यह तो तय ही है कि पंद्रहवीं लोकसभा में किसी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिल रहा। यह भी तय ही है कि किसी चुनाव पूर्व गठबंधन को भी बहुमत नहीं मिल रहा। मोटा-मोटा अनुमान यह है कि कांग्रेस और भाजपा आठ-दस सीटों के अंतर से 150 के आसपास आगे-पीछे होंगी। यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि यूपीए और एनडीए में से कोई भी 200 का आंकड़ा पार नहीं कर पाएगा। वैसे लोकसभा चुनावों में यूपीए एक गठबंधन के तौर पर चुनाव मैदान में नहीं था। चुनावों का ऐलान होने से ठीक पहले कांग्रेस कार्यसमिति ने यूपीए के तौर पर चुनाव नहीं लड़ने का फैसला कर लिया था। सिर्फ एनडीए एकमात्र गठबंधन था। तीसरे मोर्चे का भी विधिवत कोई गठन नहीं हुआ था।
कांग्रेस, तीसरे मोर्चे और चौथे मोर्चे ने विभिन्न राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधन जरूर किए थे। कांग्रेस का महाराष्ट्र, तमिलनाडु और झारखंड में चुनाव पूर्व गठबंधन था। राष्ट्रवादी कांग्रेस का महाराष्ट्र में तो कांग्रेस से चुनाव पूर्व गठबंधन था जबकि उड़ीसा, गुजरात, बिहार और मेघालय में वह कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ रही थी। इसलिए कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, द्रमुक, झारखंड मुक्तिमोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के विभिन्न राज्यों में हुए चुनाव पूर्व तालमेल को यूपीए नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति के लिए सरकार बनाने की प्रक्रिया काफी जटिल हो जाएगी। ग्यारहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजों में 161 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी। तब राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने सबसे बड़े दल के नेता के नाते अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्योता दिया। वामपंथी दलों ने जंतर-मंतर से राष्ट्रपति भवन तक जुलूस निकालकर डा. शंकर दयाल शर्मा के फैसले का विरोध किया था। वाजपेयी लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने की स्थिति में नहीं पहुंच पाए। प्रधानमंत्री बनने के तेरहवें दिन 31 मार्च को जब लोकसभा में बहस चल रही थी तो मतविभाजन से पहले ही उन्होंने इस्तीफे का ऐलान कर दिया। सभी गैर भाजपा दलों ने राष्ट्रपति को गलत साबित कर दिया था, लेकिन उन्होंने दुनियाभर में स्थापित परंपरा का निर्वहन किया था। इससे पहले 1989 में आर. वेंकटरमन ने सबसे बड़े दल के नेता राजीव गांधी को ही सरकार बनाने का न्योता दिया था। राजीव गांधी ने जब सरकार बनाने में असमर्थता जाहिर की तभी उन्होंने जनता दल के वामपंथी और भाजपा समर्थन को देखते हुए वीपी सिंह को न्योता दिया।
1996 के अनुभव ने यह साबित किया कि सबसे बड़ा दल होने से कोई सरकार बनाने का हकदार नहीं बन जाता। इसलिए के आर नारायणन ने 1998 में नया प्रयोग किया। भारतीय जनता पार्टी फिर सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी। उसकी सीटें भी 161 से बढ़कर 182 हो गई थी, इसके बावजूद के आर नारायणन ने भाजपा संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को न्योता नहीं दिया। चुनाव नतीजा चार मार्च 1998 को आ गया था, लेकिन राष्ट्रपति नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को न्योता 15 मार्च को जाकर दिया। इस बीच वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के रूप में ऐसा गठबंधन उभर चुका था, जिसके सांसदों की तादाद 240 हो गई थी। लेकिन यह संख्या लोकसभा में बहुमत से अभी भी 32 कम थी। राष्ट्रपति ने इसीलिए कांग्रेस की नई अध्यक्ष सोनिया गांधी और संयुक्त मोर्चे के चेयरमैन एचडी देवगौड़ा को पूरा मौका दिया, ताकि बाद में उनकी शंकर दयाल शर्मा की तरह आलोचना न हो। राष्ट्रपति नारायणन ने 15 मार्च की रात को अटल बिहारी वाजपेयी को तब न्योता दिया, जब सोनिया गांधी ने सार्वजनिक तौर पर हाथ खड़े कर दिए। राष्ट्रपति ने अटल बिहारी वाजपेयी को न्योता देते समय दस दिन के सारे घटनाक्रम का ब्योरा राष्ट्र के सामने रखा था। लेकिन उन्होंने उसमें यह नहीं बताया था कि उस दिन शाम पांच बजे जब वह उनसे मिली थी, तो उन्होंने क्या कहा था। राष्ट्रपति ने देर रात वाजपेयी को न्योता देते हुए सोनिया गांधी के राष्ट्रपति भवन से निकलते समय प्रेस से हुई बातचीत का हवाला दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस सरकार बनाने का दावा पेश नहीं कर रही। के आर नारायणन की ओर से ज्यादा समय लगाने की आलोचना शुरू हो गई थी, लेकिन उन्होंने इतिहास से सबक लेकर ठीक काम किया और स्वच्छ परंपरा कायम की। बाद के राष्ट्रपतियों के लिए यही परंपरा एक नजीर बन गई है। इसी परंपरा का उन्होंने 1999 में भी पालन किया, हालांकि तब एनडीए 298 सीटें लेकर पूर्ण बहुमत के साथ जीता था। बाद में