इंदिरा गांधी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए जेपी आंदोलन के कारण आपातकाल नहीं लगाया था। अलबत्ता इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से लोकसभा में उनका निर्वाचन रद्द करने के फैसले के कारण लगाया था।
पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में पहली बार वोट डालने वाले 18 साल के नौजवान को उस आपातकाल के बारे में नहीं पता होगा। जो उसके जन्म से 16 साल पहले भारत में लगा था। बीते हफ्ते 25 जून को आपातकाल को 34 साल पूरे हो चुके थे। आज की पीढ़ी को लोकतंत्र के उस काले अध्याय के बारे में बताना जरूरी है, ताकि वह अपने वोट की कीमत समझ सके। आपातकाल में लोकसभा का कार्यकाल पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दिया गया था। अगर उसे बदल नहीं दिया जाता तो अप्रेल-मई 2009 में पंद्रहवीं लोकसभा के लिए पहली बार वोट डालने वाला नौजवान बारहवीं या तेरहवीं लोकसभा के लिए वोट डाल रहा होता।
आज जो 50 साल का हो चुका है, उसे भी आपातकाल के बारे में कुछ ज्यादा नहीं पता होगा क्योंकि उस समय उसकी उम्र 15-16 साल रही होगी। इस उम्र में राजनीतिक परिपक्वता की कल्पना नहीं की जा सकती।
आमतौर पर धारणा है कि इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को कुचलने के लिए आपातकाल लगाया था। गुजरात में शुरू हुआ छात्रों का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन बिहार पहुंच गया था। राजनीतिक दलों के आग्रह पर स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण आंदोलन की बागडोर संभालने को राजी हो गए थे। अंग्रेजों को चुनौती देने वाले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की बागडोर संभालते ही पूरे देश में सामाजिक क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए इस आंदोलन पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। इंदिरा गांधी के इर्द-गिर्द भ्रष्टाचारियों और सत्ता लोलुपों का जमावड़ा था। विभिन्न शासकीय पदों पर बैठे कांग्रेसी नेता भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे थे। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन उन्हीं भ्रष्ट शक्तियों के खिलाफ था। वह व्यवस्था बदलना चाहते थे, शासक नहीं। उनका आंदोलन इंदिरा गांधी के खिलाफ नहीं था। इंदिरा गांधी ने इसे अपने खिलाफ मानना शुरू कर दिया था क्योंकि शासन की बागडोर उन्हीं के हाथ में थी।
इंदिरा गांधी ने आपातकाल जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को कुचलने के लिए नहीं, अलबत्ता अपनी कुर्सी बचाने के लिए लगाया था। अगर ठीक उसी समय उनके लोकसभा निर्वाचन पर हाईकोर्ट का फैसला नहीं आता तो शायद देश पर आपातकाल नहीं लगता। पाकिस्तान को हराकर बांग्लादेश का गठन करने के बाद हुए इस चुनाव में इंदिरा गांधी रणचंडी बनकर उभर चुकी थी। इसलिए खुद उनके लिए लोकसभा में पहुंचना कोई मुश्किल काम नहीं था। उस समय वैसे भी चुनाव आयोग इतना शक्तिशाली नहीं था कि प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली पर पैनी नजर रख सके। एक सदस्यीय निर्वाचन आयोग सरकार की मुट्ठी में होता था। आमतौर पर धारणा थी कि निर्वाचन आयोग सरकार का ही हिस्सा है। उस समय आयोग की ताकत राष्ट्रपति भवन जैसी ही थी, जो केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर ही काम करता है। वैसे उस समय राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने बिना मंत्रिमंडल की सिफारिश के ही इंदिरा गांधी के कहने पर आपातकाल लगा दिया था।
आजादी के बाद से कांग्रेस को सिर्फ एक बार 1967 में चुनौती मिली थी, लेकिन वह भी अल्पकालीन साबित हो चुकी थी। खैर इंदिरा गांधी से लोकसभा चुनाव हारने वाले समाजवादी नेता राजनारायण ने चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। राजनारायण की याचिका में इंदिरा गांधी पर चुनाव जीतने के लिए भ्रष्ट तरीके अपनाने के आरोप थे। जैसे इंदिरा गांधी ने भारतीय वायुसेना के विमानों और हेलीकाप्टरों का इस्तेमाल किया। मतदाताओं को लुभाने के लिए उपहार दिए गए। चुनाव में तय सीमा से कहीं ज्यादा खर्च किया गया। एक आरोप यह था कि (उस समय) कांग्रेस का चुनाव निशान गाय-बछड़ा लोगों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल है। हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को बाकी सभी आरोपों से तो बरी कर दिया, लेकिन चुनाव के दौरान सात जनवरी 1971 से 24 जनवरी 1971 के बीच अपने सहायक यशपाल कपूर का चुनाव कार्य के लिए इस्तेमाल करना भ्रष्ट आचरण के दायरे में माना। कांग्रेस के मौजूदा वरिष्ठ नेता आरके धवन के मामा यशपाल कपूर उस समय सरकारी नौकरी में गेजेटिड अफसर के पद पर तैनात थे और प्रधानमंत्री के ओएसडी थे। अदालत ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8-ए के तहत इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया और उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला 12 जून 1975 को आया था। ठीक उसी दिन गुजरात विधानसभा के नतीजे आए जिसमें कांग्रेस बुरी तरह हार गई थी।
