बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने तुरुप पत्ते खोल दिए हंै। इससे अमित शाह व अखिलेश यादव दोनों को भौचक होना चाहिए। इसलिए कि ये पत्ते दोनों की काट लिए हुए है। एक तरफ उन्होंने मुस्लिम वोटों को विकल्प दिया है तो दूसरी और ब्राह्मण व ऊंची जातियों को भी! रिकार्ड तोड़ 97 मुस्लिम उम्मीदवार और 113 फारवर्ड (जिनमें 66 ब्राह्मण) उम्मीदवार उतारना अखिलेश यादव के लिए उतना ही संकटदायी है जितना अमित शाह के लिए है। यदि अखिलेश यादव ने कांग्रेस, अजितसिंह की लोकदल और जनता दल यू के साथ एलायंस नहीं बनाया और वे मुलायमसिंह, शिवपालसिंह की नाराजगी के बीच चुनाव लड़ते दिखलाई दिए तो उत्तरप्रदेश का मुसलमान अनिवार्य तौर पर मायावती के विकल्प को अपनाएगा। यों सोमवार को एक सर्वे ने मायावती को नंबर तीन पर बताया। अखिलेश यादव और भाजपा में लड़ाई बनती बताई। 403 सीटों में से सपा को 141-151 सीट, भाजपा को 129-139, बसपा को 93-103 सीट और कांग्रेस को 13-19 सीट मिलने का निचोड़ एबीपी न्यूज-लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे में था। लोकनीति-सीएसडीएस की साख और 5- 17 दिसंबर की सर्वे की अवधि का यह निचोड़ अपने लिए हैरानी वाला है। इस अवधि में भी त्रिशंकु विधानसभा का अनुमान अपने गले नहीं उतरा। आखिर यह वक्त नोटबंदी की आम जनता में पोजिटिव हवा का पीक था। मतलब सर्वे में नरेंद्र मोदी और भाजपा की आंधी निकलनी थी। पर यह सर्वे का निष्कर्ष नहीं है तो फिर जातिय समीकरण ही यूपी में मतलब बनाए हुए है। मैंने कल लिखा था कि आज के हालात में नरेंद्र मोदी की गरीबों में वाह है तो जाहिर है मैं फिलहाल जातीय समीकरण को दबा मान रहा हूं। इस एक कारण और समाजवादी पार्टी में सिर फुटव्वल व एलायंस न दिखलाई देने के चलते यूपी का चुनाव 2017 को नरेंद्र मोदी का बनवा सकता है।
मेरी इस थीसिस को न चुनाव सर्वेक्षण पुष्ट करता लगता है और न मायावती की घोषणा में मेरी बात के बीज है। दोनों जातीय समीकरण में ही चुनाव देख रहे है। मायावती की लिस्ट और उनका एंटीना जांत समीकरण पर वोट पड़ने के संकेत लिए हुए है। तभी उन्होने उन ओबीसी जातीयों की चिंता नहीं की जिन पर भाजपा या समाजवादी पार्टी फोकस करते लगते है। उन्होने मुस्लिम-दलित-जाट समीकरण नहीं बनाया और न ही अति पिछड़ों पर फोकस किया। उन्होने अपनी धुरी को 18 प्रतिशत दलित व 20 प्रतिशत मुसलमानों पर ढ़ाला है। साथ में सोचा है कि ब्राह्यण-फारवर्ड के दबंग उम्मीदवारों ने 4-6 प्रतिशत वोट भी अतिरिक्त जुड़वा दिए तो बसपा की आंधी अपने आप फूट पड़ेगी।
जाहिर है मायावती जहां दलितों को ले कर पूरी तरह आश्वस्त है वहीं मुसलमानों पर भी उन्होंने अपना दांव पूरा लगाया है। मुस्लिम वोटों को ले कर उन्हें उम्मीद है कि समाजवादी पार्टी के झगड़े से वह उनकी और मुडेगा। वे मुसलमानों को यह फार्मूला समझा रही है कि वे ब्राह्मण और फारवर्ड वोट भी ले रही है। यदि 66 ब्राह्मण और कुल 113 फारवर्ड उम्मीदवार खड़े कर रही है तो पूर्वी यूपी में हरिशंकर तिवारी के परिवार से ले कर मथुरा में श्याम सुंदर उपाध्याय और सतीश मिश्रा के दलित-ब्राह्मण भाईचारे की उनकी पूंजी मामूली नहीं है। मतलब मायावती की ब्राह्मण – फारवर्ड राजनीति सचमुच में मुसलमान को यह भरोसा देने के लिए है कि वे जीतने वाला समीकरण लिए हुए है।
