दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन के गठन के समय ही तय हो गया था कि इस मंच से द्विपक्षीय मसले नहीं उठाए जाएंगे। अलबत्ता शिखर सम्मेलन के समय द्विपक्षीय बातचीत में आपसी मसले उठाए जा सकते हैं। इसलिए इस बात की कोई गुंजाइश ही नहीं थी कि भारत दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क-दक्षेस) के मंच से आतंकवाद के मुद्दे पर कोई दोषारोपण करेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत और अफगानिस्तान की आतंकवादी वारदातों में आईएसआई की भूमिका पर अपनी बात पाक के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी से सीधी बातचीत में उठाना ही उचित समझा।
प्रधानमंत्री ने अपनी बात दक्षिण एशिया में बढ रहे आतंकवाद से विकास पर पड़ने वाले विपरीत असर तक ही सीमित रखी। उन्होंने सार्क देशों में महंगाई और खाद्य समस्या को भी उतनी ही शिद्दत से उठाया। भारत और अफगानिस्तान में बम धमाकों के फौरन बाद हुए सार्क सम्मेलन में आतंकवाद का प्रमुख मुद्दा बनना स्वाभाविक ही था। श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्ष ने अपने उद्धाटन भाषण में ही कहा कि आतंकवाद तो आतंकवाद ही होता है, अच्छा और बुरा नहीं होता। सार्क सम्मेलन से ठीक पहले दोनों ही देशों में आतंकी वारदातों के निशाने पर भारतीय ही थे, हालांकि काबुल के भारतीय दूतावास में हुए आतंकी हमले में छप्पन अफगानी भी मारे गए। इसलिए अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजई आतंकवाद के मुद्दे पर ज्यादा मुखर हुए। लेकिन उन्होंने भी सार्क सम्मेलन की मर्यादा का ख्याल रखते हुए अपने भाषण में पाकिस्तान या आईएसआई का जिक्र किए बिना इशारों ही इशारों में निशाना साधा। करजई ने बेनजीर भुट्टो की हत्या का हवाला देकर पाकिस्तान में आतंकवाद की जड़ें गहरी होने की बात कही। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी न तो इससे इंकार कर सकते थे और न ही एतराज कर सकते थे। वह चुनावों में बेनजीर भुट्टो की हत्या के कारण ही प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं। बेनजीर भुट्टो की हत्या न होती, वही पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनतीं। खुद युसुफ रजा गिलानी और उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने आईएसआई पर बेनजीर की हत्या का षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया था। तब आईएसआई की कमान सेनाध्यक्ष के नाते राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के हाथ में थी और वह खुद सीधे-सीधे आईएसआई के दुरुपयोग के लिए कटघरे में थे। बहरहाल करजई के अलावा किसी भी सार्क देश के मुखिया ने सीधे-सीधे पाकिस्तान पर निशाना साधकर आतंकवाद का जिक्र नहीं किया, लेकिन सबका इशारा उसी ओर था। सार्क सम्मेलन ठीक उस समय शुरू हुआ जब अमेरिका ने भारत के इस आरोप की पुष्टि की कि काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले की साजिश आईएसआई ने रची थी। यह बात इससे पहले भारत और अफगानिस्तान कह ही चुके थे। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने सबसे पहले आईएसआई का नाम लिया था तो पाक के विदेश सचिव ने दिल्ली में हुई सचिव स्तरीय बातचीत में कड़ा एतराज जताया था।
आतंकवाद में आईएसआई की भूमिका अब पूरी दुनिया में शक के घेरे में आ चुकी है। अब यह सारी दुनिया में जाहिर हो चुका है कि आईएसआई पाकिस्तान में इतनी मजबूत है कि उस पर चुनी हुई सरकार का कोई बस नहीं चलता। इसलिए पिछले हफ्ते युसुफ रजा गिलानी की जब वाशिंगटन में राष्ट्रपति बुश से मुलाकात हुई तो उन्हें इस टेढे सवाल का सामना करना पड़ा कि आईएसआई का बॉस कौन है। युसुफ रजा गिलानी 26 जुलाई को जब इस्लामाबाद से वाशिंगटन रवाना हो रहे थे तो उन्हें इस सवाल का अंदेशा था, इसलिए उन्होंने जाने से पहले एक अधिसूचना जारी करवाई कि अब आईएसआई और आईबी दोनों भी गृहमंत्रालय के अधीन काम करेंगे। लेकिन वह अमेरिका से लौटे ही नहीं थे कि उनकी सरकार को स्पष्टीकरण जारी करके कहना पड़ा कि अधिसूचना का गलत मतलब निकाला गया है। वास्तविकता यह है कि आईएसआई पर कभी भी चुनी हुई सरकार का नियंत्रण नहीं रहा। कानून-कायदे के मुताबिक तो आईएसआई प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है, लेकिन असलियत यह है कि वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को नहीं अलबत्ता सेनाध्यक्ष को ही रिपोर्ट करती है। पाकिस्तान में सेना इतनी मजबूत है कि वह किसी भी सरकार को अपनी इच्छा के बिना कोई काम नहीं करने देती। सेना आईएसआई के माध्यम से अपने देश की राजनीति को भी नियंत्रित करती है और पड़ोसी देशों में अस्थिरता पैदा करने का काम भी करती है। संविधान के