आज की पीढ़ी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की ओर से 2007 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी को हटाए जाने के बाद पाक में फैले आक्रोश को तो देखा है, लेकिन उसे भारत के उस हालात का जरा अंदाज नहीं, जब देशभर में कांग्रेसी इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे। इंदिरा गांधी के एक, सफदरजंग मार्ग आवास के बाहर कांग्रेसियों का तांता लग गया। उनके समर्थन में नारे-प्रदर्शन शुरू हो गए, जो अगले दिन सुबह तक पूरे देश में लगने लगे थे। कांग्रेसी हिंसक अंदाज से सड़कों पर उतर चुके थे। उस समय दिल्ली में डीटीसी की 1400 बसें हुआ करती थी, कांग्रेस ने उनमें से एक हजार बसें इंदिरा गांधी के समर्थन में भीड़ जुटाने में लगा दी, जिस कारण दिल्ली में दहशत का वातावरण बन गया। इंदिरा गांधी को सलाह दी गई थी कि वह प्रधानमंत्री की कुर्सी अपने किसी वफादार को सौंपकर सुप्रीम कोर्ट से राहत लेने की कोशिश करें। जबकि कुछ लोगों ने उन्हें सलाह दी कि वह हाईकोर्ट का फैसला मानने से इनकार कर दें। इंदिरा गांधी को इस्तीफा देने की सलाह देने वाले समझते थे कि वह उनकी सलाह मान लेगी। इंदिरा के उत्तराधिकारी के रूप में सिध्दार्थ शंकर रे, स्वर्ण सिंह और देवकांत बरुआ के नाम लिए जा रहे थे। लेकिन गुजरात में कांग्रेस की हार को अपने राजनीतिक भविष्य के लिए अशुभ संकेत मान रही इंदिरा गांधी के दिमाग में कुछ और चल रहा था। उन्होंने पद पर बने रहने और कोर्ट को सबक सिखाने का फैसला कर लिया था। इंदिरा गांधी के इशारे पर मंत्रियों का काफिला उनके घर पहुंचने लगा। इंदिरा गांधी ने पद पर बने रहने का फैसला सुना दिया, जिस पर कांग्रेस संसदीय बोर्ड ने उसी दिन मोहर लगा दी।
इंदिरा गांधी के इस फैसले पर जयप्रकाश नारायण ने कहा कि यह न सिर्फ अदालत की अवमानना है बल्कि सार्वजनिक जीवन में शुध्दता के भी खिलाफ है। सभी अखबार इंदिरा गांधी को सलाह दे रहे थे कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक प्रधानमंत्री का पद छोड़ दें, लेकिन उन्होंने 18 जून को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक बुलाकर अपने फैसले पर मोहर लगवा ली। तब जयप्रकाश नारायण ने कहा- 'मुद्दा यह नहीं है कि कांग्रेसी सांसदों की इंदिरा गांधी के नेतृत्व में आस्था है या नहीं, सवाल यह है कि देश में कानून का राज है या नहीं। कोई बड़ा हो या छोटा, कानून सब पर लागू है या नहीं।' लेकिन सारी कांग्रेस अपनी लोकतांत्रिक और नैतिक विरासत को भूलकर इंदिरा गांधी के आगे बौनी हो गई थी। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कहा कि हाईकोर्ट के फैसले से प्रधानमंत्री का नैतिक अधिकार किसी भी तरह कम नहीं होता। इंदिरा गांधी ने अपना व्यक्तिगत मुकदमा अदालत में लड़ने के बजाए 20 जून को अपने पक्ष में विशाल रैली करके अपनी ताकत का इजहार किया।
अपनी ताकत का इजहार करने के बाद इंदिरा गांधी ने 23 जून को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस कृष्णा अय्यर की अदालत में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे लगाने की अर्जी लगाई। जस्टिस अययर ने 24 जून को अपने अंतरिम फैसले में कहा कि जब तक अदालत सुनवाई करके फैसला नहीं करती तब तक वह प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं, इस नाते संसद में भाषण कर सकती हैं, लेकिन न तो लोकसभा में वोट डाल सकती हैं और न ही वेतन ले सकती हैं। यह फैसला इंदिरा गांधी के लिए और भी ज्यादा अपमानजनक था। इसलिए इंदिरा गांधी ने 25 जून की रात को देश में आपातकाल लगाकर देशभर में विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू करा दी। नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए। सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं अपंग कर दी गई, आपात स्थिति के दौरान चुनाव प्रणाली ठप करने के लिए लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ा दिया गया। आपात स्थिति में उन कानूनों को बदल दिया गया जिनके कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला हुआ था। वह 19 महीने लोकतंत्र पर ग्रहण की तरह थे।
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