मौजूदा संविधान की संसदीय प्रणाली ने जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार और राजनीति के आपराधीकरण का एक ऐसा ढांचा तैयार कर दिया है, जिससे देश का लोकतंत्र खोखला हो चला है। दूसरे संविधान के लिए जनमत संग्रह का समय आ गया है, जिसमें राष्ट्रपति प्रणाली की तरह प्रधानमंत्री का उसकी योग्यता और क्षमता के आधार पर सीधा चुनाव होना चाहिए।
आज हमारा संविधान साठवें साल में प्रवेश कर रहा है। अब हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या इस संविधान से भारत का निर्माण ठीक ढंग से हो रहा है। देश को लोकतांत्रिक प्रणाली देने वाले संविधान ने सबको आजादी, इंसाफ और बराबरी का वादा किया था। क्या इन तीनों कसौटियों पर खरा उतरा है संविधान। हालांकि इस बीच हम सौ बार संविधान में संशोधन कर चुके हैं। एक बार पूरा संविधान ताक पर रखकर आजादी, इंसाफ और बराबरी के हक को कुचला भी जा चुका है। इन तीनों ही मोर्चों पर विफलता की एक लंबी कहानी हमारे सामने है।
लोग पचासों साल से इंसाफ के लिए अदालतों के चक्कर काट रहे हैं। इंसाफ पहुंच वाले लोगों को आसानी से मुहैया हो जाता है जिसकी पहुंच नहीं है वह घुट-घुटकर मर रहा है। लाखों मुकदमे दसियों साल से अदालतों में लटके पड़े हैं। आम आदमी इंसाफ का मोहताज हो गया है। जजों के भ्रष्टाचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश खुद इस तरह की शिकायतों को चिंताजनक मानते हैं। चंडीगढ़ के एक जज का हिमाचल में जमीन घोटाला और मेरठ में जजों का पीएफ घोटाला हाल ही की घटनाएं हैं। एक पूर्व जज को जब उसके सहयोगी ने जांच का सामना करने को कहा तो उसने चुप्पी साध ली। उसके बेटे ने अपने पिता के सरकारी मकान का इस्तेमाल जमीन जायदाद का धंधा करने के लिए किया था। जज अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने से इंकार कर देते हैं। लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ने से पहले अपनी जायदाद का ब्यौरा देने का प्रावधान सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से हुआ था। जब बहस हो रही थी तो जजों ने पारदर्शिता की दुहाई दी थी, लेकिन केंद्रीय सूचना आयुक्त ने अब जब उसी पारदर्शिता की दलील जजों पर लागू की है, तो जजों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने से इंकार कर दिया है।
हां, यह सच है कि देश में आजादी और लोकतंत्र है। समय पर चुनाव हो जाते हैं। अब जबकि संविधान साठवें साल में प्रवेश कर रहा है, तो क्या वक्त नहीं आ गया है कि चुनाव प्रणाली में आई खामियों पर चर्चा करें। जिस कारण देश में अन्य कई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। सच तो यह है कि संविधान में वर्णित की गई चुनाव प्रणाली ही मौजूदा ज्यादातर समस्याओं की जड़ है। वोट की राजनीति ने समाज को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर स्वार्थी बना दिया है। भ्रष्टाचार और आपराधीकरण ने देश की लोकतांत्रिक प्रणाली को अंदर से खोखला कर दिया है। चुनावों में धन बल के इस्तेमाल ने लोकतांत्रिक प्रणाली को अमीरों और लाठी वालों का बंधक बना दिया है। सत्ता का मोह देशभक्ति पर हावी हो गया है। देश जातिवाद, क्षेत्रवाद और सांप्रदायवाद में बंट गया है। राजनैतिक नेताओं की मौजूदा फौज ने अपने इर्द-गिर्द अपनी जाति के चापलूसों को इकट्ठा करके लोकतंत्र को लंगड़ा कर दिया है। चुने जाने के बाद नेता लूट-खसूट में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में शामिल हो जाते हैं। उनकी निगाह भ्रष्टाचार से धन कमाने के अलावा सरकारी खजाने पर भी गढ़ी रहती है, इसलिए परस्पर विरोधी होते हुए भी वे अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के लिए एकजुट हो जाते हैं। संविधान निर्माताओं ने ऐसे राजनीतिज्ञों की कल्पना कतई नहीं की थी। इसके लिए एक उदाहरण देना काफी है। सत्रह अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में बहस हो रही थी। उस समय देश की आर्थिक हालत आज जैसी ही खस्ता थी। वीआई मुन्नीस्वामी ने प्रस्ताव पेश किया कि संविधान सभा के सदस्यों का दैनिक भत्ता 45 रुपए से घटाकर 40 रुपए कर दिया जाए। किसी भी सदस्य ने इसका विरोध नहीं किया। एक सदस्य एचजे खांडेकर ने तो भत्ता घटाकर 20 रुपए करने तक का प्रस्ताव पेश किया। लेकिन देश और दुनिया में आर्थिक मंदी के दौर में हाल ही में राष्ट्रपति से लेकर सांसद तक की तनख्वाहें और भत्ते बढ़ा दिए गए हैं।
