तिब्बत और जम्मू कश्मीर पर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की दो महान गलतियां हमारी कूटनीतिक अपरिपक्वता का पीछा नहीं छोड़ रही। राजा हरि सिंह शुरू में जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र रखने के पक्ष में थे। लेकिन पाकिस्तान ने कबायलियों को आगे करके कश्मीर पर कब्जे की कोशिश शुरू की तो राजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी और विभिन्न नेताओं के दखल से कश्मीर का भारत में विलय कर दिया। गृहमंत्री सरदार पटेल ने पाकिस्तान की ओर से हड़पा हुआ क्षेत्र वापस लेने के लिए फौज भिजवा दी थी, लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने माउंटबेटेन की सलाह पर यह मामला संयुक्त राष्ट्र को सौंप दिया। जिसमें ब्रिटेन और अमेरिका ने भारत का साथ नहीं दिया, अलबत्ता जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह का फैसला करवा दिया। तब से हड़पा हुआ जम्मू कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है।
यहां बात सिर्फ कब्जे की नहीं, अलबत्ता जम्मू कश्मीर एक ऐसा नासूर बन गया है जो साठ साल से भारत की शांति और विकास में बाधक है। पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर के हड़पे हुए हिस्से में से कुछ हिस्सा चीन को सौंप रखा है। जवाहर लाल नेहरू ने दूसरी गलती तिब्बत के मामले में की। जवाहर लाल नेहरू ने 1954 में चीन के साथ किए पंचशील समझौते में तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मान लिया। जबकि ऐतिहासिक तथ्य इसके विपरीत था, तिब्बत हमेशा से स्वतंत्र राज्य रहा है, तिब्बत से पहली गलती 1788 में हुई थी जब नेपाल की ओर से हमला किया जाने पर दलाईलामा ने चीन से मदद मांगी। चीन ने इस शर्त पर तिब्बत की मदद की, कि भविष्य में दलाईलामा या पंचेनलामा की नियुक्ति पर उसकी भूमिका रहेगी। इस तरह तिब्बत ने विदेशी आक्राता से बचने के लिए मजबूरी में चीन की यह शर्त मानी थी। भारत पर ब्रिटेन का कब्जा होने के बाद 1904 में ब्रिटिश फौज ने तिब्बत पर हमला बोलकर कब्जा कर लिया। तिब्बत पर कब्जा करने की संधि पर दस्तखत करने से पहले दलाईलामा मंगोलिया भाग गए थे। इसके बावजूद ब्रिटिश भारतीय सरकार ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था और बाद में चीन के हाथों ढाई करोड़ में बेच दिया। भारत की जनता ब्रिटिश राज को हमेशा गुलामी करार देती रही है, तो ब्रिटिश राज की ओर से हथियाए गए तिब्बत को चीन के हाथों बेचना क्या गुलामी से भी बदत्तर नहीं था। इसके बावजूद जवाहर लाल नेहरू ने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग कहकर क्या गुलामी की तरफदारी नहीं की थी।
ब्रिटिश सरकार से ढाई करोड़ रुपए में खरीदने के बावजूद चीन का तिब्बत पर कब्जा नहीं हो सका, इसकी वजह यह थी कि तिब्बत में कड़ा विरोध जारी था और वहां की संस्कृति चीन से मेल नहीं खाती थी। चीन के फौजी शासकों ने 1947 तक तिब्बतियों पर अत्याचार जारी रखे, उनके साथ गुलामों जैसा वैसा ही सलूक किया गया, जैसा भारत में ब्रिटिश फौज करती थी। 1947 में भारत को तो आजादी मिल गई, लेकिन तिब्बत को चीन से आजादी नहीं मिली। तिब्बत का संघर्ष भी तेज हो गया था, लेकिन भारत में आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1954 में चीन से दोस्ती करने के लालच में तिब्बत को उसका अभिन्न अंग बता दिया। भारत की नेहरू सरकार से शह पाकर चीनी लाल सेना ने 1959 में तिब्बत पर हमला बोल दिया। तिब्बतियों के धर्मगुरु और वहां के राज शासक दलाईलामा पचास हजार शरणार्थियों के साथ कई दिन पैदल चलने के बाद भारत पहुंचे। नेहरू सरकार ने तब उन्हें राजनीतिक शरण तो दी, लेकिन चीन से दोस्ती बढ़ाने के लालच में उन पर भारत में राजनीतिक गतिविधियां नहीं करने की शर्त भी लगा दी। हालांकि भारत की जनता जवाहर लाल नेहरू की दोनों बातों से कभी भी सहमत नहीं हुई, न तो भारत की जनता तिब्बत को चीन का अंग मानने को कभी तैयार हुई और न ही दलाईलामा पर लगाई गई शर्त कभी भारतीय जनमानस के गले उतरी। जवाहर लाल नेहरू की चीनपरस्ती के बावजूद चीन ने दलाईलामा को शरण दिए जाने को बर्दाश्त नहीं किया और 1962 में भारत पर हमला कर दिया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने पहले दलाईलामा को शरण देने का विरोध किया और बाद में चीन के हमले के वक्त भारत का साथ देने के बजाए चीन का साथ दिया।
