भाजपा के दो पावर सेंटर पार्टी की हार का कारण बने। कांग्रेस खुद को और मजबूत करने में लगी है, जबकि भाजपा अभी भी गुटबाजी का शिकार। चेहरे और चाल के साथ चरित्र भी बदलना होगा भाजपा को। भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को छोड़कर राजनीतिक राष्ट्रवाद अपनाए, तो उसका आधार ज्यादा व्यापक हो सकता है।
मनमोहन सिंह का मंत्रिमंडल बन जाने के बाद अब सोनिया गांधी का ध्यान कांग्रेस की तरफ लग गया है। इस बार कांग्रेस संगठन के बदलाव में राहुल गांधी की अहम भूमिका होगी। राहुल गांधी ने अपने भारत दर्शन के दौरान संगठन के ढांचे और पदों पर बैठे नेताओं की कार्यशैली को बारीकी से देखा है। सरकार बन जाने के बाद राहुल गांधी अपना भारत दर्शन फिर से चालू करने वाले हैं। उनके इस बार के भारत दर्शन में काफी बदलाव देखने को मिलेगा। वह जहां भी जाएंगे उनका स्वागत 1975 से 1977 के समय हुए संजय गांधी के स्वागत की याद ताजा करेगा। अब वह उतने ही ताकतवर हो गए हैं, जितने उस समय संजय गांधी हो गए थे।
मेरा यहां मतलब राहुल गांधी की तुलना संजय गांधी से करने का नहीं। संजय गांधी वाले कुछ गुण उनके बेटे वरुण में दिखाई देने लगे हैं। आपातकाल में संजय गांधी की छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की बननी शुरू हो गई थी। मुस्लिम आबादी वाले तुर्कमान गेट इलाके में अवैध इमारतों को ढहाए जाने के कारण उनकी ऐसी छवि बनी थी। पीलीभीत का चुनाव लड़ते हुए वरुण ने बिल्कुल वैसी ही छवि बना ली है। जहां मैं एक ओर राहुल गांधी की कांग्रेस पर पकड़ मजबूत होती देख रहा हूं, वहां वरुण की भाजपा पर पकड़ कमजोर होती देख रहा हूं। जबकि भाजपा का एक वर्ग उन्हें अपने गांधी के रूप में देखने को उत्सुक था।
चुनावों में हार के बाद भाजपा के संगठन में भी बदलाव की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। हैरानी की बात है कि भाजपा में हार का कोई असर दिखाई नहीं दे रहा। पार्टी काडर में भारी निराशा व्याप्त है, लेकिन नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी और राजनाथ खेमो में ही बंटा हुआ नहीं है। दोनों के उप खेमे भी सक्रिय हैं। अंदर ही अंदर बदलाव की जरूरत सभी महसूस कर रहे हैं, लेकिन सबकी निगाह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर लगी हुई है। हार का रुझान देखते ही लालकृष्ण आडवाणी ने विपक्ष का नेता पद त्यागने का ऐलान कर दिया था। वैसे वह चौंदहवीं लोकसभा में विपक्ष के नेता थे, जिसका कार्यकाल तीन दिन बाद खत्म हो रहा था। पंद्रहवीं लोकसभा के लिए संसदीय दल का नेता बाद में चुना जाना था, जैसा कि 31 मई को उन्हें चुना गया। आडवाणी ने उस पद से इस्तीफे का ऐलान किया था, जिसका अभी चुनाव होना था। लेकिन ऐसा करके उन्होंने एक तरह से हार की जिम्मेदारी खुद पर ले ली। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को हार की जिम्मेदारी ओढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी। हालांकि पार्टी की हार के लिए अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार दोनों ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि चुनावों से पहले और चुनावों के दौरान भी दोनों एक-दूसरे पर भरोसा करके मैदान में नहीं उतरे थे। यह विडंबना ही है कि यूपीए सरकार में दो पावर सेंटर बनने का आरोप लगाने वाली भाजपा में दो पावर सेंटर बन गए थे। दो