1998 में जयललिता, मायावती, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू ने वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाया था। आडवाणी का पीएम बनना भी इन चारों पर निर्भर।
यह जरूरी नहीं है कि देश का अगला प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी या मनमोहन सिंह में से एक हो। मनमोहन सिंह जबसे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने हैं उनके चेहरे पर तनाव झलकने लगा है। अब तक वह सोनिया गांधी की दी गई खड़ाऊ पर विराजमान थे। तनाव की झलक उस समय साफ दिखाई दी जब उन्होंने डाक्टर अम्बेडकर की जयंती पर लालकृष्ण आडवाणी की नमस्ते का जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा। आडवाणी को गहरा झटका लगा। दूसरा झटका उन्हें उस समय लगा जब वह मध्यप्रदेश के अपने दौरे में अपने साथ ब्रिटिश अखबार 'दि डेली टेलीग्राफ' के पत्रकार डीन नेल्सन को लेकर गए। नेल्सन ने आडवाणी को बताया कि वह पिछले हफ्ते राहुल गांधी का इंटरव्यू करने के लिए रायबरेली में उनकी कार में सवार हुआ था। इंटरव्यू खत्म होते ही राहुल गांधी ने कार रोककर दरवाजा खोल दिया।
हक्का-बक्का होकर वह कार से उतर तो गया लेकिन उसे पता नहीं था कि वह जंगल में कहां पर है। कुछ देर चलने के बाद उसे एक ढाबा मिला, जहां उसे पता चला कि वह कहां पर है। यह सुनकर आडवाणी ने मुस्कुराते हुए कहा- 'मैं आपको इसी विमान पर दिल्ली वापस ले जाऊंगा।' संभवत: मनमोहन सिंह की तरह राहुल भी तनाव में हैं, क्योंकि कांग्रेस की विरासत इस चुनाव में उनके कंधों पर आ गई है।
इंदिरा गांधी की हत्या पर 1984 के उन्मादी वातावरण में 344 सीटें मिलने के बाद कांग्रेस को कभी भी ऐसा नेतृत्व नहीं मिला जो उसे 200 सीटें दिला सके। सोनिया, राहुल और मनमोहन के तिहरे नेतृत्व और लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी व वरुण गांधी के तिहरे नेतृत्व के बावजूद इतना साफ है कि कांग्रेस-भाजपा या यूपीए-राजग को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने जा रहा। चौरासी के नरसंहार के बाद हुए चुनाव का प्रचार पूरी तरह उन्मादी था। अखबारों में सिख टैक्सी ड्राइवर को दिखाकर कांग्रेस ने अपने विज्ञापनों में लिखा था- 'आपको सुरक्षित घर पहुंचने का भरोसा है। क्या आपको डर नहीं लगता।' इंदिरा गांधी की हत्या का प्रतिशोध लेने के बाद कांग्रेस ने हिंदुओं की भावनाएं भड़काकर चुनाव में भुनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी। राजीव गांधी के छोटे भाई संजय गांधी के बेटे वरुण पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने अपने लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र पीलीभीत में हिंदुओं की भावनाएं भड़काने की कोशिश की, तो मुख्तार अब्बास नकवी ने इसे कांग्रेस की विरासत कहा था। वरुण गांधी ने अपने प्रतिद्वंदी उम्मीदवार की तुलना खूंखार आतंकवादी ओसामा बिन लादेन से की। उन्होंने कहा कि देश को आतंकवाद से खतरा है, लेकिन वह इसके खिलाफ लड़ेंगे। भले ही कोई जुबान से नहीं बोले, लेकिन देश का हर नागरिक यह महसूस करता है कि भारत के हिंदू विदेशी आतंकवादियों के निशाने पर हैं। इसकी अभिव्यक्ति कहीं साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित, दयानंद पांडे के रूप में हो रही है, तो कहीं वरुण गांधी जैसे युवा नेताओं के भाषणों से। हालांकि वरुण गांधी ने आतंकवादियों के हाथ काट देने की बात कही थी, यह स्पष्ट होना अभी बाकी है। फिर भी यह तो स्पष्ट है कि वरुण आतंकवाद से बेहद आक्रोशित हैं और उतना ही आक्रोशित विदेशी आतंकवादियों को भारत के भीतर से मिल रहे समर्थन (स्लीपिंग सेल) से है। यह रिहाई के बाद आए उनके बयान से भी स्पष्ट होता है। जब उन्होंने कहा- 'आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए भारतीयों को एकजुट होना चाहिए। अब वक्त आ गया है कि हिम्मत से खड़े हो जाएं। मैं भारत विरोधी तत्वों के खिलाफ अपनी आवाज उठाता रहूंगा।'
1984 के विषैले कांग्रेसी चुनाव प्रचार के समय चुनाव आयोग की इतनी हैसियत नहीं थी कि सांप-बिच्छुओं के विज्ञापनों पर रोक लगा सके। अब वरुण गाधी के भाषण की एक टेप (वह फर्जी है या असली, अभी तय होना बाकी है) देखकर चुनाव आयोग ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी। जो बाद में राजनीतिक प्रतिशोध का कारण बनकर राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बन गई। आश्चर्य है कि अल्पसंख्यकवाद के कारण राष्ट्र के सामने खतरे पर मुंह खोलकर वरुण गांधी राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा हो गए। वरुण गांधी की आवाज को इतनी सख्ती से कुचल दिया गया कि इस चुनाव में आतंकवाद उतना गंभीर मुद्दा नहीं बन पाया है, जितना बनना चाहिए था। