अमेरिका के साथ एटमी करार को लेकर यूपीए सरकार इतने गंभीर संकट में है कि देश पर मध्यावधि चुनावों के बादल मंडरा रहे हैं। असल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जुलाई 2005 में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के साथ एटमी करार पर साझा बयान जारी करने से पहले ही राजनीतिक मजबूरियों को समझ लेना चाहिए था। वह उन वामपंथी दलों के समर्थन से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर हैं, जिन्हें अमेरिका फूटी आंख नहीं सुहाता।
वामपंथी दलों ने कांग्रेस के साथ विदेश और आर्थिक नीतियों में गहरे मतभेद होने के बावजूद उन्हें सरकार बनाने के लिए इसलिए समर्थन दिया था ताकि भाजपा सत्ता से बाहर रहे। वह वामपंथियों की मजबूरी के कारण प्रधानमंत्री बने थे इसलिए उन्हें विदेश नीति से जुड़े किसी भी फैसले से पहले वामपंथियों को भरोसे में लेना चाहिए था। वैसे तो बेहतर होता, अगर मनमोहन सिंह अमेरिका के साथ एटमी करार करने से पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी भरोसे में लेते। आखिर लोकसभा चुनाव में दोनों दलों के जनादेश में उन्नीस-इक्कीस का ही फर्क था। जब जवाहर लाल नेहरू के पास अपार जनादेश होता था, तब भी वह विपक्षी दलों को भरोसे में लेकर चलते थे। नरसिंह राव ने अपने विदेश मंत्री को कमजोर समझते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मुद्दे पर भारतीय पक्ष रखने के लिए विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भेजा था। वाजपेयी को तो पूरा जनादेश हासिल था, वह चाहते तो इराक में फौज भेज देते, लेकिन उन्होंने अमेरिकी दबाव में आने के बजाए सर्वदलीय बैठक बुलाकर न सिर्फ विपक्ष की राय ली, अलबत्ता देश की आम राय के मुताबिक इराक पर अमेरिकी हमले की निंदा का संसद से प्रस्ताव भी पास करवाया।
अब यह कहना देश को ब्लैकमेल करने जैसा है कि एटमी करार सिरे न चढ़ा तो दुनियाभर में भारत की हंसी उड़ेगी। अगर ऐसा होता है तो इस स्थिति के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही जिम्मेदार होंगे, क्योंकि उन्होंने जनादेश और अपने सहयोगियों को नजरअंदाज करके बुश से करार किया था। उन्होंने इतने विवादास्पद मुद्दे पर विपक्ष की राय लेना भी उचित नहीं समझा। यह सिर्फ एटमी ऊर्जा ईंधन हासिल करने का करार नहीं है, अलबत्ता इस करार के बाद भारत की एटमी ताकत बनने की हसरत हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। यह सिर्फ एटमी ऊर्जा ईंधन का करार नहीं है, अलबत्ता इसके बाद भारत की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एटमी ताकत के नाते स्थाई सीट हासिल करने की मुहिम भी खत्म हो जाएगी। यह सिर्फ एटमी ऊर्जा ईंधन का करार नहीं है, अलबत्ता भारत की स्वतंत्र विदेशनीति को अमेरिका का बंधक बनाने का करार है। शब्दों के हेर-फेर के साथ ये सभी बातें मोटे तौर पर उस हाईड एक्ट में दर्ज हैं, जिसके तहत अमेरिकी सरकार को भारत के साथ वन-टू-थ्री एटमी ऊर्जा ईंधन समझौता करने की इजाजत मिली है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रपति बुश के साथ समझौता करने से पहले अपने मिशन को इसलिए पूरी तरह गुप्त रखा था, क्योंकि उन्हें सरकार के भीतर और बाहर समझौते का विरोध होने की जानकारी थी। अब भले ही सोनिया गांधी पूरी तरह मनमोहन सिंह के साथ खड़ी दिखाई दे रही हों, लेकिन बुश-मनमोहन साझा बयान के समय मौजूद तत्कालीन विदेशमंत्री नटवर सिंह खुलासा कर चुके हैं कि सोनिया गांधी को भी पहले जानकारी नहीं थी।
