जो युवा राहुल गांधी के लिए पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं, उनके सपने साकार नहीं हुए, तो वे सूपड़ा साफ करने में भी देर नहीं लगाएंगे। कांग्रेस की एक गलती उसे भारी पड़ सकती है।
पंद्रहवीं लोकसभा के साथ संसदीय इतिहास का नया अध्याय शुरू हुआ है। राजीव गांधी प्रचंड जीत के बाद पिछले बीस साल से संसद में भारी राजनीतिक टकराव का वातावरण बना रहा। छह साल सत्ता में रहने के बाद लगातार दूसरी हार ने भाजपा को हताश कर दिया है। वह अब टकराव का रास्ता छोड़ती हुई दिखाई दे रही है। अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर लोकसभा की 414 सीटें जीतकर ले आए थे। विपक्ष की हालत 1952 से भी बुरी हो गई थी, जब देश का पहला लोकसभा चुनाव हुआ था। राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में अपनी मां की ओर से विरासत में मिली पंजाब, मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर जैसी अनेक समस्याओं को हल करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए थे। पड़ोसी देश चीन के साथ संबंध सुधारने के लिए उन्होंने खुद चीन का दौरा किया। ऐसे समय में जब सोवियत संघ का टूटना साफ दिखाई देने लगा था राजीव गांधी ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को जिंदा रखने की कोशिश की थी। उन्होंने देश को एहसास दिलाया था कि युवा नेतृत्व चाहे तो क्या कुछ कर सकता है,
लेकिन उनके इर्द-गिर्द ऐसे स्वार्थी तत्वों का जमावड़ा हो गया था, जिससे वह बच नहीं सके। हर हफ्ते उनके परिवार के साथ शाम बिताने वाले इटली मूल के व्यापारी ओतोवियो क्वात्रोची ने राजीव से नजदीकी का भरपूर फायदा उठाया। हम सब जानते हैं कि किसी महत्वपूर्ण सरकारी पद पर बैठे व्यक्ति के नजदीकी लोगों की भी सरकारी अमले पर कैसी पैठ होती है। बोफोर्स तोप सौदे की दलाली क्वात्रोची की राजीव गांधी से नजदीकी का ही नतीजा था। चौंसठ करोड़ रुपए की दलाली ने राजीव गांधी की सारी लोकप्रियता मटियामेट कर दी। उन्हें अपना पांच साल का कार्यकाल भी पूरा करना मुश्किल हो गया था। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह उनके खिलाफ हो गए थे, उन्हीं की सरकार के वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह घर के भेदी बनकर लंका ढहाने में लग गए थे। बोफोर्स दलाली कांड ने कांग्रेस को 414 से 197 पर पहुंचा दिया था। आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दिया जाए तो संसदीय इतिहास में कांग्रेस की इतनी बुरी हालत कभी नहीं बनी थी। लोग आपातकाल के जुल्म-ओ-सितम से इतने खफा थे कि उन्होंने इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने का बीड़ा उठाकर वोट किया था। कांग्रेस सिर्फ 154 सीटों पर अटक गई थी। ये सीटें भी दक्षिण की बदौलत मिली थी, पूरे उत्तर और मध्य भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था।
इसलिए कांग्रेस को इस बात का घमंड नहीं होना चाहिए कि पांच साल के बाद जनता ने उसे पहले से ज्यादा सीटें देकर सत्ता में पहुंचाया है। जनता ने अभी भी उसे सिर्फ 206 सीटें सौंपी हैं, जो बहुमत से 66 सीटें कम हैं। देश को दो धु्रवीय राजनीति की ओर ले जाने के अपने प्रयासों को सफल मान रही भारतीय जनता पार्टी को चुनाव नतीजों से गहरा झटका लगा है। वह खुद को सत्ता के जितना नजदीक समझ रही थी, उतना ही दूर हो गई है। पंद्रहवीं लोकसभा के शुरूआत में विपक्ष वैसे ही हताश और निराश है जैसे 1984 के चुनाव नतीजों के बाद था। राजीव गांधी के शासनकाल में विपक्ष की हताशा तीन साल तक बनी रही। तीन साल बाद 1987 में जब स्वीडन रेडियो ने बोफोर्स तोपों में दलाली का खुलासा किया तो विपक्ष में जान आई थी। अब विपक्ष की हालत 1984 जैसी खस्ता नहीं है। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी हताशा छुपाते हुए पांच जून को लोकसभा में कहा- 'हम हारे जरूर हैं, हमारी तादाद 138 से घटकर 116 हो गई है, लेकिन 116 सांसदों की तादाद कम नहीं होती।' उन्होंने सही कहा है विपक्ष इस बार 1984 जैसा कमजोर नहीं है, भले ही वह सरकार गिराने की स्थिति में कभी नहीं आएगा लेकिन सरकार को फूंक-फूंककर कदम रखना होगा। वह किसी दलदल में फंस गई तो उसे याद रखना चाहिए कि 414 सीटों का अपार बहुमत होने के बावजूद राजीव गांधी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए थे। बोफोर्स दलाली पर जब आपसी मतभेदों के बावजूद समूचे विपक्ष ने इस्तीफा दे दिया था तो उन्हें कुछ महीने पहले ही लोकसभा चुनाव करवाने पड़े थे। तब कांग्रेस को देश की जनता ने 50 फीसदी वोट दिए थे फिर भी उन्हें वक्त से पहले चुनाव करवाने पड़े इस बार तो सिर्फ साढ़े अठाईस फीसदी वोट मिले हैं। इसके बावजूद कांग्रेस घमंड के रथ पर सवार हो चुकी है। इसीलिए राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने अपने पहले भाषण में कांग्रेस को घमंड से दूर रहने की सलाह दी है।
कांग्रेस अति उत्साह में मनमानी नीतियां अपनाने लगी तो जिन युवाओं ने राहुल गांधी के लिए पहल पांवड़े बिछाए हैं, उन युवाओं को कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने में कोई देर नहीं लगेगी। नई सरकार के सामने सबसे बड़ी जिम्मेदारी पिछले पांच साल में विकास के कार्यों में आई कमजोरी को दूर करने की है। जनता ने यह समझकर कांग्रेस को मजबूत किया है कि पिछली बार वामपंथियों ने उसके हाथ बांध दिए थे। लेकिन इस बार जनता ने वामपंथियों के हाथ बांध दिए हैं, ताकि वे विकास के रास्ते में अड़चनें पैदा न कर सकें। राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकार ने खुद माना है कि पिछले पांच सालों में विकास के काफी कार्य अवरुध्द हुए थे, हालांकि इसकी वजह पिछले दो साल की आर्थिक मंदी बताया गया है। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री भले इनकार करें, लेकिन आर्थिक मंदी का असर भारत पर भी कम नहीं पड़ा है। बेरोजगारी के कारण हम पंजाब में आतंकवाद झेल चुके हैं, कश्मीर के आतंकवाद में शामिल स्थानीय युवाओं की हिस्सेदारी का कारण भी बेरोजगारी पाया गया है। नक्सलवाद आंदोलन की जड़ में भी बेरोजगारी है, लेकिन ताजा आर्थिक मंदी का असर तकनीकी तौर पर शिक्षित युवाओं पर पड़ रहा है। आशंका है कि जिस तरह आर्थिक तंगी के कारण पिछले आठ-दस वर्षो में लाखों किसानों ने आत्म हत्या की है, उसी तरह बड़ी तादाद में पढ़े-लिखे निराश युवक भी आत्म हत्या न करने लगें। सरकार को जल्दी से जल्दी इस समस्या का हल ढूंढना होगा। युवा वोटरों के भरोसे 206 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस की सबसे बड़ी जिम्मेदारी इन्हीं पढ़े-लिखे युवाओं के प्रति है। जब तक इस समस्या का निदान न हो, तब तक इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट जैसी तकनीकी डिग्रियां हासिल करने वाले बेरोजगारों को बेरोजगार भत्ता