पाकिस्तान की तरह राजनीतिक दलों को आम चुनाव में मिली सीटों के अनुपात में महिलाओं को मनोनीत करने का अधिकार देकर 33 फीसदी आरक्षण सहजता से लागू किया जा सकता है। राजनीतिक दल सभी वर्गों की महिलाओं को मनोनीत करने की नैतिक जिम्मेदारी से बंध जांएगे।
मनमोहन सरकार ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के लिए तैयार किए पहले अभिभाषण में अपनी सरकार की पहले सौ दिनों में लागू की जाने वाली पच्चीस प्राथमिकताएं गिनाई हैं। इन प्राथमिकताओं में सबसे ज्यादा चर्चा और विवाद संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण को लेकर है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मनमोहन सरकार अपने वादे को पूरा कर पाएगी।
महिला आरक्षण की बात सबसे पहले 1996 के लोकसभा चुनाव में चर्चा का विषय बनी थी। भारतीय जनता पार्टी ने समाज के सभी वर्गों को अपने साथ जोड़ने के लिए बनाई अपनी रणनीति के तहत अपने घोषणापत्र में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया था। कांग्रेस अध्यक्ष और तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र के इसी मुद्दे के कारण अपना घोषणापत्र कुछ दिन स्थगित करना पड़ा था। काफी विलंब के बाद जब घोषणापत्र जारी किया गया तो उसमें संविधान संशोधन करके संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने की बात तो कही गई थी, लेकिन वह कितना होगा, इसका जिक्र नहीं था। स्पष्ट है कि नरसिंह राव का यह फैसला उनके राजनीतिक सामाजिक अनुभव पर आधारित था। वरना भाजपा की नकल करते हुए घोषणापत्र में 33 फीसदी का जिक्र करने से उन्हें क्या आपत्ति होती। विभिन्न राजनीतिक दलों में महिला वोट बैंक को आकर्षित करने की होड़ तभी से शुरू हुई। कांग्रेस और भाजपा की सरकार तो नहीं बनी, लेकिन संयुक्त मोर्चे की देवगौड़ा सरकार ने चार सितंबर 1996 को लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पेश कर ही दिया। उसके बाद 26 जून 1998 और 22 नवंबर 1999 को वाजपेयी सरकार ने भी बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा में 33 फीसदी आरक्षण का बिल पेश किया। मनमोहन सिंह सरकार ने अपना चार साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद छह मई 2008 को लोकसभा की बजाए राज्यसभा में बिल पेश करने की औपचारिकता भर पूरी की। जबकि 1996 के बाद कांग्रेस अपने हर घोषणापत्र में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का वादा कर रही थी। राज्यसभा में बिल पेश करने का एक फायदा है कि अब दुबारा कभी भी बिल पेश करने की जरूरत नहीं, क्योंकि राज्यसभा का कार्यकाल कभी खत्म नहीं होता। मनमोहन सिंह सरकार ने अब पहले सौ दिनों में महिला आरक्षण बिल पर कदम बढ़ाने की बात कही है। इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि उनका इरादा पहले सौ दिनों में बिल पास करवाने का है।
बिल पास करवाने के लिए इससे मुफीद समय और नहीं होगा। महिला आरक्षण के समर्थक तीन प्रमुख दलों कांग्रेस-भाजपा और वामपंथी पार्टियों के पास दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत का बंदोबस्त है। लोकसभा की थोड़ी-बहुत कमी यूपीए और एनडीए के घटक दल पूरी कर देंगे। इसके बावजूद 33 फीसदी आरक्षण पर बात सिरे चढ़ती दिखाई नहीं दे रही। इसकी सबसे बड़ी वजह जनता दल यू, राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी का प्रखर विरोध है। शरद यादव, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव शुरू से ही ऐसे महिला आरक्षण बिल का विरोध कर रहे हैं, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए सब कोटा निर्धारित नहीं किया गया हो। लेकिन संविधान के मुताबिक पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण नहीं दिया जा सकता। ऐसा करने पर संविधान की मूल भावना ही खत्म हो जाएगी। संविधान के अनुच्छेद-325 के मुताबिक हर निर्वाचन क्षेत्र में एक जनरल वोटर लिस्ट होगी। किसी को भी धर्म के आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता। अगर कुछ सीटें अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए सुरक्षित कर दी जाएं, तो यह संविधान की सेक्युलर भावना के खिलाफ होगा। संविधान जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव को भी अमान्य करता है, इसलिए अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण भी संविधान की भावना के खिलाफ होगा। जबकि दूसरी तरफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का आरक्षण उनके साथ सदियों-सदियों से हुए भेदभाव के आधार पर संविधान में लंबी बहस के बाद तय किया गया था। आरक्षण पर हुई बहस के समय संविधान सभा ने जातीय और सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण को पूरी तरह नकार दिया था। वैसे भी महिलाओं को अगर लिंग आधारित आरक्षण देना है, तो उसे जातीय और सांप्रदायिक आधार पर अलग करके नहीं देखना चाहिए।
