यह कहना बिल्कुल गलत होगा कि भारत के संसद में एटमी करार पर सहमति दे दी है। यूपीए लोकसभा के विश्वासमत को एटमी करार पर सहमति बताकर प्रचारित कर रहा है। यह संसद के साथ धोखे के सिवा कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी संसद के अंदर और बाहर कई बार कह चुके हैं कि विदेशों के साथ होने वाले करारों को संसद की मंजूरी का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। इन दोनों नेताओं ने वामपंथी दलों के साथ चली नौ महीने की बातचीत में भी यही तर्क पेश किया था।
अगस्त 2007 में वामपंथी दल, एनडीए और यूएनपीए में एटमी करार के मुद्दे पर एकजुटता हो गई थी। तब यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, नटवर सिंह अमर सिंह और सीताराम येचुरी संसद के दोनों सदनों से एक प्रस्ताव पास करवाने की रणनीति बना रहे थे। योजना यह थी कि संसद से ऐसा प्रस्ताव पास करवा दिया जाए, जिसके तहत एटमी करार पर ऐसी शर्तें लागू हो जाएं, जिनसे भारत पर हाईड एक्ट के प्रावधानों का असर न हो। यह फैसला लेने का वक्त था, लेकिन वामपंथी दलों को प्रधानमंत्री ने यह कहकर राजी कर लिया कि विदेशी करार पर संसद की मंजूरी लेने से सरकार के संविधान प्रदत अधिकारों का हनन होगा। इसलिए सरकार की तरफ से अब यह कहा जाना हास्यास्पद है कि संसद ने एटमी करार पर मंजूरी दे दी है। सरकार अगर सांसदों की खरीद-फरोख्त से अपने बहुमत साबित करने को ही एटमी करार पर संसद की मंजूरी मानती है, तो उसे संसद के दूसरे सदन राज्यसभा से भी मंजूरी लेनी चाहिए।
असल में अगस्त 2007 ही वह निर्णायक मौका था जब वामपंथी दलों को अपने वोटों का इस्तेमाल करना चाहिए था। जिस तरह वह अब करार के खिलाफ खड़ी हुई, उसी तरह तब खड़ी हो जाती तो अमेरिका से गैर बराबरी वाले एटमी करार से बचा जा सकता था। सरकार तो अगस्त 2007 में ही समझ गई थी कि वामपंथियों का समर्थन रहते हुए एटमी करार पर आगे बढ़ना मुश्किल होगा। इसलिए सरकार ने रणनीति के तहत वामपंथियों को बहकाकर एटमी करार के मुद्दे पर यूपीए-लेफ्ट समन्वय समिति बनाने को राजी कर लिया। एक तरफ सरकार वामपंथियों से बात कर रही थी, तो दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी से समर्थन की गुहार लगा रही थी, ताकि इस मुद्दे पर वामपंथी दलों के समर्थन वापसी की हालत में चुनावों से पहले कम से कम एटमी करार हो जाए। हाईड एक्ट के कई प्रावधान ऐसे हैं, जो अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत की स्वतंत्र विदेशनीति को प्रभावित करने का हुक्म देते हैं। भारत से ईरान के मामले में अमेरिका को सहयोग देने की उम्मीद की जाती है और साफ कहा जाता है कि अगर एटमी करार के बाद भारत परमाणु विस्फोट करता है, तो अमेरिकी राष्ट्रपति सारे रिएक्टर और यूरेनियम वापस लेने की कार्यवाही करेंगे। संयुक्त राष्ट्र में या भारत की संसद में अटल बिहारी वाजपेयी का यह कहना अलग बात है कि भारत अब खुद-ब-खुद कोई एटमी परीक्षण नहीं करेगा, लेकिन किसी विदेशी कानून के तहत परीक्षण पर रोक लगना एकदम अलग बात है। यह सीधे-सीधे भारत की सार्वभौमिकता में दखल है। यहां यह बताना भी माकूल रहेगा कि अमेरिकी परमाणु ऊर्जा व्यापार कानून के तहत अमेरिका सिर्फ उन्हीं देशों से एटमी ईंधन का व्यापार कर सकता है, जिन्होंने एनपीटी पर दस्तखत किए हों। परमाणु ईंधन व्यापार का करार इसी कानून की धारा वन-टू-थ्री के तहत होता है। भारत ने क्योंकि एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए, इसलिए राष्ट्रपति बुश ने नया हाईड एक्ट बनवाकर भारत को वन-टू-थ्री के तहत करार करने की इजाजत दिलाई है। इसलिए हाईड एक्ट ही वह मूल आधार है, जिसके तहत वन-टू-थ्री एग्रीमेंट होगा। भारत से वन-टू-थ्री एग्रीमेंट के लिए हाईड एक्ट ने जो शर्तें लगाई हैं, उनका पालन नहीं हुआ तो करार कभी भी रद्द हो सकता है। पता नहीं मनमोहन सिंह सरकार बार-बार संसद के भीतर और बाहर यह क्यों कह रही है कि हाईड एक्ट लागू नहीं होगा।
