नेताओं की करनी और कथनी

Publsihed: 28.Oct.2011, 15:23

यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह आखिरकार कपिल सिब्बल और पी चिदम्बरम के प्रभाव से बाहर आ गए हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के मामले में सारी गलतियां उन्हीं की करी धरी थी। हाल ही की अपनी विदेश यात्रा से लौटते हुए मनमोहन सिंह ने यह कहते हुए अन्ना हजारे की तारीफ की कि उनकी आंदोलन के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं। शनिवार को सीबीआई और भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियों के द्विवार्षिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए मनमोहन सिंह ने वही बात दोहराई। उन्होंने माना कि लोकपाल के गठन को लेकर हुए आंदोलन ने सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता के मुद्दे को हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के एजेंडे में शीर्ष पर ला दिया। सार्वजनिक जीवन में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार को देखते हुए लोकपाल की जरूरत पिछले 40 साल से महसूस की जा रही थी। हर सरकार चुनाव में लोकपाल का वादा करके भूलती रही है। संविधान में संसद का मुख्य काम कानून बनाना तय किया गया था। लेकिन सरकारें जानबूझकर भ्रष्टाचार रोकने के प्रभावी कानून से बचती रही हैं। अन्ना हजारे ने लोकपाल के लिए आंदोलन शुरू भी किया तो मनमोहन सिंह सरकार ने लोकसभा में मरियल सा लोकपाल बिल पेश कर दिया। इसके बावजूद वह बार-बार यही कहते रहे कि सरकार मजबूत लोकपाल बिल पास करना चाहती है। पाठकों को अच्छी तरह याद होगा कि लोकसभा में पेश मरियल सा बिल कपिल सिब्बल, पी चिदम्बरम और वीरप्पा मोईली का बनाया हुआ था। जिसे अब पूरी सरकार ने खुद ही नकारा मानना शुरू कर दिया है।

लेकिन प्रधानमंत्री जहां एक तरफ एक कदम आगे बढ़ते दिखाई देते हैं, वहीं दूसरे ही पल दो कदम पीछे हटते भी दिखाई देने लगते हैं। अभी हफ्ता- दस दिन पहले उन्होंने आरटीआई कानून से होने वाले विपरीत प्रभावों का जिक्र करते हुए कानून में कुछ बदलाव के संकेत दिए थे। अब प्रधानमंत्री कोई बात कहें, तो उसे कोई हल्के से कैसे ले सकता है। माना जाना चाहिए कि कानून में बदलाव का फैसला हो गया होगा, तभी प्रधानमंत्री ने बयान दिया होगा। लेकिन प्रधानमंत्री के बयान के 48 घंटे बाद ही मंत्रियों ने सफाई देनी शुरू कर दी कि कोई बदलाव नहीं होगा। इससे साफ है कि प्रधानमंत्री अपने इर्द-गिर्द मंडराने वाले कुछ मंत्रियों के प्रभाव से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। जब उनके आरटीआई संबंधी बयान का व्यापक विरोध शुरू हुआ तो उन्हीं प्रधानमंत्री ने शनिवार को भ्रष्टाचार रोकने में आरटीआई कानून की तारीफ में पुल बांध दिए। सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते। प्रधानमंत्री के मामले में यह कहावत सही बैठती है। लेकिन वह बार-बार भटक क्यों जाते हैं, अपनी ईमानदार छवि के खिलाफ कुछ भी कहते समय उनकी जुबान लड़खड़ाती क्यों नहीं। अभी कुछ दिन पहले उन्होंने सीएजी की कार्यशैली पर आलोचना कर दी थी। उनसे ज्यादा राजनीतिक अनुभवी प्रणव मुखर्जी ने कैग की कार्यशैली को उचित ठहराकर प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर दिया। प्रधानमंत्री को कम से कम 2जी घोटाले से सबक लेना चाहिए। 2जी घोटाले ने उनकी व्यक्तिगत छवि को अच्छी तरह मटियामेट किया है। अब वे दस्तावेज जगजाहिर हो चुके हैं, जो बताते हैं कि ए राजा ने उनकी इच्छा के खिलाफ 2जी के लाइसेंस बांटे और प्रधानमंत्री चुप्पी साधकर बैठ गए। विपक्ष ने 2007 - 08 में ही राज्यसभा में इस मामले को उठाया था, लेकिन प्रधानमंत्री 2010 के शुरू तक ए राजा को ईमानदारी का सर्टिफिकेट दे रहे थे। अब जबकि अदालत ने ए राजा समेत सभी 17 अभियुक्तों को चार्जशीट कर दिया है तो प्रधानमंत्री को अपनी कथनी और करनी पर विचार करना चाहिए। सीवीसी के मामले में अपनी गलती कबूल करके सुषमा स्वराज को पिघला देने वाले मनमोहन सिंह को अब बेहिचक 2जी की गलती भी देश के सामने कबूल करनी चाहिए। अगर वह ऐसा कर लेंगे, तो अपनी ईमानदार छवि को बरकरार रख पाएंगे। वरना वह गलतफहमी का शिकार हैं कि देश की जनता उन्हें अभी भी ईमानदार मानती है। राजीव गांधी के माथे पर बोफोर्स का कलंक लगा था तो मनमोहन सिंह के माथे पर 2जी का कलंक लग चुका है। सार्वजनिक जीवन में दोहरापन नहीं चल सकता। एक तरफ भ्रष्टाचार को खत्म करने की बातें और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे राजनेताओं को बचाने के रास्ते खोजना। राष्ट्रपति पद के चुनाव के वक्त मायावती का समर्थन हासिल करने के लिए ताज कारिडोर घोटाले को जिस रफा-दफा किया गया था वह भूलने वाली बात नहीं है। सुप्रीम कोर्ट खुद मामले की निगरानी कर रही थी, सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि उसके पास भ्रष्टाचार के पुख्ता सबूत हैं। लेकिन राष्ट्रपति का चुनाव सिर पर था और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल टीवी राजेश्वर ने सीबीआई को मायावती के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने की इजाजत नहीं दी। सीबीआई ऊपर से संकेत मिलने के बाद राज्यपाल के फैसले को चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट नहीं गई। अन्ना हजारे तो सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के एजेंडे पर ले आए हैं। लेकिन सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता के राष्ट्रीय एजेंडे पर आने की तारीफ करने वाले मनमोहन सिंह को बिना राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता की चिंता किए कुछ कड़े फैसले लेकर दिखाने होंगे ताकि राजनीतिक नेताओं के बारे में जनमानस में बनी अविश्वास की खाई को पाटा जा सके। कभी राष्ट्रपति पद के चुनाव की मजबूरी और कभी विश्वासमत में सरकार बचाने की मजबूरी और कभी गठबंधन की मजबूरी सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता नहीं लाने देगी।

सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता का झंडा उठाकर खुद को ईमानदार और बाकी सबको बेईमान बताने वाले भी अब कटघरे में खड़े हो गए हैं। मायावती से कौड़ियों के भाव करोड़ों रुपए का फार्महाउस लेने वाले शांति भूषण नैतिकता के पायदान पर खड़े होने के हकदार नहीं हैं। उस समय उनकी यह दलील चल गई थी कि सवाल सरकार से जमीन अलाट करवाने का नहीं, अलबत्ता लोकपाल का है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता की बात करने वाले अन्ना हजारे की टीम में अगर शांति भूषण को सर्वोच्च स्थान मिलेगा, तो अन्ना हजारे की विश्वसनीयता भी दांव पर होगी। अब तो रामलीला मैदान में घूंघट की नौटंकी करके राजनीतिक नेताओं की खिल्ली उड़ाने वाली टीम अन्ना की सूबेदार किरण बेदी खुद कटघरे में खड़ी हो गई है। घूंघट में दिशा बदलते ही तेवर बदलने वाले नेताओं की भूमिका दिखाने वाली किरण बेदी भी अब उन्हीं नेताओं के साथ खड़ी दिखाई दे रही हैं, जो पहल झपकते ही दलील बदल लेते हैं। किरण बेदी की कथनी और करनी में वैसा ही अंतर है, जैसा नेताओं की करनी और कथनी में होता है। वह यह कहकर बच नहीं सकती कि उन्होंने एयर टिकट का बचा हुआ पैसा अपने घर में नहीं रखा अलबत्ता अपने एनजीओ में वंचित लोगों के लिए ही इस्तेमाल किया। सरकारी अमानत में जिस तरह की ख्यानत किरण बेदी ने की है, यह लगभग ए राजा जैसी ही है। ए राजा भी अदालत में यही दलील दे रहे हैं कि 2003 में तय फीस से लाइसेंस जारी करके उन्होंने देशभर में मोबाइल फोन काल की दरों में गिरावट लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वंचितों तक मोबाइल फोन पहुंचाया। किरण बेदी के वंचित और ए राजा के वंचित अलग-अलग तराजू पर कैसे तौले जा सकते हैं। जैसे राजनैतिक दलों में साफ-सफाई की जरूरत है, वैसे ही अन्ना हजारे को भी अपनी टीम की वक्त-वक्त पर झाड़-पोछ करते रहना चाहिए। जैसे पहले अग्निवेश की हुई।

मनमोहन सरकार कभी मायावती के खिलाफ चार्जशीट रुकवाने में चुप्पी साध जाती है, कभी सीबीआई को सतीश शर्मा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने की इजाजत नहीं देती, कभी मुलायम सिंह के खिलाफ नर्म तो कभी गर्म रुख अपनाया जाता है। इसके बावजूद सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता की दुहाई दी जाती है। अफसरों के खिलाफ चार्जशीट की फाइलें धूल चाटती रहती हैं। इसके बावजूद सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाने के मामले में प्रधानमंत्री के रुख में कोई बदलाव नहीं आता है। जबकि प्रधानमंत्री को खुद सीबीआई के भ्रष्टाचार विरोधी विभाग को लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों के अधिकार क्षेत्र में लाने की पहल करनी चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपनी करनी और कथनी में अंतर दिखाने के लिए सिर्फ दूसरों पर दोष मढ़ना बंद करना चाहिए। खुद को सही मायनों में राजनेता साबित करने के लिए राजनीतिक लाभ-हानि को ध्यान में लाए बिना देश-समाज के हित में कड़े कानून बनाने की पहल करनी चाहिए, तभी वह अपनी बची खुची साख बचा पाएंगे।

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