यूपीए-एनडीए पौने दो- पौने दो सौ में निपटेंगे। तीसरा मोर्चा ज्यादा ताकतवर होकर उभरेगा। कांग्रेस तीसरे-चौथे मोर्चे को समर्थन देने को मजबूर हो सकती है। कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया तो तीसरा मोर्चा टूटेगा। ऐसी हालत में एनडीए सरकार भी संभव।
लोकसभा चुनावों की तस्वीर अब साफ होने लगी है। देश की 543 सीटों में से 265 सीटों पर चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। गठबंधनों ने नया रूप लेना शुरू कर दिया है। यूपीए से एक नए मोर्चे ने जन्म ले लिया है और पहले से बन-बिगड़ रहा तीसरा मोर्चे की तस्वीर भी उभर चुकी है। इस तीसरे मोर्चे में वामपंथी दलों को छोड़कर वे सभी क्षेत्रीय दल शामिल हैं जो कभी न कभी एनडीए में रहे हैं। दूसरी तरफ लालू-मुलायम के चौथे नए सेक्युलर मोर्चे में शामिल सभी दल हाल ही तक यूपीए के साथ थे। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि वामपंथी दलों को छोड़कर तीसरे मोर्चे में शामिल बाकी सभी घटक दल जरूरत पड़ने पर एनडीए में शामिल हो सकते हैं। इसी तरह चौथे मोर्चे में शामिल सभी दल जरूरत पड़ने पर यूपीए में शामिल हो जाएंगे। यहां महत्वपूर्ण यह है कि तीसरे और चौथे मोर्चे के सभी घटक दल 1989 की वीपी सिंह और 1996-97 की देवगौड़ा-गुजराल सरकारों में शामिल थे।
इसलिए पहली कोशिश तीसरे-चौथे मोर्चे को मिलाकर सरकार बनाने की भी होगी।
हमें सबसे पहले इसी नजरिए से ही विश्लेषण करना चाहिए। क्या तीसरा और चौथा मोर्चा इस हालत में आ सकता है कि मिलकर सरकार बना सके। तीसरे मोर्चे में चारों वामपंथी दलों के अलावा व्यक्तित्व आधारित चंद्रबाबू नायडू, चंद्रशेखर राव, जयललिता, वाइको, रामदौस, मायावती शामिल हैं। चौथे मोर्चे में सभी व्यक्तित्व आधारित लालू यादव, मुलायम यादव और राम विलास पासवान आधारित पार्टियां हैं। मौजूदा तीसरे मोर्चे में शामिल वामपंथी दल, तेलुगूदेशम और चौथे मोर्चे की समाजवादी पार्टी चौदहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजों के समय एक-दूसरे के करीब थे। इन तीनों को लोकसभा में 105 सीटें मिली थीं। एनडीए को सत्ता में आने से रोकने के लिए वामपंथी दलों ने जल्दबाजी दिखाते हुए सोनिया गांधी को समर्थन दे दिया। जिस कारण तीसरे मोर्चे के खड़े होने या सरकार बनाने की संभावना टटोलने की नौबत ही नहीं आई। कांग्रेस की सीटें उतनी ही थी, जितनी 1998 के लोकसभा चुनाव के बाद आई थी, लेकिन भाजपा की सीटें घट गई थी।
कांग्रेस की पिछली सरकार बनाने वाले वाइको, रामदौस, चंद्रशेखर राव और वामपंथी दल इस समय तीसरे मोर्चे में है। जबकि कांग्रेस की सरकार बनवाने और बचाने में अहम भूमिका निभाने वाले लालू यादव, मुलायम यादव और राम विलास पासवान ने मिलकर चौथा मोर्चा बना लिया है। कांग्रेस की सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाने वाले इन तीनों नेताओं के सामने अपने अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है। लालू-पासवान को बिहार में नीतिश कुमार की लोकप्रियता से खतरा है, मुलायम यादव को उत्तर प्रदेश में मायावती से खतरा है। यूपीए सरकार बनाने और बचाने में अहम भूमिका निभाने वाले ये तीनों नेता दोहरी जंग लड़ रहे हैं। एक तरफ तो इनकी जंग नीतिश कुमार और मायावती के साथ है, तो दूसरी ओर तीनों का मकसद उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को फिर से जड़ें जमाने से रोकना है। ताकि चुनाव के बाद कांग्रेस उनके दरवाजे पर खड़ी रहे और यूपीए सरकार बनवाने में उनकी अहम भूमिका बनी रहे। यह तय है कि यूपीए सरकार बनवाने और बचाने में अहम भूमिका निभाने पर इन तीनों दलों को चुनावों में खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इन तीनों ही दलों की चौदहवीं लोकसभा में 61 सीटें थीं। इस समय जो तीसरा मोर्चा है उसमें सिर्फ वामपंथी दल ही ऐसे हैं, जिन्हें यूपीए की सरकार बनवाने का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। उनकी भी चौदहवीं लोकसभा में 61 सीटें थी। तीसरे मोर्चे के बाकी घटक दल चंद्रबाबू नायडू, जयललिता, चंद्रशेखर राव, मायावती, वाइको और रामदौस की सीटें बढ़ना तय हैं। इन छह नेताओं की पार्टियों की लोकसभा में सिर्फ 37 सीटें थीं। यानी तीसरे और चौथे मोर्चे की मिलाकर लोकसभा में 159 सीटें थी।