संदेह नहीं कि यदि फार्मूला क्लिक हो तो बसपा मजे से चुनाव जीत सकेगी। अपना दो टूक मानना है कि उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में दो टूक जीत होगी। आंधी होगी। जैसे सर्वे ने बताया है वैसे कोई त्रिशंकु विधानसभा नहीं आने वाली है। तीनों पक्ष याकि अखिलेश यादव, मायावती और नरेंद्र मोदी अपनी-अपनी आंधी ला सकने में समर्थ है। मायावती ने उसका समीकरण और विकल्प पेश कर दिया है। अखिलेश यादव को यह अभी पेश करना है। भाजपा का जहां सवाल है तो वह यूपी की जमीन की बजाय नरेंद्र मोदी की इमेज का आधार लिए हुए है। उस आधार के फारवर्ड वोटों को काटने के लिए मायावती ने तुरूप चली है। इसे अमित शाह तभी काट सकते है जब वे और ज्यादा ब्राह्यण- फारवर्ड उम्मीदवार खड़े करें। पार्टी को फारवर्ड-ब्राह्मण बनाए।
बहरहाल, मायावती की उम्मीदवार लिस्ट में मौटे तौर पर 45 प्रतिशत वोटों को रिझाने का बंदोबस्त है। इसमें से यदि 32 प्रतिशत वोट भी मिले तो उनके मजे होंगे। उनकी सबसे बड़ी बाधा और चुनौती अखिलेश यादव से है। अखिलेश यादव फिलहाल अपनी इमेज और व्यवहार के कारण मुसलमानों का भरोसा पाए हुए है। यह सोचना फालतू है कि समाजवादी पार्टी टूटेगी और मुलायमसिंह व शिवपाल सिंह अलग चुनाव लड़ेंगे तो उन्हे भी मुसलमान व यादव वोट देंगे। ऐसा कुछ नहीं होगा। यदि अलग-अलग चुनाव की नौबत भी आई तो इनके उम्मीदवारों की जमानते जप्त होगी। दो–चार प्रतिशत वोट भी नहीं मिलेगे। उसकी दशा एक वक्त अमरसिंह की बनाई पार्टी जैसी होगी।
बावजूद इसके अखिलेश यादव का मुसलमान आधार 2012 जैसा तभी बन सकता है जब वे एलायंस बना कर बिहार जैसी हवा यूपी के मुसलमानों में बनाए। यदि अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने अलग-अलग चुनाव लड़ा तो मुसलमान निश्चित ही कंफ्यूज होगा। तब वह जोखिम नहीं लेगा और दलित-ब्राह्मण-फारवर्ड के समीकरण पर भरोसा बना कर मायावती की तरफ झुकेगा।
जाहिर है इस विश्लेषण का आधार जातिय हिसाब है। इस कसौटी में फिलहाल अखिलेश यादव और नरेंद्र मोदी की इमेज का फेक्टर अलग रखा जाए। दोनों की इमेज पर चुनावी प्रचार में मुसलमान कैसे और कितना आश्वस्त होगा, इस पर सोचे तो यह ज्यादा संभव है कि वह भी जातिगत हिसाब ज्यादा लगाए। वह हवा और प्रचार में नहीं बहेगा, जातियों के ठोस समीकरण में सोचेगा। उस नाते अखिलेश यादव- राहुल-जयंत चौधरी-नीतिश कुमार का एलायंस बने तो अलग मतलब है और नहीं बनता है तो मुसलमान की कसौटी पूरी तरह बदली होगी।
तभी उस कसौटी में मायावती ने अपने जातिय समीकरण का विकल्प पेश कर दिया है। उसकी काट में अखिलेश यादव को आगे रणनीति बनानी है तो अमित शाह का तो खैर इन दोनों से अलग ही हिसाब है।
(हरीशंकर व्यास)
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