आडवाणी और जसवंत सिंह अपनी आत्मकथाओं में ज्यादा पारदर्शिता दिखाते, तो उनके प्रतिद्वंदी कांग्रेस को हर चुनाव में कंधार का सवाल उठाने का मौका न मिलता। सर्वदलीय बैठक में भी यात्रियों की सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात कही गई थी।
पूर्व विदेश मंत्री और दार्जिलिंग से भाजपा के उम्मीदवार जसवंत सिंह ने कंधार विमान अपहरण पर अपने ताजा बयान में कोई नया खुलासा नहीं किया। राजनीति और देश की घटनाओं पर निगाह रखने वाला हर जागरूक नागरिक पहले से जानता था कि लालकृष्ण आडवाणी आतंकवादियों को छोड़ने के हक में नहीं थे। सिर्फ आडवाणी ही क्यों, केन्द्रीय मंत्रिमंडल का हर सदस्य यात्रियों के बदले आतंकवादियों को छोड़ने के हक में नहीं था। जब यह घटना हुई थी, और सरकार ने तीन आतंकवादियों को छोड़कर 161 विमान यात्री मुक्त कराने का मन बनाया था तो लालकृष्ण आडवाणी बेहद खफा थे। उन्होंने गृहमंत्री के पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया था और अपने मन की बात अपने अंतरंग लोगों के सामने प्रकट भी कर दी थी। संभवत: अपनी नाराजगी का इजहार उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के सामने भी किया होगा। लेकिन उन्होंने अपनी किताब 'माई कंट्री, माई लाइफ' में इसका जिक्र न करके अपनी आत्मा की आवाज को 1999 की तरह 2008 में भी दबाए रखा।
ऐसा नहीं है कि लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में इस विषय को अनछुआ छोड़ दिया हो। उन्होंने बड़े विस्तार से इस घटना और उन हालात का जिक्र किया है, जिनमें तीन आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा। वह लिखते हैं कि अपहरणकर्ताओं ने 36 आतंकवादियों और 200 मिलियन डालर की मांग रखी थी। सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी ने आईबी के वरिष्ठ अधिकारी अजित दोवल, विदेश मंत्रालय के अधिकारी विवेक काटजू और रॉ के अधिकारी सीडी सहाय को अपहरणकर्ताओं से बातचीत करने के लिए कंधार भेजा था। लंबी बातचीत के बाद अपहरणकर्ता तीन आतंकवादियों को छोड़ने की मांग पर अड़ गए थे। वह लिखते हैं कि शुरू में वह यात्रियों की रिहाई के बदले आतंकवादियों को छोड़ने के हक में नहीं थे। लेकिन एक तरफ तो विमान के कंधार पहुंचने से सरकार गंभीर संकट में फंस गई थी क्योंकि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के साथ भारत के कूटनीतिक संबंध नहीं थे तो दूसरी तरफ देश में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा हो गई थी। देश के भीतर से सरकार पर दबाव बनाया जा रहा था कि यात्रियों को छुड़ाने के लिए कुछ किया जाए। संकट जब तीसरे दिन में पहुंचा तो अपहृत विमान में सवार यात्रियों के रिश्तेदारों ने प्रधानमंत्री के घर के बाहर उन्मादी प्रदर्शन शुरू कर दिए। आडवाणी ने लिखा- 'मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि इन प्रदर्शनों को भाजपा के राजनीतिक विरोधी हवा दे रहे थे। कुछ टेलीविजन चैनलों ने इन प्रदर्शनों को चौबीस घंटे दिखाकर विमान यात्रियों को छुड़वाने के लिए वातावरण बनाने का काम किया। टीवी चैनलों ने इस तरह का वातावरण बनाया कि जब भारतीय यात्रियों की जिंदगी खतरे में है तो सरकार कुछ नहीं कर रही। मैं हैरान था, आमतौर पर कहा जाता है कि भारत एक 'साफ्ट स्टेट' है, पर क्या भारतीय समाज भी 'साफ्ट समाज' हो जाए।' उन्होंने अपनी आत्मकथा में यह भी लिखा है कि एक तरफ प्रदर्शन और भारतीय समाज का दबाव था तो दूसरी तरफ अपहरणकर्ताओं की ओर से हताशा में कदम उठाए जाने की आशंका भी थी। ऐसे हालात में सरकार ने तीन आतंकवादियों को छोड़ने का फैसला लिया।
लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र नहीं किया कि वह जसवंत सिंह के उस विमान में जाने के खिलाफ थे और उन्हें इसकी जानकारी आखिरी वक्त में मिली थी। उन्होंने यह बात अपनी आत्मकथा छपने के बाद एक सवाल के जवाब में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता के साथ इंटरव्यू में कही थी। जसवंत सिंह के उसी विमान में आतंकवादियों के साथ जाने का फैसला कब और कहां हुआ, इस बात का जिक्र जसवंत सिंह ने भी अपनी किताब 'ए काल टू आनर' में नहीं किया है। हालांकि उन्होंने अपनी इस किताब में इस घटना का विस्तार से जिक्र किया है। जिस तरह आडवाणी ने अपनी किताब में आतंकवादियों को छोड़ने पर अपनी नाराजगी और इस्तीफा देने का मन बनाने का जिक्र नहीं किया, उसी तरह