कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी के मुख्यमंत्रियों और राज्य के प्रभारी महासचिवों को बुलाकर लोकसभा चुनावों की तैयारी करने को कह दिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अब भी भरसक कोशिश है कि वामपंथियों के समर्थन वापस लेने से पहले अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी से भारत के लिए नए सेफगार्ड तय हो जाएं, ताकि यूरेनियम आयात के रास्ते खुल जाएं। इसके बाद भले ही अमेरिका से वन-टू-थ्री एक्ट के तहत करार पर दस्तखत होने से पहले उनकी सरकार गिर जाए। प्रणव मुखर्जी और प्रकाश करात यही रास्ता निकालने की कोशिशों में जुटे हुए हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
आखिर दोनों को पता है कि चुनाव के बाद फिर इकट्ठा होना पड़ेगा, लेकिन बिना आपस में तकरार के अलग हुए तो दोनों को चुनाव में नुकसान भी होगा। वामपंथियों को अमेरिका से करार के मुद्दे पर संबंध तोड़ने में अल्पसंख्यक वोटों का फायदा दिख रहा है, जबकि कांग्रेस को इस मुद्दे पर सरकार गिराने से चुनाव में कोई फायदा नहीं होगा। वामपंथी दलों को एटमी ऊर्जा रिएक्टरों के लिए यूरेनियम के आयात पर कोई आपत्ति नहीं है। उन्हें सिर्फ अमेरिका से करार पर आपत्ति है, क्योंकि अमेरिका से करार उस हाईड एक्ट के तहत होगा जिसमें भारत की विदेशी और एटमी नीति प्रभावित होगी। दूसरी तरफ कांग्रेस की भरसक कोशिश है कि लोकसभा के मध्यावधि चुनावों को फरवरी 2009 तक टाला जाए, ताकि चुनावों पर महंगाई का असर न पड़े। इस बीच कांग्रेस अगस्त में संसद से कुछ लोकलुभावन कानून पास करवा लेना चाहती है। जिनमें महिला आरक्षण भी शामिल है। इसीलिए फैसला हो जाने के बावजूद वामपंथी दलों की मनुहार जारी है। चुनाव अप्रेल में हों या फरवरी में, इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। फर्क तब पड़ेगा, अगर चुनाव नवंबर-दिसंबर में छह विधानसभाओं के साथ करवाने पड़े। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, मिजोरम और जम्मू-कश्मीर की विधानसभाओं का कार्यकाल नवंबर-दिसंबर में खत्म हो रहा है। वैसे कांग्रेस का इरादा लोकसभा के साथ ही असम और आंध्र प्रदेश विधानसभाओं का चुनाव करवाने का भी है। जुलाई-अगस्त में लोकसभा भंग हुई, तो चुनाव आयोग छह विधानसभाओं के साथ ही मध्यावधि चुनाव करवाना चाहता है। आयोग के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह लोकसभा भंग होने के पांचवें या छठे महीने में ही चुनाव करवाए। चुनाव आयोग ने कर्नाटक के मामले में भी कांग्रेस की सलाह नहीं मानी थी। देशभर की मतदाता सूचियां बनने का काम करीब-करीब पूरा होने वाला है। अगस्त के आखिर तक नए परिसीमन के मुताबिक मतदाता सूचियां प्रकाशित कर दी जाएंगी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की ओर से चुनावी तैयारियों की शुरूआत से साफ है कि मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी कांग्रेस के मनमाफिक जनवरी तक इंतजार नहीं करेंगे। वैसे भी उनका कार्यकाल 21 अप्रेल 2009 को खत्म हो रहा है।
सही वक्त पर अप्रेल-मई में लोकसभा चुनाव हों, तो कांग्रेस को मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी के कड़े तेवरों का सामना नहीं करना पड़ेगा। चुनावी गणित के हिसाब से भी यूपीए ने नवीन चावला को चुनाव आयुक्त बनाया था। मनमोहन सिंह की एटमी करार पर जिद के कारण जल्द चुनाव न करवाने पड़े तो लोकसभा के आम चुनाव नवीन चावला के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद होंगे। कांग्रेस ने अमेरिका से एटमी करार के लिए अपनी सरकार को दाव पर लगाने का फैसला कर लिया है। कई दिनों से गलियारों में घूम रही खबर अब अखबारों में छपने लगी है कि एटमी करार पर कांग्रेस को अपने साथ खड़ा करने के लिए मनमोहन सिंह ने इस्तीफे की धमकी दी थी। जिस दिन गलियारों में चर्चा शुरू हुई थी, उसी दिन कांग्रेस ने इसका जोरदार खंडन किया था। वामपंथियों की नुक्ताचीनी से तंग आकर वह पहले भी कई बार इस्तीफे की धमकी दे चुके। घोर अमेरिका समर्थक और वामपंथी विरोधी होने के कारण एक-आध बार तो कांग्रेस में भी बदलाव की सुगबुगाहट चली थी। मनमोहन सिंह ने ऐसी सुगबुगाहटों की कभी परवाह नहीं की। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का न तो कभी सपना देखा था और न ही इच्छा जाहिर की थी। यह पद तो उस समय उनकी झोली में आकर गिरा था, जब राष्ट्रपति भवन से लौटकर सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा त्याग दी थी। अट्ठारह मई 2004 की रात संसद के सेंट्रल हाल में सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नहीं बनने की अपनी मजबूरी का एलान किया था, तो अर्जुन सिंह, मणिशंकर अय्यर, गोबिंदा और रेणुका चौधरी ने जमकर आंसू बहाए थे। अगले दिन सोनिया गांधी ने इनमें से किसी को प्रधानमंत्री नियुक्त नहीं किया। अलबत्ता मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया था, क्योंकि उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी। सोनिया गांधी की पसंद पर सवाल उठाने की हिम्मत किसी में नहीं थी लेकिन अर्जुन सिंह, प्रणव मुखर्जी, एनडी तिवारी जैसे दिग्गज कसमसाकर रह गए थे। मनमोहन सिंह जब-जब संकटों से घिरे या जब-जब वामपंथियों ने उन पर प्रहारों की भाषा कड़ी की, सोनिया गांधी ढाल बनकर उनका बचाव करती रहीं। अब एटमी करार पर मनमोहन सिंह की वामपंथियों से निर्णायक जंग के समय इस बार भी ऐसा ही हुआ है। मनमोहन सिंह को न तो इस्तीफे की धमकी देनी पड़ी, न इस्तीफा देना पड़ा, न कांग्रेस में प्रधानमंत्री बदलने पर कोई विचार हुआ।
अब जबकि नवंबर से फरवरी के बीच कभी भी चुनाव होने पर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के तौर पर छह-आठ महीने ही बाकी रह गए हैं, तो उनके कार्यकाल के सबसे बुरे दिन चल रहे हैं। लोग कमर तोड़ती महंगाई को देखकर यूपीए राज की राजग राज से तुलना करने लगे हैं। खाद्यान्न, सब्जियों और रसोई गैस की कीमतों और उपलब्धता की तुलना की जा रही है। राष्ट्रीय राजमार्गों से लेकर प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना और सर्वशिक्षा अभियान की तुलना हो रही है। अटल बिहारी वाजपेयी की तरह मनमोहन सिंह देश को कोई नई दिशा नहीं दे पाए। उनका सारा ध्यान कांग्रेस के वोट बैंक बनाने पर ही सीमित रहा। चाहे उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण हो या अल्पसंख्यकों के लिए बजट में खास प्रावधान रखने का मामला हो। दस जनपथ पर निर्भर होने के कारण मनमोहन सिंह कई मौकों पर कमजोर प्रधानमंत्री भी साबित हुए। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी शुरू से ही मनमोहन सिंह पर अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री होने का कटाक्ष करते रहे हैं। मनमोहन सिंह खुद भी अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता के चलते ऐसे मौके मुहैया करवाते रहे हैं, जब विपक्ष को उन पर कटाक्ष करने का मौका मिले। वह सारी उम्र राजनीतिज्ञों के मातहत काम करते रहे हैं, 1991 से 1996 तक वित्त मंत्री के तौर पर भी उनकी राजनीतिक भूमिका नहीं के बराबर थी, लेकिन तब राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी नरसिंह राव विकट परिस्थितियों को संभाल लेते थे। प्रधानमंत्री पद पर काम करने में भी उन्हें कोई मुश्किल पेश नहीं आती, अगर उनकी फौरी बॉस सोनिया गांधी भी नरसिंह राव की तरह राजनीतिक तौर पर अनुभवी होती। मनमोहन सिंह यह कमी अनुभवी सलाहकारों के जरिए पूरी कर सकते थे, जैसे सोनिया गांधी यह कमी वक्त-वक्त पर गुलाम नबी, अंबिका सोनी, अहमद पटेल के जरिए करती रही हैं। लेकिन उन्होंने अपने सलाहकार भी राजनीति के अनुभवी नहीं चुने, यहां तक कि अपना मीडिया सलाहकार भी एक आर्थिक अखबार का संपादक चुना। वह न तो सबको साथ लेकर चल सके, न अपने सहयोगी सलाहकारों की टीम खड़ी कर सके, जो वक्त से पहले संकटों से आगाह कर सकती। संसद में उनकी सरकार अनेक बार अल्पमत में दिखाई दी, जब वामपंथी दलों ने किसी न किसी मुद्दे पर वाकआउट किया। उन्हें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी से सबक लेना चाहिए था। जिन्होंने मीडिया के धुरंधर एचवाई शारदा प्रसाद, सुमन दुबे, प्रेम शंकर झा, केपी श्रीवास्तव, एचके दुआ और अशोक टंडन जैसे प्रेस सलाहकार चुने। नरसिंह राव ने जितेंद्र प्रसाद जैसा धुरंधर और अटल बिहारी वाजपेयी ने बृजेश मिश्र जैसा राजनीतिक पृष्ठभूमि के कूटनीतिक सलाहकार चुना, जो राजनीतिक-कूटनीतिक संकटों को वक्त से पहले सूंघ लेते थे। मनमोहन सिंह की पिछले हफ्ते हुई गलती उनका राजनीतिक या मीडिया सलाहकार वक्त रहते सुधार सकता था। देश के पहले फील्ड मार्शल मानेक शॉ के देहांत पर प्रधानमंत्री को खुद जाना चाहिए था, या कम से कम उन्हें किसी केबिनेट मंत्री को जिम्मेदारी देनी चाहिए थी। मानेक शॉ वह हस्ति थे, जिन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने में अहम भूमिका निभाई थी और पाकिस्तान में तिरंगा फहराया था। लेकिन अपरिपक्व प्रधानमंत्री होने की वजह से उनके देहांत पर तिरंगा नहीं झुका। दाह संस्कार के अगले दिन विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे फोन करके कहा कि कम से कम राष्ट्रीय ध्वज झुकना चाहिए था, तो मनमोहन सिंह ने कहा कि गलती हो गई, अब तो कुछ नहीं हो सकता। लेकिन मनमोहन सिंह अपने पांच साल के कार्यकाल में कभी भी नेहरू, इंदिरा, राजीव के जन्मदिन या पुण्यतिथि पर उनकी समाधियों पर फूल चढ़ाना नहीं भूले।
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