तीसरे मोर्चे की सरकार नहीं बनी, तो नए सिरे से धुव्रीकरण होगा। मुलायम-करुणानिधि के समर्थन वाली यूपीए सरकार बनने से रोकने के लिए मायावती, जयललिता अपनी वजह से एनडीए को समर्थन देने पर मजबूर होंगे। जबकि नवीन पटनायक, चंद्रबाबू कांग्रेस विरोध की वजह से ऐसा ही कदम उठा सकते हैं।
कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू से 70 किलोमीटर दूर छोटी सी जगह है तुमकुर। तुमकुर का भारतीय राजनीति में कोई खास महत्व कभी नहीं रहा, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि मौजूदा सरकार के गठन में तुमकुर का खास महत्व था। चौदहवीं लोकसभा के चुनाव से ठीक पहले लालकृष्ण आडवाणी की तुमकुर में रैली हुई थी। आडवाणी उस समय देश के उपप्रधानमंत्री थे इसलिए वह एयरफोर्स के विमान पर तुमकुर गए थे, लेकिन उसी दिन लोकसभा चुनावों का ऐलान हो गया था। आचार संहिता लागू हो गई थी और आडवाणी को इंडियन एयरलाइंस की रेगुलर फ्लाइट पर बेंगलुरू से दिल्ली लौटना पड़ा था। उसके बाद लालकृष्ण आडवाणी सरकारी विमान का इस्तेमाल नहीं कर पाए।
चुनावों में भाजपा की सीटें 182 से घटकर 138 रह गई थी और एनडीए को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। इसका मतलब यह हुआ कि तुमकुर की रैली एक बार दिल्ली की सरकार को नेस्तनाबूद करने की भूमिका निभा चुकी है। अब पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे का गठन भी तुमकुर की रैली में हुआ है, जिसने कांग्रेस की नींद उड़ा दी है। एचडी देवगौड़ा ने कांग्रेस को पहला झटका गठबंधन की पेशकश ठुकराकर दिया था और दूसरा झटका तुमकुर में तीसरे मोर्चे का गठन करके दिया है।
चौदहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र और मौजूदा राजनीतिक हालात में काफी फर्क आ चुका है। एटमी करार पर हिचकोले खा रही यूपीए सरकार को बचाने वाली समाजवादी पार्टी यूपीए में दिखाई नहीं दे रही। मायावती तीसरे मोर्चे में शामिल नहीं हुई, तो समाजवादी पार्टी के तीसरे मोर्चे में लौटने की संभावनाएं खुली हुई हैं। इस एक राजनीतिक दल को छोड़कर फिलहाल यूपीए को कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ है जबकि पिछली बार लोकसभा चुनावों से ठीक पहले द्रमुक, एमडीएमके, पीएमके, तेलुगूदेशम ने एनडीए का साथ छोड़ दिया था। चुनावों का ऐलान होने के बाद यूपीए से ज्यादा नुकसान एनडीए का हुआ है। एनडीए अपने दो घटकों बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस से हाथ धो चुका है। तृणमूल कांग्रेस का गठबंधन कांग्रेस के साथ हो गया है और बीजू जनता दल अभी हालात का जायजा ले रहा है। फिलहाल उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की रणनीति सबसे समान दूरी बनाकर चलने की है। वह नए बने तीसरे मोर्चे के करीब जरूर आए हैं, लेकिन उसमें शामिल होने से परहेज कर रहे हैं। जैसे ही नवीन पटनायक ने भाजपा से गठबंधन तोड़ा था, तीसरे मोर्चे ने बधाई देते हुए अपना हाथ बढ़ा दिया था। दो मार्च को तीसरे मोर्चे के गठन का ऐलान करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने उन्हें न्योता देते हुए चिट्ठी लिखी। तो माकपा महासचिव प्रकाश करात ने कुछ घंटे के