जसवंत सिंह ने भी आडवाणी की नाराजगी का कोई जिक्र नहीं किया। उन्होंने जो बात अब कही है, उसका खुलासा अपनी किताब में करते तो विश्वसनीय ज्यादा बढ़ती। अब खुलासा करके उन्होंने खुद ही अपनी किताब की विश्वसनीयता घटा दी है। दोनों ही पूर्व मंत्रियों ने कंधार विमान अपहरण से जुड़े कुछ तथ्य अपनी आत्मकथाओं से छुपाकर अपनी लेखनी के साथ इंसाफ नहीं किया। जसवंत सिंह ने तो उस समय आडवाणी के बयान को विवादास्पद बना दिया था, जब उन्होंने कहा था कि उनके उसी विमान में जाने की जानकारी उन्हें पहले नहीं थी। आडवाणी ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें इस बात की जानकारी तब मिली थी, जब जसवंत सिंह विमान पर चढ़ चुके थे। इसके जवाब में जसवंत सिंह ने कहा था कि उनके जाने का फैसला सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी में हुआ था, मुझे याद नहीं कि आडवाणी उस बैठक में मौजूद थे या नहीं। जसवंत सिंह ने अपनी किताब में इसका जिक्र किया होता तो उनकी बात में विश्वसनीयता होती, जबकि इस घटनाक्रम के दूसरे पहलू का जिक्र उन्होंने अपनी किताब में किया है। जसवंत सिंह ने लिखा है - 'अपहरणकर्ताओं से बातचीत कर रहे तीनों अधिकारियों का कहना था कि आतंकवादियों को मुक्त करते समय अपहरणकर्ताओं ने कोई नई मांग रख दी, या कुछ ऐसे हालात पैदा हो गए, जिनमें त्वरित फैसला लेना जरूरी हो, तो इसके लिए फैसला लेने वाला महत्वपूर्ण व्यक्ति मौजूद रहना चाहिए।' उनका यह भी कहना है कि जब यह बात हुई, तो उन्होंने खुद वहां मौजूद रहने की पेशकश की थी, जिस पर बृजेश मिश्र और प्रधानमंत्री ने सहमति दी। लेकिन अगर यह हुआ भी था तो जसवंत सिंह का उसी विमान पर कंधार जाना कतई उपयुक्त नहीं था, जिसमें आतंकवादियों को छोड़ने के लिए ले जाया जा रहा था। उनके उसी विमान में जाने का फैसला तो किसी बैठक में नहीं हुआ था। जसवंत सिंह अपनी किताब के कंधार प्रकरण से जुड़े अध्याय- 'ट्रबल्ड नेबर, टरबूलेंट टाइम्स 1999' में लिखते हैं- 'मैं नहीं जानता कि अपने इस मिशन को क्या नाम दूं- बचाव मिशन, तुष्टिकरण का प्रयास, घुटने टेकने की उड़ान या भविष्य की उड़ान। सरकार के पास उपलब्ध विकल्पों पर विचार किया गया। हमारे सामने तीन आतंकवादियों का सवाल था, तो 161 यात्रियों का भी सवाल था, जिनमे आदमी, औरतें और बच्चे शामिल थे। क्या यह ठीक है? क्या यह गलत है? क्या यह घुटने टेकना है? क्या है? शुरू में मैं किसी तरह घुटने टेकने के खिलाफ था। फिर धीरे-धीरे जैसे दिन बीते, देशभर से दबाव बढ़ने लगा, तो मैं बदलने लगा। अंतत: मैं विमान को छुड़ाने और उसमें बैठे 161 यात्रियों को छुड़ाने कंधार गया।'
लालकृष्ण आडवाणी और जसवंत सिंह दोनों ने अपनी आत्मकथाओं में उस सर्वदलीय बैठक का विस्तार से खुलासा नहीं किया, जिसमें सभी राजनीतिक दलों ने अपनी राय दी थी। हालांकि राजनीतिक दलों की यह राय प्रस्ताव के रूप में उसी समय सार्वजनिक हो गई थी। अब जसवंत सिंह ने अपने ताजा खुलासे में दो बातें कही हैं, पहली तो यह कि लालकृष्ण आडवाणी, अरुण शौरी और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला आखिर तक आतंकवादियों को छोड़ने के हक में नहीं थे। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उन्हें आडवाणी से बातचीत करने के लिए कहा था। आखिर आडवाणी मंत्रिमंडलीय सहयोगियों की राय से सहमत हो गए। दूसरी बात उन्होंने यह कही है कि कांग्रेस ने सर्वदलीय बैठक में यात्रियों की सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात कही थी। यह दूसरी बात लालकृष्ण आडवाणी ने भी हाल ही में एक इंटरव्यू में कही है। आतंकवादियों को छोड़ने का फैसला गलत माना जा सकता है, लेकिन उस समय कोई भी इसे गलत ठहराने को तैयार नहीं था, इसलिए आज इसे राजनीतिक मुद्दा बनाना शोभा नहीं देता। यूपीए सरकार ने नीतिगत फैसला किया है कि विमान अपहरण की हालत में अपहरणकर्ताओं के साथ किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया जाएगा। अगर यही दो टूक राय कांग्रेस उस सर्वदलीय बैठक में ही रख देती, तो भारी दबाव के बावजूद एनडीए सरकार की 161 यात्रियों के बदले तीन आतंकवादी छोड़ने की हिम्मत नहीं होती। बार-बार 200 करोड़ डालर देने का सवाल उठाना भी राजनीतिक है, क्योंकि सवाल उठाने वाले खुद सरकार में हैं और सारी सरकारी विश्वसनीय जानकारियां उनके नियंत्रण में है।
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