशों के सम्मेलन में सामने आई। अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में (वह विशेष आमंत्रित थे) जी-8 से उन देशों पर एटमी ईंधन संशोधन और संवर्धन (ईएन आर) की तकनीक देने पर रोक लगाने का प्रस्ताव पास करवा लिया, जिन्होंने एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए। एक तरफ अमेरिका ने भारत के साथ ऐसा एटमी करार किया जिसमें एटमी ईंधन संशोधन और संवर्धन की छूट दी गई, दूसरी तरफ जी-8 देशों से उसके खिलाफ प्रस्ताव पास करवाया। अगर जी-8 के प्रस्ताव को एनएसजी से मंजूरी मिलती है तो भारत को एटमी कचरे के संवर्धन की तकनीक नहीं मिलेगी। संभवत: अमेरिकी और फ्रांसीसी यूरेनियम की सप्लाई के समय उसके संवर्धन पर रोक भी लग जाए। उल्लेखनीय है कि हमारे तारापुर संयत्र में संशोधन और संवर्धन की तकनीक मौजूद है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि एनपीटी ने जी-8 का प्रस्ताव मंजूर भी कर लिया तो भी अमेरिका संवर्धन की तकनीक मुहैया करवाएगा। मनमोहन सरकार ने जी-8 के प्रस्ताव पर अमेरिका के सामने एतराज जताने तक की जहमत नहीं उठाई।
अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन अगस्त में भारत आई तो भी भारत ने उसके सामने ईएनआर प्रतिबंध पर एतराज नहीं उठाया। मैंने इसी कालम में तीन अगस्त को लिखा था- 'अमेरिका ने एक तरफ पाबंदी का कूटनीतिक अभियान शुरू कर दिया है, तो दूसरी तरफ भारत पर एनपीटी पर दस्तखत का दबाव भी बनाना शुरू कर दिया है।' इस लेख को छपे सिर्फ डेढ़ महीना हुआ है और अब हमारे सामने है कि 24-25 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने सभी देशों से एनपीटी-सीटीबीटी पर दस्तखत करने और उसका अपने संबंधित निर्वाचित सदनों से पुष्टि करवाने का प्रस्ताव पास किया है यह प्रस्ताव पिछले दरवाजे पर भारत पर नया दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा है। भले ही संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव का मकसद ईरान और उत्तरी कोरिया की घेरेबंदी करना हो। लेकिन पाकिस्तान के परमाणु बम जनक ए क्यू खान के नए रहस्योद्धाटनों के बाद भारत और पाक भी दबाव में आएंगे ही। ए क्यू खान का यह रहस्योद्धाटन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चौंकाने वाला है कि उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के कहने पर ही परमाणु तकनीक की अन्य मुस्लिम देशों में तस्करी की थी। यह संतोष की बात है कि इस बार भारत ने वैसी गलती नहीं की जैसी जी-8 का प्रस्ताव पास होने पर की थी। भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक से एक दिन पहले 23 सितम्बर को ही चिट्ठी लिखकर विरोध जता दिया। इस पत्र में करीब-करीब वैसी ही भाषा का इस्तेमाल किया गया है जैसी अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिकी प्रतिबंधों पर इस्तेमाल की थी। पत्र में कहा गया कि भारत के गैर परमाणु सम्पन्न देश के तौर पर एनपीटी पर दस्तखत करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। भारत के परमाणु हथियार भारत का अभिन्न अंग हैं और रहेंगे। इतनी कड़ी और संतोषजनक भाषा के बावजूद खतरा यह है कि संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि हरदीप पुरी ने एनपीटी पर दस्तखत करने की बात तो कही है, लेकिन सीटीबीटी का कोई जिक्र नहीं किया। पच्चीस सितम्बर को विदेशमंत्री एसएम कृष्णा ने जरूर एनपीटी के साथ-साथ सीटीबीटी पर भी दस्तखत नहीं करने की बात कही है।
अब खतरा यह है कि क्या भारत कुछ ले देकर सीटीबीटी पर दस्तखत करने को तैयार हो जाएगा। परमाणु वैज्ञानिक संथानम के पोकरण द्वितीय पर सवाल उठाए जाने को इसके साथ जोड़कर देखने की जरूरत है। एटमी करार के समय भारत सरकार ने अमेरिका को आश्वासन दिया था कि भारत परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। हालांकि मनमोहन सिंह इससे यह कहते हुए इनकार करते हैं कि भारत जरूरत पड़ने पर परमाणु परीक्षण करने को तैयार है। अगर मनमोहन सरकार एटमी करार के जंजाल में फंसी नहीं होती तो संथानम की परमाणु परीक्षण की जांच करवाने की मांग मंजूर कर ली जाती। परमाणु परीक्षण की सफलता पर सवालिया निशान लगाने में कतई चूक नहीं करती मनमोहन सरकार। क्योंकि ऐसा करने से एनडीए सरकार की महानतम उपलब्धि को कटघरे में खड़ा करने का मौका मिलता। संथानम का कहना है कि पोकरण-द्वितीय पूरी तरह सफल नहीं रहा था इसलिए भारत को दो-तीन परीक्षण और करने चाहिए और तब तक सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने चाहिए। हफ्तेभर की शुरूआती चुप्पी के बाद मनमोहन सरकार अचानक सक्रिय हो गई। विदेशमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार के बाद परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोड़कर को भी पोकरण-द्वितीय के बचाव में झोंक दिया। भारत सरकार के इस दुहाई से संदेह पैदा होता है कि परमाणु परीक्षण की कोई जरूरत नहीं है। जबकि इससे पहले संसद में प्रधानमंत्री आश्वासन दे चुके हैं कि जरूरत पड़ने पर परमाणु परीक्षण के विकल्प खुले हैं। संदेह यह है कि क्या भारत सरकार सीटीबीटी पर दस्तखत के परमाणु परीक्षण के विकल्प को हमेशा हमेशा के लिए बंद करने पर विचार कर रही है। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत, पाक और उत्तरी कोरिया ही तीन देश बचे हैं, जिनने सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं किए हैं। चीन, मिस्र, इंडोनेशिया, ईरान, इस्राइल और अमेरिका ने दस्तखत तो कर दिए हैं, लेकिन इन देशों के निर्वाचित सदनों ने पुष्टि नहीं की है। अमेरिकी सीनेट पुष्टि का प्रस्ताव ठुकरा चुकी है लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हिलेरी क्लिंटन ने वादा किया है कि अब सीनेट प्रस्ताव पास कर देगी।
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