सरकार जब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का समर्थन हासिल करने में विफल रही, तो अमेरिका को भारतीय राजनीतिक परिस्थितियों से अवगत करवाया गया। राष्ट्रपति बुश ने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को मनाने के लिए अपने दूत भेजे। तभी बीच का रास्ता निकालते हुए अपने मुंबई दौरे के समय लालकृष्ण आडवाणी ने हाईड एक्ट का भारत पर प्रभाव रोकने के लिए संसद से एक कानून पास करवाने का सुझाव दिया था। उन्होंने कहा था कि अगर सरकार ऐसा कानून बना दें, जिसमें यह स्पष्ट हो कि दुनिया के किसी देश का कानून भारत के साथ किसी विदेशी करार पर लागू नहीं होगा, तो भाजपा एटमी करार पर पुनर्विचार करने को तैयार हो सकती है। अब मनमोहन सिंह सरकार इस तरह के कानून की बात कह रही है, जबकि उस समय केंद्र के सभी मंत्रियों ने उनके इस सुझाव की खिल्ली उड़ाई थी। अमेरिकी दूतों को जब भाजपा नेताओं को मनाने में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्र समेत उन सभी प्रमुख लोगों से मुलाकात की, जो करार के खिलाफ थे। इनमें समाजवादी पार्टी के नेता भी शामिल थे, जो वामपंथियों के साथ मिलकर लखनऊ से लेकर दिल्ली तक एटमी करार के खिलाफ रैलियां कर रहे थे।
पिछले करीब-करीब दो दशकों से वामपंथियों के साथ मिलकर तीसरे मोर्चे की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह का निर्णायक समय पर पाला बदल लेने की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। मार्च महीने में ही यह लगने लगा था कि एटमी करार पर जून के आखिर तक सरकार को आखिरी फैसला करना होगा। वामपंथी मान नहीं रहे थे और वामपंथियों के बिना करार को आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा था। ठीक उसी समय समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह का अमेरिका जाना और लौटते ही वामपंथियों का साथ छोड़कर करार के मुद्दे पर अचानक सरकार के हक में हो जाने से अमेरिकी भूमिका स्पष्ट हो जाती है। मनमोहन सिंह ने अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश से सलाह मशविरा करते हुए बड़ी चतुराई से संसद को एटमी करार से अलग कर दिया। उन्होंने वामपंथियों के विरोध को दर-किनार करते हुए भारत और आईएईए के तकनीकी विशेषज्ञों की बातचीत पर आधारित सेफगार्ड एग्रीमेंट ड्राफ्ट को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी से मंजूर करवाने की प्रक्रिया शुरू कर दी। चार जुलाई से छह जुलाई के बीच केंद्रीय मंत्रिमंडल के कम से कम तीन मंत्रियों ने सार्वजनिक तौर पर बयान दिया कि सरकार सेफगार्ड एग्रीमेंट के लिए जल्द ही आईएईए गवर्निंग बोर्ड के पास जा रही है। जबकि प्रधानमंत्री ने वामपंथी दलों से वादा किया हुआ था कि जब तक यूपीए-लेफ्ट समन्वय समिति किसी नतीजे पर नहीं पहुंचती, सरकार सेफगार्ड एग्रीमेंट नहीं करेगी। जब प्रकाश करात ने सात जुलाई को प्रणव मुखर्जी को चिट्ठी लिखकर सरकार की मंशा पूछी, तो उन्होंने जवाबी चिट्ठी में कहा कि दस जुलाई को समन्वय समिति की बैठक में फैसला लिया जाएगा। लेकिन सरकार ने उसी दिन सात जुलाई को ही आईएईए को सेफगार्ड ड्राफ्ट गवर्निंग बोर्ड के पैंतीस सदस्य देशों को भेजने के लिए लिख दिया, ताकि अगली मीटिंग में इस पर विचार हो सके। इतना ही नहीं, अलबत्ता भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर भी उसी दिन सेफगार्ड ड्राफ्ट चढ़ा दिया गया था, करात की चिट्ठी के बाद उसे जारी करने से रोका गया। आज भी कोई वेबसाइट से करार का प्रिंट आउट निकालेगा, तो उस पर सात जुलाई की तारीख लिखी हुई मिलेगी। मनमोहन सिंह ने सोची समझी रणनीति के तहत वामपंथियों को एटमी करार के मुद्दे पर समर्थन वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया, क्योंकि इस मुद्दे पर वह संसद में अब और बहस नहीं करवाना चाहते थे। मनमोहन सिंह को पता था कि एटमी करार के मुद्दे पर संसद की सहमति नहीं ली जा सकती, इसलिए उन्होंने वामपंथियों के समर्थन वापसी पर विश्वासमत हासिल करने की रणनीति बनाई। उन्होंने अल्पमत सरकार को बचाने के लिए जिस तरह खरीद-फरोख्त का तरीका अख्तियार किया, उसे न तो लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुकूल माना जा सकता है, और न ही एटमी करार पर संसद की सहमति।
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