अमर उजाला, 25 October 2014
नरेंद्र मोदी को राजनीति आती है। उनका हर कदम सधा हुआ होता है। विरोधियों को समझ में नहीं आ रहा कि मोदी की चालों का मुकाबला कैसे करें। वह शिक्षक दिवस का इस्तेमाल कर लेते हैं। वह भूले-बिसरे रेडियो का इस्तेमाल कर लेते हैं। इसलिए नरेंद्र मोदी ने जब दीपावली पर कश्मीर जाने का फैसला किया, तो विपक्षी दलों में खलबली मच गई। मोदी के दो लक्ष्य थे। पहला सियाचिन जैसे दुर्गम क्षेत्र में तैनात सैनिकों के साथ दीपावली मनाना। दूसरा कश्मीर के बाढ़ पीड़ितों को राहत पैकेज देना।
कांग्रेस को कुछ समझ में नहीं आया, पर उसकी प्रतिक्रिया हताशा भरी थी। उसकी तरफ से अधिकारिक तौर पर कहा गया कि मोदी बाढ़ राहत की राजनीति कर रहे हैं। असल में कांग्रेस को पिछले दस साल से गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री की आदत पड़ चुकी हैं। वह ऐसे मौकों पर निष्प्रभावी हो जाया करते थे। फिर सोनिया गांधी को कभी प्रधानमंत्री, कभी वित्त मंत्री और कभी गृह मंत्री को लेकर आपदा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करना पड़ता था। इसलिए एक राजनीतिक प्रधानमंत्री की चालें कांग्रेस के गले नहीं उतर रहीं। बाढ़ पीड़ितों को दिए गए राहत पैकेज को भी उसने राजनीति कह दिया।नेशनल कांफ्रेंस की शुरुआती प्रतिक्रिया भी यही थी, पर बाद में उसने अपनी प्रतिक्रिया सुधारी। उसे समझ में आ गया कि बाढ़ राहत का पूरा श्रेय नरेंद्र मोदी को चला जाएगा।
नरेंद्र मोदी ने दीपावली पर कश्मीर जाने का फैसला राजनीतिक गोटियां बिछाने के लिए ही किया था। फौजियों के साथ दीपावली मनाकर और बाढ़ पीड़ितों को नया पैकेज देकर मोदी चुनावी गोटी बिछा आए हैं। उन्हें इस दूसरी कश्मीर यात्रा में कुछ नए समर्थक मिले हैं। जैसे हरियाणा के चुनाव में कुछ नए लोग भाजपा के साथ जुड़े थे, वैसा ही कुछ कश्मीर के चुनाव में भी देखने को मिलेगा। लेकिन मोदी का एक लक्ष्य और था। वह था पाकिस्तान को संदेश देना।
दरअसल अक्तूबर का महीना कश्मीर के लिए हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। 26-27 अक्तूबर कश्मीर के भारत में विलय के महत्वपूर्ण दिन हैं। अब जब पाकिस्तान से नियंत्रण रेखा और सीमा पर संघर्षविराम के उल्लंघन की घटनाएं बढ़ रही हैं, तब मोदी का दीपावली के बजाय 26-27 अक्तूबर को कश्मीर जाना ज्यादा महत्वपूर्ण होता। कश्मीर पर पहला कबाइली हमला 22 अक्तूबर, 1947 को हुआ था। महाराजा हरी सिंह कश्मीर का न तो पाकिस्तान में विलय चाहते थे, न भारत में। जबकि मोहम्मद अली जिन्ना चाहते थे कि मुस्लिम बहुल कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो। लेकिन पाक के सेना प्रमुख जनरल सर डगलस ग्रेसी ने हमले से इन्कार कर दिया था।
इसी बीच पाक के अर्द्धसैनिक बलों चित्राल स्काउट्स ने चित्राल पर और गिलगित स्काउट्स ने गिलगित पर कब्जा कर लिया। इससे जिन्ना का काम आसान हो गया। पुंछ और मीरपुर के मुस्लिमों को हिंदू शासक हरी सिंह के खिलाफ भड़काया गया। विद्रोह की चिनगारी भड़का कर पख्तून के कबाइलियों को विद्रोहियों की मदद करने के लिए कश्मीर में धकेल दिया गया। कबाइलियों में पाक फौजी भी शामिल थे। यह बात बाद में पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में कुबूल की। घुसपैठ के चौथे दिन 26 अक्तूबर को महाराजा हरी सिंह को महसूस हुआ कि भारत की मदद के बिना वह कश्मीर को नहीं बचा सकते। इसलिए उन्होंने भारत से मदद मांगी। नई दिल्ली ने कश्मीर का भारत में विलय का प्रस्ताव महाराजा को दिया, जिस पर 27 अक्तूबर को दस्तखत हुए।
मोदी अगर दीपावली के बजाय 26 अक्तूबर को कश्मीर जाते, तो नेहरू-पटेल की नई बहस शुरू होती। सरदार पटेल के कड़े रुख के कारण महाराजा हरी सिंह भारत में कश्मीर के विलय के लिए तैयार हुए थे। लेकिन नेहरू ने मामले को संयुक्त राष्ट्र में उठाकर विलय पर सवालिया निशान लगा दिया। इसलिए कश्मीर का सवाल जब भी आएगा, नेहरू और पटेल की भूमिका पर बहस होगी। यह बहस होनी चाहिए, क्योंकि पटेल ने 26 अक्तूबर, 1947 को जो हासिल किया, उसे नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में गंवा दिया और कश्मीर को हमेशा के लिए विवादास्पद बना दिया। सरदार पटेल की जयंती भी 31 अक्तूबर को है, इसलिए आने वाले दिन कश्मीर के लिए अति महत्वपूर्ण हैं।
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