भीतर ही सीताराम येचुरी को बातचीत करने भुवनेश्वर भेज दिया। इतने जोरदार स्वागत के बावजूद नवीन पटनायक तीसरे मोर्चे की तुमकुर रैली में नहीं पहुंचे। रैली के बाद नवीन पटनायक को मोर्चे में लाने की कोशिश करने एबी वर्धन भुवनेश्वर गए। लेकिन उन्हें सिर्फ इतनी सफलता मिली कि नवीन पटनायक ने कांग्रेस-भाजपा से समान दूरी बनाए रखने का बयान दिया। एटमी करार के मुद्दे पर यूपीए से धोखा खाने से पहले तक तीसरे मोर्चे की संभावना को नकारने वाले वामपंथी दल अब तीसरे मोर्चे का गठन करने के लिए जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं। अब तक उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली है, मीडिया में तीसरे मोर्चे के गठन का प्रचार हकीकत से कुछ ज्यादा ही हो रहा है। जेडीएस की तुमकुर रैली में माकपा, भाकपा के अलावा तेलुगूदेशम और तेलंगाना राष्ट्र समिति के ही सर्वोच्च नेता मौजूद थे। बसपा अध्यक्ष मायावती और अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता ने अपने प्रतिनिधि जरूर भेजे, लेकिन अपने पत्ते नहीं खोले।
दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में बड़ी भारी चर्चा है कि अगली सरकार तीसरे मोर्चे की बनेगी। ऐसी चर्चाओं के पीछे तर्क यह है कि यूपीए और एनडीए की सीटों में कहीं कोई बढ़ोत्तरी होती दिखाई नहीं देती। जबकि तीसरे मोर्चे की हालत सुधरेगी और ऐसा होने पर एनडीए में शामिल अकाली(बादल), जेडीयू (नीतीश), एजीपी(महंत), आरएलडी(अजित) और इनलोद (चौटाला) और यूपीए में शामिल आरजेडी (लालू), एलजेपी (पासवान), जेएमएम (शिबू), एनसीपी (पवार), एनसी(फारुख), आरपीआई (आठवाले), डीएमके (करुणानिधि), केरल कांग्रेस, आईयूएमएल आदि सब तीसरे मोर्चे में शामिल हो जाएंगे। उनका तर्क है कि ऐसा होने पर कांग्रेस तीसरे मोर्चे को बाहर से समर्थन देने के लिए मजबूर होगी। लेकिन ऐसी स्थिति सिर्फ तब पैदा हो सकती है जब 1996 से बेहतर हालात पैदा हों। ग्यारहवीं लोकसभा में कांग्रेस को 136, भाजपा को 160 और रामो वामो के तीसरे मोर्चे को 109 सीटें मिली थी, जबकि 129 सीटें अन्य दलों को मिली थी। राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने सबसे बड़े दल के नाते भाजपा संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्योता दिया था लेकिन बहुमत साबित करने में असमर्थ होने पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। तब इन अन्य दलों में से तेलुगूदेशम, तमिल मनीला कांग्रेस, असमगण परिषद, द्रमुक, समाजवादी पार्टी ने चारों वामपंथी दलों और जनता दल के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चे का गठन किया। लोकसभा में नवगठित संयुक्त मोर्चे के सांसदों की तादाद उस समय 173 थी, इसलिए 136 सदस्यों वाली कांग्रेस को समर्थन देना पड़ा। एचडी देवगौड़ा के प्रधानमंत्रित्व वाली संयुक्त मोर्चे की पहली सरकार नौ महीने और इंद्र कुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व वाली दूसरी सरकार आठ महीने ही चल पाई। तीसरे मोर्चे की सरकार का ऐसा ही कड़वा अनुभव देश 1989 से 1991 तक पहले भी देख चुका था। पहले वीपी सिंह की सरकार भाजपा और वामपंथी दलों के समर्थन पर सालभर चली और बाद में कांग्रेस के समर्थन पर चंद्रशेखर की सरकार चार महीने ही चल पाई थी।
