निशीथ जोशी/ कोई कुछ भी कह दे और मीडिया उसे प्रचारित और प्ररसारित कर दे। बिना तथ्थों को परखे। यह समझे सोचे बिना कि इसका समाज पर साम्प्रदायिक एकता पर क्या असर पडेगा। क्या ऐसे माध्यम दंड के भागी नहीं। आज एक खबर पढ़ी ।।।पूर्व विदेश मंत्री रहे सलमान खुर्शीद ने कुतर्क दिया है कि अगर सामान नागरिक संहिता लागू हो जाती है तो शवों को जलाएंगे या फिर दफनाएंगे। हिंदू धर्म में 11 दिन का शोक होता है मुस्लिम धर्म में 40 दिन का। ऐसे में दोनों व्यवस्थाएं कैसे एक साथ लागू होंगी। या तो सलमान खुर्शीद पत्रकार के ज्ञान का टैस्ट ले रहे थे या वह जानबूझ कर समाज में भ्रम फैलाना चाह रहे थे यह तो वह जाने। पर । यह जो लोग शिक्षित नहीं है या जिनकी समझ विकसित नहीं हो सकी है उनकी धर्मिक भावनाओं को आहत कर भडकाने के लिए काफी हैं । अगर पत्रकार जो इस मुद्दे पर सवाल पूछ रहा था विषय को पढ़ कर जाता तो सलमान खुर्शीद ये पूछ सकता था यह विषय तो समान आचार संहिता के दायरे में ही नहीं है। उसमें तो महिलाओं और बच्चों को भी समान अधिकार देने की बात है ताकि उनके हित संरक्षित किए जा सके। उनको शोषण से बचाया जा सके । संविधान के निर्माताओ ने भी समान आचार संहिता की जरूरत बताई है। आप इसमें धार्मिक परंपराओं से जोड़ कर क्यों समाज को बरगलाने की बात कर रहे हैं ।. पर बिना सोचे समझे सलमान खुर्शीद के कुतर्क को प्रचारित कर दिया गया। क्या मीडिया ऐसा ही होना चाहिए यह बड़ा सवाल है। फिर मीडिया और अनपढ में फर्क क्या । पर क्या ऐसे नेताओं और माध्यमों को कानून के शिकंजे में नहीं कसा जाना चाहिए जो अपने स्वार्थ के लिए समाज को विशाक्त करने और साम्प्रदायिक एकता को खंडित करने का कारण और कारकों बनें या प्रयास करें।
(लेखक हिमाचल दस्तक के सम्पादकीय सलाहाकार हैं.)
आपकी प्रतिक्रिया