केंद्र में यूपीए सरकार बनवाने में दो राज्यों तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की भी अहम भूमिका थी। तमिलनाडु में कांग्रेस को करुणानिधि, वाइको और रामदौस के रूप में अच्छे सहयोगी मिल गए थे। जबकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस खुद 29 सीटें जीतकर बड़ी पार्टी के तौर पर उभर आई थी। इस समय स्थिति बदली हुई है। दोनों ही राज्यों में तीसरे मोर्चे के घटकों चंद्रबाबू नायडू और जयललिता, वाइको, रामदौस का पलड़ा भारी है। तीसरे मोर्चे में एक और ताकतवर दल मायावती का भी है। इसलिए वामपंथी दलों की सीटें 61 से घटकर 40 भी रह जाएं तो भी इनकी भरपाई तो अकेले जयललिता कर देंगी। तमिलनाडु-पांडिचेरी की 40 सीटों में से कम से कम 30 जयललिता के गठबंधन को मिलने के आसार पैदा हो गए हैं, जबकि पिछली बार खुद जयललिता की एक भी सीट नहीं थी। अनुमान है कि वामपंथी दलों, बसपा, अन्नाद्रमुक, तेलुगूदेशम आधारित तीसरा मोर्चा सवा सौ सीटें ले आएगा। लालू-मुलायम-पासवान का चौथा मोर्चा 40 सीटें ले आया तो 10 सीटों के साथ नवीन पटनायक भी जुड़ सकते हैं। आप अंदाज लगाइए कि इन क्षेत्रीय दलों की 175 सीटें आने के बाद लोकसभा की दशा कैसी होगी। यूपीए और एनडीए दोनों गठबंधनों की हालत क्या होगी।
यूपीए में इस समय सिर्फ शिबू सोरेन, करुणानिधि और शरद पवार ही बचे हैं। ममता बनर्जी नई जुड़ी हैं। चारों को पूरी तरह साथ मान भी लें तो भी यूपीए की सीटें 175 से नीचे ही रहेंगी। दूसरी तरफ एनडीए की ताकत में इजाफा हुआ है। भारतीय जनता पार्टी, जदयू और शिवसेना पर आधारित रह गए एनडीए में अकाली दल, असमगण परिषद, राष्ट्रीय लोकदल और इंडियन नेशनल लोकदल नए घटक जुड़े हैं। कांग्रेस को पंजाब, राजस्थान, बंगाल और केरल में सीटें बढ़ने की उम्मीद है, लेकिन हरियाणा, गुजरात, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, झारखंड और असम में उसे दुगना नुकसान हो जाएगा। दूसरी तरफ भाजपा को सिर्फ राजस्थान में दस सीटों के नुकसान की आशंका है। उसकी गुजरात, असम, झारखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा में सीटें बढ़ सकती हैं। बिहार में प्रमुख सहयोगी जेडीयू की मौजूदा आठ सीटें बढ़कर कम से कम सोलह होने की उम्मीद है। अकाली दल, असमगण परिषद, इनलोद और रालोद की सीटें भी मौजूदा 13 सीटों से बढ़कर कम से कम 20 होंगी। अगर कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा अपनी मौजूदा सीटें बचाए रख सकी तो एनडीए की सीटें भी 175 के आसपास रहेंगी।
पंद्रहवीं लोकसभा की ऐसी त्रिशंकु तस्वीर उभरती दिख रही है जिसमें एनडीए, यूपीए और तीसरे मोर्चे-चौथे मोर्चे की मिलकर 175-175-175 सीटें रहेंगी। पिछली बार अटल बिहारी वाजपेयी को सत्ता से बाहर रखने के लिए वामपंथी दलों, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी ने कांग्रेस को बिन मांगा समर्थन दे दिया था। इस बार लालकृष्ण आडवाणी को सत्ता से बाहर रखने के लिए यह मजबूरी कांग्रेस की हो सकती है। कांग्रेस के समर्थन से चलने वाली सरकार कितनी स्थिर होती है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं। इसलिए पंद्रहवीं लोकसभा का कार्यकाल अभी से डेढ़-दो साल बताया जा रहा है। लेकिन मान लो कांग्रेस ने तीसरे-चौथे मोर्चे को समर्थन नहीं दिया तो चंद्रबाबू, जयललिता, चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, मायावती नब्बे-सौ सांसदों के साथ एनडीए को समर्थन देने आ सकते हैं।
विरासत-
संजय गांधी की दुर्घटना में मौत न होती, तो वह इंदिरा गांधी के राजनीतिक वारिस होते। जिस तरह राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गांधी राजनीतिक वारिस बनी। उसी तरह संजय गांधी की मौत के बाद वारिस बनने का हक मेनका गांधी का था। इंदिरा गांधी ने मेनका गांधी को दरकिनार कर अपने दूसरे बेटे राजीव गांधी को वारिस के रूप में चुना। अब सोनिया गांधी भी वही कर रही हैं, वह अपनी बेटी प्रियंका को दरकिनार कर अपने बेटे राहुल को राजनीतिक वारिस बना चुकी हैं। दूसरी तरफ मेनका गांधी अपने बेटे को उसका हक दिलाना चाहती हैं। इसलिए यह लड़ाई वरुण और राहुल की हो गई है।
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