देश के गणतांत्रिक संविधान और लोकतंत्र की खिल्ली उड़ते हम कई बार देख चुके हैं। नरसिंह राव के शासनकाल में एक बार विश्वास मत के समय शराब में धुत्त सांसद को जबरदस्ती बिठाकर वोट डलवाया गया था। अभी हाल ही में यूपीए सरकार के विश्वास मत के समय जेलों में बंद कई घोषित अपराधी सांसदों को सरकार बचाने के लिए संसद में लाया गया था। राजनीतिज्ञो-लूटेरों और बदमाशों का गठबंधन इतना प्रभावशाली हो गया है कि गुंडों और राजनीतिज्ञों का भेद मिट गया है। भ्रष्टाचार और आपराधीकरण ने चुनाव प्रणाली इतनी महंगी कर दी है कि आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता। लोकतंत्र राजनीतिक दलों का मोहताज हो गया है। राजनीतिक दल का टिकट मिलते ही चंदा देने वालों की लाइन लग जाती है। उनकी निगाह चुने जाने पर सरकारी ठेके दिलवाने या दफ्तरों में फंसे हुए काम निकलवाने की मदद की उम्मीद पर रहती है। आंध्र प्रदेश में रामलिंगम राजू का सत्यम घोटाला इसका जीता जागता सबूत है। उन्होंने मौजूदा और पूर्व मुख्यमंत्री को चुनावों में मोटी रकम दी और उसके बदले दोनों के शासनकाल में सात हजार करोड़ रुपए का घोटाला कर दिया। दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने सरकारी जमीन तक कौडियों के भाव में उपलब्ध करवाई। तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता पर आमदनी से ज्यादा संपत्ति का मामला एक दशक से अदालत में लटका है। यही हाल बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव, राबड़ी देवी और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का भी है। केंद्र सरकार को संसद में इन तीनों नेताओं के समर्थन की दरकार है, इसलिए कानून और कानून का पालन करने के लिए बनाई गई संस्थाएं धीमी गति से काम करने को बाध्य हैं। उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री मायावती के सामने तो संविधान और कानून एकदम बौना हो गए हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार को पारदर्शी बना दिया है। सांसद, विधायक, मंत्री और पुलिस वालों का मुख्य सालाना काम मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर ज्यादा से ज्यादा चंदा इकट्ठा करना होता है ताकि वह अपना मंत्री पद टिकट और ट्रांसफर बचा सकें। अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाने पर नेताओं में चिडचिडापन आ जाता है और वे सहयोग न करने वाले इंजीनियर की हत्या तक कर देते हैं। वह चंदा राजनीतिक दल के लिए नहीं, अलबत्ता मुख्यमंत्री की खुद की संपत्ति होती है और वह उसका आयकर भरकर इस खुली लूट को कानूनी जामा पहनाकर अपने नाम पर करोड़ों की संपत्ति खरीद लेती है। यह कैसा गणतंत्र है, जिसमें सारे कानून राजनेताओं के सामने पानी भरते हैं। यह कैसी बराबरी है, जिसे संविधान ने प्रदान किया था।
'हम लोगों' ने ही हमें पहला संविधान दिया था। जिसके तहत शुरू की गई संसदीय प्रणाली की बीसियों खामियां हमारे सामने आ चुकी हैं। सांसदों के समर्थन पर टिकी सरकारों ने भ्रष्ट प्रणाली और राजनीति के आपराधीकरण को जन्म दिया है। यह प्रणाली आपराधिक मुकदमे झेल रहे नेताओं को सांसद-विधायक बनने से नहीं रोकती। यह प्रणाली भ्रष्ट और आपराधिक छवि वाले सांसदों-विधायकों को मंत्री या मुख्यमंत्री बनने से नहीं रोकती। अदालतों में मुकदमे झेल रहे आधा दर्जन सांसद केंद्र में मंत्री और झारखंड में मुख्यमंत्री बन सकते हैं। संसदीय प्रणाली में जोड़-तोड़ से बनी सरकारों की राजनीतिक जवाबदेही नहीं होती। ऐसी सरकारों को विदेशी ताकतें बड़ी आसानी से प्रभावित कर सकती हैं। संसदीय प्रणाली मजबूत और दूरदृष्टि वाला राजनीतिक नेतृत्व देने में नाकाम रही है। नेता अपने बच्चों को राजनीतिक दलों का टिकट दिलाने के लिए नेतृत्व को ब्लैकमेल करने से लेकर दल-बदल करने तक में कोई परहेज नहीं करते। दलील दी जाती है कि जब वकील का बेटा वकील, दुकानदार का बेटा दुकानदार बन सकता है, तो सांसद का बेटा सांसद, मंत्री का बेटा मंत्री और मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री क्यों नहीं। राजनेताओं की देश के प्रति वचनबध्दता खत्म हो गई है। अब साठ साल बाद हमें राजनेताओं पर संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन करने के लिए जनमत संग्रह का दबाव बनाना होगा, ताकि सबको न्याय, बराबरी और आजादी के अलावा भ्रष्टाचार और आपराधीकरण से मुक्त प्रशासन मुहैया करवाया जा सके। नए संविधान में संसदीय चुनाव प्रणाली के कारण आई खामियों को दूर करने के लिए राष्ट्रपति प्रणाली लागू करना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। ताकि देश खुद अपना प्रधानमंत्री और प्रदेश खुद अपना मुख्यमंत्री चुन सके, देश और प्रदेश के सर्वोच्च पद राजनीतिक दलों और भ्रष्ट व आपराधिक तत्वों की गिरफ्त में न रहे। हाल ही में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में हमने देखा कि किस तरह अमेरिका ने अपने सामने मौजूदा नेताओं को उनकी योग्यता और नीतियों के आधार पर चुना। देश के लिए उम्दा विचारों और दृष्टि वाला नेता खोजने में हुई कसरत को देखकर भारत में भी दूरदृष्टि वाला योग्य नेता खोजने की ललक पैदा होनी चाहिए। नए संविधान में ऐसे प्रावधान किए जाने चाहिए कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री पद पर नेता का चुनाव धर्म, जाति, क्षेत्र और परिवारवाद के आधार पर न हो, सिर्फ योग्यता और देश को आगे ले जाने की क्षमता ही नेतृत्व का पैमाना हो।
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