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि आतंकवाद पर गंभीरता दिखाने की बजाए राजनीतिक दल एक-दूसरे की मीन-मेख निकालने में लगे हुए हैं। कांग्रेस ने इस बात की भरसक कोशिश की कि आतंकवाद चुनाव का मुद्दा नहीं बने। इसके लिए मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी को राजग शासनकाल का ट्रेक रिकार्ड याद करवाया। क्या मनमोहन सिंह सिर्फ यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि आपने विमान यात्रियों के बदले आतंकवादियों को छोड़ दिया था, इसलिए हमने अफजल गुरु को फांसी पर नहीं चढ़ाया। यह देश का दुर्भाग्य है कि आतंकवाद की घटनाओं की वोट-बैंक के चश्मे से देखा जा रहा है। मुस्लिम वोट बैंक के लिए लालू प्रसाद यादव का नजरिया कैसे बदला है। उसका भी नमूना चुनावों में देखने को मिला। अब तक बाबरी ढांचा (सेक्युलर राजनीतिक दल उसे बाबरी मस्जिद कहते हैं) टूटने का ठीकरा भारतीय जनता पार्टी के सिर फोड़ने वाले लालू यादव ने कहा कि तब की कांग्रेस सरकार ने ढांचा बचाने की कोई कोशिश नहीं की। यह शायद कल्याण सिंह के लालू-मुलायम मोर्चे में आ मिलने का असर है कि इन दोनों की बंदूकों का मुंह कांग्रेस की तरफ हो गया है। मुलायम सिंह ने एक घटना याद करवाई है। उन्होंने कहा- 'एक बार मैं नरसिंह राव से मिला और उन्हें बाबरी मस्जिद पर व्याप्त तनाव का जिक्र करते हुए समाधान की गुजारिश की। इस पर नरसिंह राव ने मुझे कहा था कि वह स्थाई हल पर विचार कर रहे हैं। तब तो मैं नहीं समझा लेकिन जब ढांचा टूट गया, तब मुझे समझ आया कि वह कौन सा स्थाई हल ढूंढ रहे थे।'
लालकृष्ण आडवाणी और मनमोहन सिंह के बीच शुरू हुई प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लालू यादव और मुलायम यादव ने अपनी तरफ मोड़ने में काफी हद तक सफलता पा ली है। हालांकि दोनों ही हताशा का शिकार हैं। बिहार में लालू यादव अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और हताशा में अपनी पत्नी राबड़ी की तरह ही नीतिश कुमार के खिलाफ अपभाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को मायावती से खतरा है। भले ही लालू यादव, मुलायम सिंह और रामविलास पासवान तीनों ही मनमोहन सिंह और कांग्रेस पर हमले कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस की सरकार बनवाने में इन तीनों दलों के 30-32 सांसदों की अहम भूमिका होगी। लालू यादव कांग्रेस और वामपंथी दलों में पुल का काम करने की भूमिका अदा करेंगे। ऐसी सूरत में मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनना संदिग्ध हो जाता है। मनमोहन सिंह के खिलाफ अब शरद पवार ने भी मोर्चा खोल लिया है। उन्होंने महिला प्रधानमंत्री होने की संभावना जतानी शुरू कर दी है। उनका इशारा सोनिया गांधी की तरफ तो बिल्कुल नहीं है, वह विदेशी मूल की प्रधानमंत्री बनाने के खिलाफ तो कांग्रेस छोड़कर गए थे। शरद पवार का इशारा मायावती और जयललिता की ओर है, स्पष्ट है कि वह तीसरे मोर्चे के साथ कदमताल करते दिखाई देने लगे हैं। तीसरे मोर्चे के मूल स्तंभ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की रीड़ की हड्डी भी इन चुनावों में टूट जाएगी। चौदहवीं लोकसभा में 60 सीटें लाने वाले वामपंथी 30-35 पर अटक कर अगली सरकार में अहम भूमिका निभाने के काबिल नहीं बचेंगे। लेकिन लालू-मुलायम-पासवान और वामपंथी मिलकर 60-65 सांसद मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनने से रोकने में जरूर कामयाब होंगे। शरद पवार भी अपने 10-12 सांसदों के साथ मनमोहन सिंह के रास्ते का कांटा बनेंगे। मनमोहन सिंह के फिर से प्रधानमंत्री बनने के आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते।
सवाल यह है कि प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी का क्या होगा। उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना भी जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक और मायावती पर निर्भर है। नवीन पटनायक खुद एनडीए की उस बैठक में शामिल थे जिसमें आडवाणी को प्रधानमंत्री पद पर प्रोजेक्ट करने का सर्वसम्मत फैसला हुआ था। जहां तक जयललिता और मायावती का सवाल है, उन दोनों के बारे में कोई स्पष्ट भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। दोनों ही कई-कई बार कांग्रेस और भाजपा से हाथ मिला चुकी हैं। दोनों के लालकृष्ण आडवाणी के साथ खट्टे-मीठे संबंध रहे हैं। सच यह है कि 2004 में करुणानिधि का साथ छोड़कर जयललिता से चुनावी गठबंधन का गलत समय पर लिया गया गलत फैसला आडवाणी का ही था। करुणानिधि ने कांग्रेस से गठबंधन कर तमिलनाडु और पांडिचेरी की सभी 40 सीटें जीत सोनिया की झोली में डाल दी थी। चंद्रबाबू नायडू की 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन को लिखी चिट्ठी याद करनी चाहिए। जिसमें उन्होंने वाजपेयी को समर्थन तो नहीं दिया था लेकिन स्पष्ट शब्दों में लिखा था- 'विश्वासमत के समय कांग्रेस के साथ वोट किसी हालत में नहीं करेंगे।' यह तय है कि 1998 की तरह राजग सरकार बनवाने में चंद्रबाबू नायडू, जयललिता, मायावती और नवीन पटनायक की भूमिका अहम होगी। इन चारों ने ही उस समय अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी।
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