पावर सेंटर का जिम्मेदार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही है, जिसने पहले जिन्ना प्रकरण पर आडवाणी को इस्तीफा देने को मजबूर किया और बाद में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनवा दिया। अब राजनाथ खेमा आडवाणी खेमे पर चुनावी रणनीति में खोट का आरोप लगाकर ठीकरा फोड़ रहा है और आडवाणी खेमा राजनाथ सिंह पर तरह-तरह के आरोप लगा रहा है। एक-दूसरे पर गहरे अविश्वास का असर चुनाव पर पड़ा। लालकृष्ण आडवाणी गैर राजनीतिक सलाहकारों से घिरे हुए थे, जिन्होंने प्रचार की सकारात्मक दिशा को नकारात्मक रूप दे दिया। आडवाणी जब राजनीति के शिखर पर थे, तो उनके सलाहकार प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडु और अरुण जेटली जैसे राजनीतिक लोग हुआ करते थे। इस चुनाव में उनके इर्द-गिर्द कोई भी राजनीतिक चेहरा दिखाई नहीं दिया, जो नकारात्मक होते चुनाव प्रचार को पटरी पर लाने की सलाह देता।
जीतने वाले को कभी चुनाव की समीक्षा करने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन हारने वाले को हार के कारण खोजने के लिए गंभीर समीक्षा की जरूरत पड़ती है ताकि संगठन या अन्य कमियों को दूर किया जा सके। यहां उलटा हो रहा है जीतने वाली कांग्रेस अपने सांगठनिक ढांचे को और मजबूत करने में जुट गई है और भाजपा नेता एक-दूसरे पर दोषारोपण में व्यस्त है। यह तो तय है कि लालकृष्ण आडवाणी का विपक्ष के नेता पद पर चुना जाना अस्थाई बंदोबस्त है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने दूसरी पीढ़ी में संभावित टकराव को टालने के लिए फिलहाल उन्हें पद पर बने रहने के लिए राजी किया है। अब इसी साल के आखिर में भाजपा अध्यक्ष के साथ-साथ विपक्ष का नया नेता भी चुन लिया जाएगा। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या सिर्फ चेहरे बदलने से भाजपा के अच्छे दिन लौट आएंगे। भाजपा का एक खेमा यह महसूस कर रहा है कि चेहरा चरित्र और चाल बदलनी होगी, तभी दुबारा सत्ता हासिल की जा सकती है। अस्सी के दशक में गोविंदाचार्य भाजपा का चेहरा, चरित्र और चाल बदलने की बात किया करते थे। वह निम्न जातियों को अपने साथ जोड़कर पार्टी पर से ब्राह्मण-ठाकुर-बनिए का वर्चस्व तोड़ना चाहते थे। पार्टी को उसमें सफलता भी हाथ लगी। जब 1984 के चुनाव में उसकी सीटें दो से बढ़कर 1989 में 85 हो गई। ठीक उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने हिंदू मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए पालमपुर अधिवेशन में राम जन्मभूमि आंदोलन को पार्टी के एजेंडे में शामिल कर लिया। राम जन्मभूमि आंदोलन से भावनात्मक हिंदू वोट एकजुट होकर भाजपा के पाले में आ गया, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की रामरथ यात्रा से पैदा हिंदू जागृति के बावजूद 1991 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 120 पर अटक गई। भाजपा ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन को और तेज किया। परिणामस्वरूप छह दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा टूट गया लेकिन हिंदू भावनाओं के चरम उत्थान के बावजूद भाजपा 1996 में 161 सीटों पर अटक गई। हिंदू वोट बैंक के आधार पर मिलने वाली यह अधिकतम सीटें थी। वह 1998 में 182 सीटें लाकर दूसरे दलों के सहयोग से सत्ता तक इसलिए पहुंच सकी क्योंकि उसने आडवाणी-जोशी को किनारे करके उदारवादी छवि के अटल बिहारी वाजपेयी को आगे किया। संघ का प्रचारक होने के बावजूद वाजपेयी कभी आरएसएस की पसंद नहीं थे, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश के सभी समुदायों का प्यार हासिल किया।