मुताबिक जरूर आईएसआई प्रधानमंत्री के अधीन है, लेकिन कोई भी प्रधानमंत्री आईएसआई को अपने अधीन नहीं कर पाया। पिछले दस साल में आईएसआई ने किसी भी प्रधानमंत्री को कोई रिपोर्ट नहीं दी। आईएसआई प्रमुख के मुद्दे पर ही तत्कालीन सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ का तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से टकराव हो गया था। मुशर्रफ की आपत्ति को दरकिनार करके नवाज शरीफ ने लेफ्टिनेंट जनरल जियाउद्दीन के आईएसआई का प्रमुख बना दिया था। इससे पहले भी दो बार ऐसा हुआ था जब चुने हुए प्रधानमंत्रियों ने अपनी मर्जी का आईएसआई प्रमुख तैनात किया तो सेनाध्यक्ष ने आईएसआई प्रमुख की हैसियत ही खत्म कर दी।
आईएसआई का गठन 1948 में पाकिस्तान सेना की सिफारिश पर रक्षा मंत्रालय के अधीन किया गया था। कश्मीर पर कबाइली हमले के समय पाकिस्तानी फौज ने आईबी की विफलता पर सवाल उठाए तो रक्षा मंत्रालय में इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस (आईएसआई) का गठन किया गया। तब से आईएसआई पाकिस्तानी सेना का ही हिस्सा है। आईएसआई में सेना के तीनों अंगों के अधिकारी भर्ती किए जाते हैं। शुरू में आईएसआई का काम भारतीय गुप्तचर एजेंसी रॉ की तरह सिर्फ विदेशी मामलों की सूचनाएं इकट्ठा करना था। लेकिन 1958 में राष्ट्रपति बनने पर फील्ड मार्शल अय्यूब खां ने आंतरिक गुप्तचर जानकारियां उपलब्ध कराने का काम भी सौंप दिया। उन्होंने आईएसआई में 'कैड' नाम से एक ऐसा विंग भी स्थापित किया जिसका काम भारत के पूर्वोत्तर में विद्रोही गतिविधियों को बढ़ावा देना था। बाद में जुल्फिकार अली भुट्टो और जिया उल हक ने आईएसआई के इसी विंग को भारत के पंजाब में सिखों और कश्मीर में मुसलमानों को विद्रोह के लिए भड़काने का काम सौंपा। इस तरह आईएसआई के तीन विंग अलग-अलग काम कर रहे हैं। जहां आईएसआई का 'कैड' विंग भारत के अलावा दक्षेस के अन्य देशों नेपाल, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में भी सक्रिय है वहां आतंरिक विंग सेना के अनुकूल राजनीति को बढ़ावा देने का काम करता है। आईएसआई का यह आतंरिक विंग कभी भी उस प्रधानमंत्री को कुर्सी पर नहीं रहने देता जो उस पर नकेल डालने की कोशिश करे। इसका उदाहरण 1990 में मिला था जब सेना के दबाव में एक बैंक ने आईएसआई के राजनीतिक विंग को चौदह करोड़ रुपए का दान दिया था ताकि चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवारों को हराया जा सके।
'कैड' विंग पाकिस्तान से बाहर ऐसी गतिविधियों में शामिल है, जिसकी पाक सरकार को भनक तक नहीं होती। सोवियत संघ ने जब अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए ने अफगानी विद्रोहियों को सोवियत संघ के खिलाफ विद्रोह की ट्रेनिंग देने के लिए आईएसआई के 'कैड' विंग को इस्तेमाल किया था। दुनियाभर से कट्टरपंथी मुसलमानों को भर्ती करके ट्रेनिंग के लिए पाकिस्तान भेजा गया था। सऊदी अरब ने इसमें अहम भूमिका निभाई थी। इसी ट्रेनिंग में एक खूंखार आतंकवादी पैदा हुआ, जिसका नाम ओसामा बिन लादेन है। इसलिए दुनियाभर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में आईएसआई की भूमिका को अमेरिका और अमेरिकी राष्ट्रपति से बेहतर कौन जानता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बुश जानते हैं कि 1992 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान से पीछे हट जाने के बाद जब मुजाहिद्दीनों का कब्जा हो गया तो आईएसआई ने 1996 में अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा करवाया था। आईएसआई और तालिबान का गठजोड़ तब से चल रहा है। अमेरिका की आतंकवाद से लड़ाई तब तक सिरे नहीं चढ़ेगी, जब तक आईएसआई और तालिबान का गठजोड़ नहीं टूटता। अमेरिका अफगानिस्तान में आईएसआई की गतिविधियों से बेहद परेशान है, इसलिए राष्ट्रपति बुश पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से पूछते हैं कि आईएसआई किसके अधीन काम करती है। आईएसआई इस समय भारत और अमेरिका के लिए ही नहीं, अलबत्ता खुद पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार के लिए भी सिरदर्द है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी हमेशा से पाकिस्तान फौज और आईएसआई की आंख की किरकिरी रही है। इसलिए पीपुल्स पार्टी के मौजूदा प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी आईएसआई का बचाव करने की हालत में नहीं हैं। अमेरिका गिलानी सरकार के माध्यम से आईएसआई पर शिकंजा कसना चाहता है, लेकिन गिलानी की पहली कोशिश नाकाम हो गई है। आईएसआई को गृहमंत्रालय के अधीन करने की अधिसूचना पर काम रुक गया है और अमेरिका की यह योजना फिलहाल अटक गई है।
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