प्रदीप रावत / अब तो मानना ही होगा कि कमल दा नहीं रहे। उनको विदा करने गया था। कमल दा से मिलने के लिए रात को तो नहीं जा पाया, पर रातभर जागने के बाद सुबह ही चल दिया उनसे मिलने। कफन में लिपटे उनको देखा। मुझे लगा बात करेंगे। पर ओ सो चुके थे। कभी नहीं जागने के लिए। काफी देर तक उनके पास ही खडा रहा, लेकिन फिर अचानक ख्याल आया कि उनका कमरा देख आता हूं। जहां हम भी कई बार जाया करते थे। उनसे कुछ सीखने। कमरे में पहुंचा। जैसे पहले था। कमरा बिल्कुल वैसा ही था। बस उसमें वह जिंदादिली नहीं थी, जो कमल दा के होने का भान कराती। अच्छी तरह से निहारा। एक कोने में हमारी संस्कृति के अवशेष झांक रहे थे, जिनके वह वाहक थे। वह पुरानी लालटेन, जो कभी हर घर को रोशन करती थी। भड्डू छोटे-बड़े तीन। पारंपरिक वर्तन, परिधान और भी बहुत कुछ। दूसरे कोने पर 70 के दशक के कैमरे सजे हुए थे। यह वही कैमरे थे, जिनसे कमल दा ने प्रकृति और जीवन के हर रंग को कैद किया होगा। इन्हीं कैमरों से वह झांकते और आंकते पहाड़ की पीडा को, पहाड़ के पहाड़ से जीवन को। उनकी हर फोटो कुछ नहीं, बहुत कुछ कहती थी। कहती भी रहेंगी। जब तक उनकी स्मृति बची रहेगी। निगाह दूसरी ओर घुमाई तो कई पुरानी नेगेटिव रखी थी, जो अब मिलती भी नहीं। कमरे के तीसरे कोने में छोटे से ताले में कैद किताबें। शीशे से झांक कर देखा तो उत्तराखंड का इतिहास नजर आ रहा था। कई पुस्तकें थी, लेकिन अधिकांश उत्तराखंड के इतिहास से जुड़ी। दीवार से झांकता अस्कोट-आराकोट यात्रा का पोस्टर और गांव बचाने की आवाजा लगाता छोटा सा पोस्टर। एक कोने पर कमल दा ने अपनी किताबों को पेटियों में पैक कर रखा था। अपना और सामान भी पैक कर चुके थे। कहां जाना चाहते थे कमल दा…? क्या करना चाहते थे कमल दा…? कमरे में मैं अकेला था। पर पास ही वह सीढ़ी भी थी, जिस पर चढ़कर जिंदगी ने खुद को मौत के हवाले किया। कमरे के बीचों-बीच कुर्सी रखी थी। कुर्सी पर बैठते ही आंसू बहने लगे। बाहर के छोटे कमरे में गीता गैरोला दी बैठी थीं। मुझे देख उनकी भी आंखें भर आई। कहने लगी कमल इन पुराने सामानों का संग्रहालय बनाना चाहता था। हम कहते थे, क्यों जमा कर रहा है। उनका एक ही जवाब होता था। संग्रहालय। वह खुद का संग्रहालय तो नहीं बना पाए, लेकिन हमारे दिलों में याद बनकर खुद जरूर संग्रहित हो गए। गीता दी कहने लगी कमल की लाइब्रेरी बस उसी के समझ आती थी। जहां से हम कोई किताब नहीं खोज पाते। वह सहजता से हर बेतरतीब रखी किताब को आसानी से निकाल लेता। जिंदादिल इंसान की जिंदादिली का आलम यह था कि लोग चिता को मुखाग्नी देने तक भी यही कह रहे थे कि क्या कमल वास्तव में चला गया…? वह फिर कभी नहीं लौटेगा…? इतिहासकार शेखर पाठक कह रहे थे। अलविदा करने आया हूं। फिर कहने लगे जब कमल ऐसा कर सकता है तो फिर और… फिर खामोश हो गए। पर अफसोस कमल दा जिनके लिए वोट नहीं थे। वह उनके अंतिम संस्कार में भी नहीं आए। प्रदीप टम्टा और सूर्यकांत धस्माना को छोड कर। कमल दा आप चले गए, लेकिन यादों में बने रहेंगे। हमेशा, अनवरत, अनंत तक।
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