एटमी ऊर्जा के लिए भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में यूरेनियम के भंडार मौजूद हैं, लेकिन हम राजनीतिक कारणों से उसकी खुदाई नहीं कर पा रहे। आर्थिक और तकनीक प्रतिबंधों के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने थोरियम का इस्तेमाल करके एटमी ऊर्जा पर काम करने का सुझाव दिया था। भारत सरकार अमेरिका के सामने घुटने टेकने के बजाए अपने यूरेनियम की खुदाई और थोरियम भंडारों से एटमी ऊर्जा हासिल करने का काम शुरू करती, तो दुनिया हमारे सामने नत्मस्तक होकर खड़ी होती। बिना एनपीटी पर दस्तखत किए भारत का एनएसजी देशों से एटमी ऊर्जा ईंधन यूरेनियम हासिल करना इतना आसान होता, तो वाजपेयी सरकार कर चुकी होती। कुछ महीने पहले राज्यसभा में टालबोट के हवाले से विपक्ष के नेता जसवंत सिंह पर आरोप लगाया गया था कि राजग सरकार के समय वह तो एनपीटी पर दस्तखत करने को भी तैयार थे। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में कहा कि समझौते का प्रारूप राजग सरकार के समय ही तैयार हो गया था। यह सही है कि उस समय जसवंत सिंह और टालबोट में कई दौर की बातचीत एटमी विस्फोटों के बाद भारत पर लगे आर्थिक और तकनीक हस्तांतरण संबंधी प्रतिबंधों को खत्म करने के सिलसिले में ही हुई थी, ताकि भारत को एटमी ऊर्जा ईंधन मिल सके। वाजपेयी सरकार के समय महत्वपूर्ण पद पर रहे एक अधिकारी ने इस बात की इस तरह पुष्टि की है कि देश को एटमी ताकत बना लेने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट के बदले एनपीटी पर दस्तखत करने को तैयार थे। इससे भारत को एटमी महाशक्ति की मान्यता मिल जाती।
मनमोहन सिंह और जार्ज बुश ने जिस दिन वाशिंगटन में एटमी ऊर्जा सहयोग का साझा बयान जारी किया था, उस रात सबसे पहला विरोध अटल बिहारी वाजपेयी ने ही जताया था। यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि वाजपेयी सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट के बदले एनपीटी पर दस्तखत करने को तैयार हुए थे, लेकिन मनमोहन सिंह ने स्थाई सीट पर दावा छोड़कर एटमी ऊर्जा ईंधन के बदले अमेरिकी दास्ता जैसी शर्तें कबूल कर ली थीं। इससे तो बेहतर होता मनमोहन सिंह एनपीटी पर दस्तखत करके आर्थिक और तकनीक संबंधी प्रतिबंध हटवा लेते, जिससे विदेशनीति के मामले में अमेरिकी शर्तें तो नहीं माननी पड़ती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी बार-बार कह रहे हैं कि न तो भारत का एटमी विस्फोट करने का हक खत्म होगा, न ही भारत की स्वतंत्र विदेशनीति प्रभावित होगी। लेकिन हाईड एक्ट इन दोनों बातों के बारे में एकदम साफ है। जरूरत पड़ने पर भारत ने एटमी विस्फोट किया तो न सिर्फ यूरेनियम की सप्लाई बंद हो जाएगी, अलबत्ता सभी रिएक्टर भी वापस करने होंगे। अमेरिका ने भारत को छूट सिर्फ इतनी दी है कि रिएक्टरों की उस समय की कीमत अदा की जाएगी। विदेशनीति प्रभावित होने का अंदाज तो इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी दबाव में हमने ईरान के खिलाफ दो बार वोट किया।
शुरू से यह आशंका रही है कि करार को जल्द से जल्द सिरे चढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी अमेरिका की है, क्योंकि अमेरिकी उद्योगपतियों को लाखों करोड़ का बिजनेस मिलेगा। इसलिए एटमी ऊर्जा ईंधन करार के साथ राजनीतिक चंदे का रिश्ता भी गहरा जुड़ा है। अपने रिएक्टर बेचने के लिए अमेरिकी उद्योगपतियों के भारत में दौरे बढ़ गए हैं और उनकी राजनीतिक नेताओं से मेल-मुलाकातें भी बढ़ी हैं। अमेरिकी राजदूत समेत अमेरिकी कूटनीतिक लॉबी प्रमुख विपक्षी दल भाजपा को एटमी करार के पक्ष में करने के लिए हर तरीका इस्तेमाल कर चुकी है। राष्ट्रपति बुश की तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी करार को नाक का सवाल बनाकर अड़े हुए हैं। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी यह अच्छी तरह जानते हैं कि वामपंथी दलों ने समर्थन वापस भी लिया, तो भी वे यूपीए की अल्पमत सरकार चलने देंगे। लेकिन ऐसी स्थिति पैदा होने पर अल्पमत सरकार किस नैतिक आधार पर एटमी करार को आगे बढ़ा सकेगी। चुनाव करवाना ही सही विकल्प होगा। एटमी करार के मुद्दे पर अगर मध्यावधि चुनावों का सामना करना पड़ता है, तो कांग्रेस को बड़े उद्योगपतियों से बेशुमार चंदा भले ही मिल जाए, लेकिन यह कांग्रेस की राजनीतिक गलत चाल होगी। कांग्रेस अमेरिकी इशारों पर नाचने वाले पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के हश्र से सबक नहीं सीख रही, जबकि पाकिस्तान से ही सबक लेकर वामपंथी दल अमेरिका विरोधी मुस्लिम वोटरों पर नजर टिकाए हुए हैं।
आपकी प्रतिक्रिया