नई दिल्ली | भाजपा की केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को करारा झटका लगा है | दिल्ली हाई कोर्ट ने "आप" के बर्खास्त 20 विधायकों को फिलहाल विधानसभा में जाने की इजाजत दे दी है | हाईकोर्ट ने कहा कि चुनाव आयोग ने आप के विधायकों को अपनी बात रखने का पर्याप्त मौक़ा नहीं दिया | हाईकोर्ट के आदेश के तुरंत बाद आप के विधायक विधानसभा पहुंच गए , और हां चल रही विधानसभा की कारवाही में हिस्सा लिया | अब चुनाव आयोग के सामने दो विकल्प हैं, या तो वह दुबारा सुनवाई शुरू करे या अब कुछ न करे |
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने फैसले का स्वागत करते हुए ट्वीट किया, 'सत्य की जीत हुई।'
सुनवाई के समय कोर्ट में 15 से ज्यादा पूर्व विधायक भी मौजूद थे। फैसला आते ही 'आप' के खेमे में खुशी की लहर दौड़ गई। 'आप' नेता सौरभ भारद्वाज ने कहा है कि विधायकों को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया गया था। अब कोर्ट ने उन्हें यह मौका दिया है। चुनाव आयोग दोबारा इस मामले की सुनवाई करेगा। गौरतलब है कि जनवरी में 'आप' विधायकों ने अपनी सदस्यता रद किए जाने के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट का रुख किया था। इसके बाद हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी इस मामले में फैसला आने तक उपचुनाव नहीं कराने का आदेश दिया था।याचिकाकर्ता प्रशांत पटेल ने कहा, 'कोर्ट ने कहा है कि यह केस दोबारा खुलेगा। मैंने केवल एक संवैधानिक मुद्दा उठाया था, मेरे लिए यह कोई झटका नहीं है।'
संविधान का अनुच्छेद 102 (1) (a) और 191(1) (a) कहता है कि संसद या फिर किसी विधानसभा का कोई भी सदस्य अगर लाभ के किसी भी पद पर होता है, उसकी सदस्यता जा सकती है। यही नहीं दिल्ली एमएलए (रिवूमल ऑफ डिसक्वालिफिकेशन) एक्ट 1997 के अनुसार भी संसदीय सचिव को भी इस लिस्ट से बाहर नहीं रखा गया है। मतलब साफ है कि इस एक्ट के आधार पर इस पद पर होना 'लाभ का पद' माना जाता है। दिल्ली के किसी भी कानून में संसदीय सचिव का उल्लेख नहीं है, इसीलिए विधानसभा के प्रावधानों में इनके वेतन, भत्ते सुविधाओं आदि के लिए कोई कानून नहीं है।
दिल्ली में संसदीय सचिव पद की शुरुआत सबसे पहले भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा ने की थी। वर्मा ने एक संसदीय सचिव पद की शुरुआती की, लेकिन इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस की शीला दीक्षित ने इसे बढ़ाकर तीन कर दिया। कांग्रेस और भाजपा ने आपसी तालमेल के कारण इस पद की वैधता पर कभी सवाल नहीं उठाए। लेकिन आम आदमी पार्टी ने पिछली कांग्रेस सरकार से सात गुना ज्यादा, 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर इस पूरे विवाद को जन्म दिया।
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