वाजपेयी के बाद भाजपा और संघ परिवार को वैसे ही उदारवादी चेहरे की तलाश है जो पार्टी को फिर सत्ता तक पहुंचा सके। आडवाणी के बाद अब मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू, नरेंद्र मोदी आदि में ऐसी कोई संभावना नहीं है। ले-देकर सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ही बचते हैं जिनकी छवि अच्छे और उदारवादी नेताओं की है। यह संभावना वरुण गांधी में देखी जा सकती थी जो पिछले पांच वर्षों में राहुल गांधी के मुकाबले ज्यादा परिपक्व और राजनीतिक गुणों वाले दिखाई दे रहे थे। लेकिन इन लोकसभा चुनावों में अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि बनाकर वरुण गांधी ने अपने राजनीतिक भविष्य पर अलीगढ़ का बड़ा ताला ठोक लिया है। नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी हिंदू वोट बैंक को ही प्रभावित कर सकते हैं, जिनकी संख्या बदले परिवेष में घटती जा रही है। भाजपा को सिर्फ अपने चेहरे ही नहीं बदलने होंगे, वाजपेयी जैसा एक मुखौटा भी ढूंढना होगा। लेकिन सिर्फ चेहरा नहीं, चरित्र और चाल भी बदलनी होगी। हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर भाजपा 161 तक गई थी, हिंदुओं का विश्वास खोने के बाद और वाजपेयी के बिना 116 पर आ गई है। वाजपेयी का चेहरा इस चुनाव में भी भाजपा को ज्यादा सीटें दिला सकता था, लेकिन उनके चेहरे तक का इस्तेमाल नहीं किया गया। बिना वाजपेयी के यही है भाजपा का अपना अंतिम आंकड़ा, मौजूदा चरित्र और चाल पर भाजपा इससे नीचे ही जाएगी इससे ऊपर नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने छह साल के शासनकाल में विकास पुरुष की छवि बनाई थी। पांच साल वामपंथियों की झूलती वैसाखियों पर आधारभूत ढांचे में विफलता के बाद अब मनमोहन सिंह की नई सरकार वाजपेयी के अधूरे कामों को पूरा करने की दिशा पकड़ रही है। वाजपेयी ने अपने छह साल के कार्यकाल में राम जन्मभूमि आंदोलनकारियों को पास तक नहीं फटकने दिया। इसीलिए वाजपेयी सफल प्रधानमंत्री के रूप में नाम कमा सके।
यह भाजपा के सोचने का समय है कि उसे धार्मिक संगठन की तरह काम करना है या राजनीतिक संगठन की तरह। भाजपा गुरु गोलवलकर की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और वीर सावरकर की राजनीतिक राष्ट्रवाद की सोच में झूल रही है। वीर सावरकर का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से इसी मुद्दे पर गहरा मतभेद था। सावरकर को नहीं समझने वाले उन्हें घोर सांप्रदायिक कहते हैं, लेकिन वह भाजपा जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नहीं अलबत्ता राजनीतिक राष्ट्रवाद के हिमायती थे। तो क्या भाजपा को राम जन्मभूमि मंदिर को अपने एजेंडे से निकालकर शुध्द विकासवादी राजनीतिक पार्टी बनना चाहिए। भाजपा ने जिस तरह हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान के नारे से किनारा करके दक्षिण के कर्नाटक राज्य में सत्ता हासिल कर ली है, उसी तरह राम जन्मभूमि और 370 जैसे मुद्दे छोड़कर वह फिर से देश की सत्ता हासिल कर सकती है।
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