इन तर्कों के बावजूद लालू यादव, मुलायम यादव और शरद यादव का तर्क आधारहीन नहीं है। उनके इन तर्कों में जमीनी हकीकत छुपी हुई है कि 33 फीसदी महिला आरक्षण से ऊंची जाति और राजनीतिक प्रभाव वाली शहरी महिलाओं को लाभ होगा। भारत के परिवार आधारित लोकतंत्र को देखते हुए इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता। हम देखते हैं कि आजादी के बाद सिर्फ सौ ही ऐसे परिवार राजनीतिक तौर पर सक्षम हुए हैं, लोकतंत्र आखिरी आदमी तक नहीं पहुंच सका। सौ ही ऐसे परिवार हैं जिनके दादा से लेकर पोते तक लोकसभा, विधानसभा और पंचायतों के सदस्य बने हैं। पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण होने के बाद जिस तरह हमने 'सरपंच पति' का नया शब्द सुना है, उसने पुरुष प्रधान समाज की हकीकत सबके सामने उजागर कर दी है। अनेक जगहों पर ऐसा देखने में आया है कि बैठकों में महिला सरपंच की बजाए उसका पति शामिल होता है। उसे एसपी (सरपंच पति) कहा जाता है। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में करीब सौ सांसद ऐसे चुने गए हैं, जिनके पिता या दादा सांसद रहे हैं। दो दर्जन मंत्री ऐसे बने हैं, जिनके पिता या दादा मुख्यमंत्री, सांसद या केन्द्र में मंत्री रहे हैं। इसलिए तीनों यादव नेताओं की इस आशंका को निराधार नहीं माना जाना चाहिए कि नेताओं के टिकट कटने पर उनकी पत्नियों, बेटियों, बहुओं को टिकट मिलेगा। ऐसा होने पर महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य कितना पूरा होगा, यह कहना कठिन है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि महिला आरक्षण लागू नहीं होना चाहिए। हम सक्रिय राजनीतिक महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी का दरवाजा दूसरे तरीके से भी खोल सकते हैं। सबसे निकट उदाहरण हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान का है। जहां भारत में आजादी के पचास साल बाद महिला आरक्षण पर पहली बार राजनीति गर्म हुई, वहां पाकिस्तान में उसके निर्माण के समय से ही किसी न किसी तरह महिला आरक्षण लागू है। 1956 में लागू हुए संविधान में राष्ट्रीय एसेंबली में दस सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई। जनवरी 1999 में बेनजीर भुट्टो ने राष्ट्रीय एसेंबली में चालीस, सीनेट में नौ और प्रांतीय एसेंबलियों में बीस फीसदी सीटें आरक्षित करने का बिल पास करवाया। इसके तीन साल बाद 2002 में कानून में फिर संशोधन करके राष्ट्रीय एसेंबली में महिलाओं के लिए 60 सीटें आरक्षित की गई। यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस समय पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली में 71 (ग्यारह महिलाएं आम चुनाव में चुनी गई) और प्रांतीय एसेंबली में 128 महिला सदस्य हैं। लेकिन पाकिस्तान में महिलाओं को सीधे चुनाव नहीं लड़ना पड़ता। आम चुनाव में मिली सीटों के अनुपात में राजनीतिक दलों को अपनी पार्टी की राजनीतिक महिला कार्यकर्ताओं को नियुक्त करने का अधिकार होता है। हाल ही के नेशनल एसेंबली के चुनाव को लें, तो 94 सीटें जीतने वाली पीपीपी ने 23 और पीएमएल ने 17 महिलाएं मनोनीत की हैं। इसी तरह अल्पसंख्यक मेंबर भी आम चुनाव में मिली सीटों के आधार पर मनोनीत करने का अधिकार मिलता है। अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षित दस सीटों में से चार पीपीपी, तीन पीएमएल-एन, दो पीएमएल-क्यू और एक एमक्यूएम ने मनोनीत की है।
महिला आरक्षण लागू करने के लिए जिन दो-तीन फार्मूलों पर विचार किया जा रहा है, उनमें से मौजूदा 33 फीसदी आरक्षण के बिल के अलावा राजनीतिक दलों के लिए 33 फीसदी टिकटें महिलाओं के लिए देना और लोकसभा-विधानसभाओं की 33 फीसदी सीटें बढ़ाकर महिलाओं के लिए आरक्षित करने का फार्मूला शामिल है। सीटें बढ़ाए जाने पर देश की 33 फीसदी सीटें दो सदस्यीय हो जाएंगी। एक फार्मूला फिलहाल बीस से पच्चीस फीसदी पर आम सहमति बनाने का भी है। लेकिन अगर सीटें बढ़ाने वाले फार्मूले पर ही सहमति होती है, तो सीधे चुनाव करवाने की बजाए पाकिस्तान का फार्मूला लागू करना ज्यादा हितकर होगा। क्योंकि ऐसा होने पर राजनीतिक दल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक महिलाओं का अनुपात तय करने की नैतिक जिम्मेदारी से बंध जाएंगी। सामाजिक न्याय की दृष्टि से यह फार्मूला सबसे ज्यादा कारगर हो सकता है। लगभग राज्यसभा सदस्यों के चयन जैसे इस फार्मूले पर राजनीतिक सहमति बनाने में भी कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी, क्योंकि बिल का विरोध कर रहे राजनीतिक दल मूल रूप से महिला आरक्षण के खिलाफ नहीं हैं।
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