शुरू किया जाना चाहिए। सरकार नागरिक रजिस्टर तो जब बनाएगी, तब बनाएगी। कम से कम पिछले दो वर्षों में डिग्रियां हासिल करने वालों का डाटा तैयार किया जाना चाहिए। इस काम में ज्यादा मशक्कत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। एक वेबसाइट खोल कर डिग्री धारकों को रजिस्टर करने के लिए कह दिया जाए, बाकी काम तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवक खुद कर लेंगे। कंपनियों से भी कहा जाए कि वे पिछले दो सालों में भर्ती किए गए इंजीनियरों और मैनेजमेंट डिग्रीधारकों का ब्योरा वेबसाइट में जमा कराएं।
राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकार ने अपनी प्राथमिकताएं गिना दी हैं। ये सभी प्राथमिकताएं सामाजिक विकास से जुड़ी हुई हैं लेकिन इसमें दो बड़े मुद्दे छूट गए हैं। स्विस बैंकों में जमा काले धन को तीव्र गति से वापस लाने की कोशिश और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने की बात। बोफोर्स तोप सौदे की दलाली के केस को खत्म करने की सफलता के बाद भी चुनाव जीत लेने से कांग्रेस को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि भ्रष्टाचार देश के सामने मुद्दा नहीं है। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन गुजरात की भ्रष्ट कांग्रेसी सरकार के कारण ही शुरू हुआ था, जो बाद में बिहार से होता हुआ पूरे देश में फैल गया था। इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए आपातकाल लगाया, इसके बावजूद 1977 में वह अपनी कुर्सी बचा नहीं सकी थी। जनता पार्टी विचारों की आपसी फूट के कारण बहुमत के बावजूद सरकार नहीं चला सकी तो ऐसा माना जा रहा था कि गैर कांग्रेसी दलों को सरकार चलानी नहीं आती और इन्होंने जय प्रकाश नारायण का सपना चकनाचूर कर दिया। लेकिन 1987 में बोफोर्स घोटाला सामने आया तो देश की उसी जनता ने कांग्रेस को बेदखल करके सत्ता एक बार फिर उन्हीं कांग्रेस विरोधियों को सौंप दी थी।
पंद्रहवीं लोकसभा के गठन से बीस साल का संक्रमण काल निकल चुका है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने पूरा चुनाव नकारात्मक आधार पर लड़कर सबक सीखा है। वह सकारात्मक विपक्ष की भूमिका में आती दिखाई दे रही है। लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद भाजपा में विचारधारा के स्तर पर भी मंथन चल रहा है। देर सबेर लालकृष्ण आडवाणी विपक्ष के नेता की भूमिका से अलग होकर दूसरी पीढ़ी को कमान सौंप देंगे। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली पर बाबरी ढांचे जैसा कोई दाग-धब्बा भी नहीं लगा हुआ। भाजपा के विवादास्पद मुद्दों से भी दूसरी पीढ़ी को उतना प्रेम नहीं है, क्योंकि विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे कट्टरपंथी संगठनों से भाजपा का भी मोह भंग हो चुका है। भाजपा का चेहरा, चरित्र बदलने पर कांग्रेस को ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत होगी। उसकी एक गलती विपक्ष को एकजुट कर सकती है। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि विपक्ष जब-जब एकजुट हुआ है उसे सत्ता से हाथ धोना पड़ा है। अब तो उसके पास सिर्फ 28 फीसदी वोटरों का समर्थन है और उसकी अल्पमत सरकार को समर्थन दे रहे मुलायम सिंह, लालू यादव, करुणानिधि कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले हैं।
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