आज 1989 या 1996 वाली स्थिति बिल्कुल नहीं है। तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की संभावना सिर्फ तभी बन सकती है, जब मोर्चे के मौजूदा घटक दलों की 175 सीटें आएं। चौदहवीं लोकसभा में चारों वामपंथी दलों की 60 सीटें थी, जो घटकर 40 रह जाने का अनुमान है। तेलुगूदेशम अगर अब तक का सर्वाधिक सीटें हासिल करने का 1999 का इतिहास दोहरा भी दे, तो उसकी सीटें 29 होंगी (वैसे ऐसा हो नहीं सकता)। टीआरएस अपना पिछला मौजूदा इतिहास दोहराने में कामयाब हो जाए तो उसकी चार सीटें होंगी। एचडी देवगौड़ा अपना पूरा जोर लगाने पर भी कर्नाटक की पांच से ज्यादा सीटें नहीं जीत पाएंगे। मौजूदा तीसरे मोर्चे के इन सभी घटक दलों को 78 से 80 तक सीटें मिलने की ही उम्मीद है। मायावती और जयललिता तीसरे मोर्चे की सबसे बड़ी ताकत हो सकती हैं। मायावती अपने बूते पर करीब 40 सीटें हासिल करने की उम्मीद रखती हैं जबकि जयललिता की भी 30 सीटें हासिल करने की हैसियत हैं। मौजूदा तीसरा मोर्चा और मायावती-जयललिता मिलकर 150 का आंकड़ा ही पूरा कर सकते हैं, लेकिन कांग्रेस ने भी 150 सीटें हासिल कर ली, तो वह तीसरे मोर्चे की सरकार कभी कबूल नहीं करेगी। कांग्रेस को ऊपर से यूपीए के घटक दलों की करीब 50 सीटों का समर्थन होगा। मुलायम सिंह का भी भले ही कांग्रेस से चुनावी गठबंधन नहीं हुआ हो, लेकिन ऐसी हालत में वह केंद्र में कांग्रेस को ही समर्थन देंगे।
एनडीए को सत्ता में आने से रोकने के लिए वामपंथी दल 2004 का इतिहास दोहराएंगे, लेकिन कांग्रेस विरोध की राजनीति पर टिके क्षेत्रीय दलों के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं होगी। इसलिए चुनावों के बाद नए सिरे से धुव्रीकरण होगा, इस धुव्रीकरण में पिछली बार की तरह वामपंथी दल भले ही कांग्रेस के साथ चले जाएं, लेकिन तेलुगूदेशम ऐसा कतई नहीं करेगी। क्योंकि उसका अस्तित्व कांग्रेस विरोध पर ही टिका है। एनडीए को तब सबसे बड़ा लाभ आंध्रप्रदेश की 30 सीटों का होगा। मायावती और जयललिता भले ही एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाएं, लेकिन मुलायम सिंह कांग्रेस के साथ होंगे तो मायावती एनडीए सरकार को बाहर से समर्थन देने में परहेज नहीं करेंगी। करुणानिधि यूपीए में होंगे तो जयललिता एनडीए सरकार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। यही हालत नवीन पटनायक की भी होगी, वह इसलिए पत्ते नहीं खोल रहे। अभी भले ही कांग्रेस और भाजपा से दूरी बनाने का ऐलान कर रहे हों, लेकिन उनके सामने प्राथमिकता उड़ीसा में सरकार बनाने की होगी। उड़ीसा में भाजपा-बीजेडी गठबंधन टूटने का सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ है। बीजेडी अचानक सेक्युलरिज्म की झंडाबरदार हो गई है, जबकि भाजपा हिंदुत्व को उभारकर चुनाव लड़ेगी। वोटों के धुव्रीकरण में कांग्रेस घाटे में रहेगी। चुनाव के बाद भाजपा-बीजेडी को मिलकर सरकार बनानी पड़ सकती है, ऐसी हालत में बीजेडी फिर से एनडीए का हिस्सा होगा।
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