पिछले अढ़तालीस साल से तिब्बत में आजादी का आंदोलन चल रहा है, जिसे चीन की कम्युनिस्ट सरकार उसी तरह दमन करके कुचल रही है, जिस तरह अंग्रेजों ने 1857 का भारतीय आजादी का आंदोलन कुचला था। तिब्बत की आजादी के आंदोलन को भारत की सीपीएम और सीपीआई चीन का अंदरूनी मामला बता रही हैं, और उसकी तुलना जम्मू कश्मीर से कर रही हैं। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों का कहना है कि अगर हम जम्मू कश्मीर के मामले में विदेशी दखल पसंद नहीं करते, तो हमें तिब्बत पर चीन के अंदरूनी मामले में दखल देने का भी कोई हक नहीं। जम्मू कश्मीर की तिब्बत से तुलना करना कितना हास्यास्पद है, जम्मू कश्मीर सदियों-सदियों से विशाल भारत का हिस्सा रहा है, जबकि तिब्बत सदियों-सदियों से स्वतंत्र देश रहा है। जम्मू कश्मीर का विवाद सिर्फ 1947 में शुरू होता है, जबकि तिब्बत 1788 तक स्वतंत्र देश था।
जवाहर लाल नेहरू ने चीन के दबाव में आकर तिब्बत की निर्वासित सरकार को कभी भी मान्यता नहीं दी, लेकिन भारतीय जनमानस के दबाव में कभी भी दलाईलामा पर अपनी निर्वासित सरकार भंग करने का दबाव नहीं बनाया। जवाहर लाल नेहरू का पंचशील का सिध्दांत स्वाहा हो गया था, लेकिन नेहरू के बाद दूसरी गलती 1988 में राजीव गांधी ने की, जिन्होंने अपनी चीन यात्रा के दौरान तिब्बत को फिर से चीन का अभिन्न अंग बताकर तिब्बतियों के आजादी के आंदोलन पर कुठाराघात किया। आरएसएस और उससे जुड़े संगठन शुरू से ही तिब्बतियों के हमदर्द रहे हैं और तिब्बत की आजादी के आंदोलन का समर्थन करते रहे हैं। लेकिन बचपन से स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी जब देश के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने भी 2003 में चीन जाकर जवाहर लाल नेहरू और राजीव गांधी की चीन नीति को दोहराते हुए तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग करार दे दिया। वाजपेयी सरकार के समय से चीन से संबंध सुधारने की शुरूआत को आगे बढ़ाते हुए मनमोहन सरकार ने पूरी तरह घुटने टेक दिए हैं। अब जब चीन में ओलंपिक खेल होने वाले हैं तो अढ़तालीस साल से आजादी का आंदोलन कर रहे तिब्बतियों को अपनी आवाज दुनिया तक पहुंचाने के लिए अच्छा मौका दिखाई दिया और तिब्बत में शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू हो गया। चीन ने अपने पुराने तौर-तरीकों को दोहराते हुए दमनकारी अभियान शुरू कर दिया है और लाल फौज ल्हासा के हर चौक को जलियावाला बाग बना रही है। स्वाभाविक है उसकी प्रतिक्रिया भारत में भी होगी क्योंकि यहां कम से कम एक लाख निर्वासित तिब्बती अपने धर्मगुरु दलाईलामा की रहनुमाई में रह रहे हैं। तिब्बतियों ने दुनियाभर की तरह भारत में भी चीनी अत्याचारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करके आवाज उठाई, प्रदर्शनकारी चीनी दूतावास में भी घुस गए। चीन इससे इतना खफा हुआ कि भारत की राजदूत निरूपमा राव को आधी रात के बाद दो बजे विदेश मंत्रालय में तलब किया। मनमोहन सरकार इतने दबाव में आ गई कि विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने दलाईलामा को भारत में चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधियां नहीं करने की चेतावनी जारी कर दी। तिब्बत के मामले पर भारत में चीन के खिलाफ हमेशा आंदोलन होते रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार ने इन आंदोलनों पर इस तरह आपत्ति नहीं जताई, जिस तरह इस बार मनमोहन सरकार ने जताई है। चीन की ओर से बार-बार अरुणाचल पर दावा जताने के बावजूद मनमोहन सरकार की चीन के आगे दूम हिलाने वाली इस नीति को भारत की आम जनता कतई पसंद नहीं कर रही। लेकिन कम्युनिस्ट और कम्युनिस्ट समर्थक मीडिया तिब्बतियों के साथ खेली जा रही खून की होली को जायज ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। तिब्बतियों की लाशें बिछाई जा रही हों, तो उनके धर्मगुरु दलाईलामा चुप करके तो नहीं बैठ सकते। लेकिन चीन ने तिब्बत के आंदोलन को दलाईलामा की साजिश बताकर भारत सरकार को धमकाना शुरू कर दिया है। क्या दलाईलामा की ओर से चीनी अत्याचारों का विरोध करना हिंसा को बढ़ावा देना है? दलाईलामा तो हिंसा का कड़ा विरोध कर रहे हैं। फिर उसे राजनीतिक गतिविधि करार देना क्या हास्यास्पद नहीं? भारत से अच्छा तो पोलैंड और फ्रांस हैं, जहां की सरकारें चीन की दमनकारी कार्रवाई का कड़ा विरोध कर रहे हैं। ब्रिटेन और अमेरिका में भी चीन के दमनकारी हथकंडों का विरोध हो रहा है, लेकिन लगता है कम्युनिस्टों के समर्थन से चल रही यूपीए सरकार पर अमेरिका विरोध के साथ-साथ चीनपरस्ती का भी दबाव है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की ओर से तिब्बत में किए जा रहे अत्याचारों को चीन का अंदरूनी मामला कहना क्या मानवाधिकारों के उल्लंघन की पैरोकारी नहीं? कुछ ही दिन पहले नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल देने को लालायित दिखाई दे रहे भारत के कम्युनिस्टों को अचानक तिब्बत में हो रहे लाल सेना के अत्याचार वहां का अंदरूनी मामला दिखाई देने लगा। यह कम्युनिस्टों की चीनपरस्ती का नया सबूत है।
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