डा. अब्दुल कलाम ने भी 2004 में इसी परंपरा का पालन किया जब उन्होंने कांग्रेस से उसके सहयोगी दलों के समर्थन की चिट्ठियां तलब की। यहां यह उल्लेखनीय है कि 2004 में कांग्रेस या यूपीए को बहुमत नहीं मिला था। इस बार भी किसी दल या चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत नहीं मिलेगा। स्थिति एकदम 1998 जैसी होगी। तो राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के सामने दो विकल्प ही बचते हैं, या तो वह 1996 की तरह डा. शंकर दयाल शर्मा का अनुसरण करते हुए सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का न्योता देकर रिस्क लें। या फिर 1998 में के आर नारायणन की तरह राजनीतिक दलों को राष्ट्रपति भवन में बहुमत साबित करने का पूरा मौका दें।
राष्ट्रपति के आर नारायणन ने 15 मार्च 1998 को उन सब हालात का जिक्र किया था, जिसमें उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्योता देने का फैसला किया। उन्होंने लिखा- 'राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री नियुक्त करने का पूरा हक है। लेकिन उसके सामने पहले से स्थापित मान्य सिध्दांत है कि वह जिस व्यक्ति को पीएम बना रहे हैं, वह सदन का समर्थन हासिल करने में समर्थ होना चाहिए। जब किसी पार्टी या चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत नहीं मिलता तो भारत और दुनिया के अन्य देशों में भी राष्ट्रपति ने सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाले या ज्यादा सीटें हासिल करने वाले दलों के समूह को पहला मौका दिया। लेकिन यह प्रणाली हमेशा व्यवहारिक नहीं हो सकती क्योंकि ऐसी भी स्थिति पैदा हो सकती है जब सबसे बड़े दल या समूह की बजाए दूसरे सांसदों की तादाद ज्यादा हो जाए।' इसी बात को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति के आर नारायणन ने भले वक्त लगाया लेकिन उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से खुद संपर्क स्थापित करके उनकी राय ली। तस्वीर उनके सामने थी: पहली- 'किसी दल या चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत नहीं मिला।' दूसरी- 'भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, लेकिन बहुमत से दूर थी।' तीसरी- 'भाजपा के नेतृत्व वाला चुनाव पूर्व का गठबंधन और कुछ सांसद मिलकर सबसे बड़ा समूह थे।' चौथी- 'अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा संसदीय दल के चुने हुए नेता थे।' इसलिए राष्ट्रपति ने 10 मार्च को वाजपेयी को बुलाकर पूछा कि क्या वह सरकार बनाने के इच्छुक हैं। वाजपेयी जब उन्हें मिलने गए तो वह अपने साथ 252 सांसदों की सूची लेकर गए थे। राष्ट्रपति ने उन्हें इन सांसदों के समर्थन संबंधी दस्तावेज मांगकर नई स्वस्थ परंपरा कायम की। दो दिन बाद तक वाजपेयी सिर्फ 240 सांसदों के समर्थन का दस्तावेज उपलब्ध करवा पाए थे। जो, उस समय जीते 539 सांसदों के आधे से काफी कम था। इसमें जयललिता की चिट्ठी नहीं थी। उन दिनों खबर छप रही थी कि उन्होंने सुब्रह्मण्यम स्वामी को वित्त और राममूर्ति को विधिमंत्री बनाने की शर्त रखी है। जिसे वाजपेयी ने पूरा करने से इनकार किया था। वाजपेयी के पास संख्या नहीं थी और राष्ट्रपति ने उन्हें संख्या पूरी करने को कहा। इस बीच राष्ट्रपति ने कांग्रेस और संयुक्त मोर्चे के नेताओं से विचार-विमर्श जारी रखा, जिन्होंने राष्ट्रपति से कहा था कि वे दोनों मिलकर सरकार बनाने की संभावनाएं टटोल रहे हैं। राष्ट्रपति ने प्रो-एक्टिव भूमिका निभाते हुए खुद तेलुगूदेशम के नेता और आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को फोन करके पूछा कि उनके दल के 12 सांसद लोकसभा में क्या रुख अपनाएंगे। चंद्रबाबू ने राष्ट्रपति से कहा कि उनके बारह सांसद न कांग्रेस के साथ हैं, न भाजपा के साथ, वे तटस्थ रहेंगे, जबकि वह खुद संयुक्त मोर्चे के संयोजक थे। चौदह मार्च दोपहर को राष्ट्रपति के सामने अन्नाद्रमुक की महासचिव जयललिता की चिट्ठी पेश की गई, जिसमें उन्होंने अपने 18 सांसदों के भाजपा को बिना शर्त समर्थन की बात कही थी। भाजपा और अन्नाद्रमुक के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले तमिल दलों ने भी समर्थन की चिट्ठी सौंप दी लेकिन इसके बावजूद वाजपेयी के पास 264 सांसद ही हुए थे। यह संख्या सदन में बहुमत से छह कम थी। राष्ट्रपति ने यह सारा ब्योरा राष्ट्र के सामने रखते हुए कहा कि उन्होंने वाजपेयी को न्योता देने का फैसला इसलिए किया क्योंकि चंद्रबाबू नायडू ने उनके बारह सांसदों के तटस्थ रहने की बात कही थी। ऐसी हालत में वाजपेयी के पास सदन में बहुमत बन रहा है। राष्ट्रपति के आर नारायणन का आकलन एकदम सही निकला जब वाजपेयी ने सदन में अपना बहुमत साबित कर दिया। अब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के सामने भी 1998 जैसी परिस्थितियां पैदा होने के आसार हैं, इसलिए अगले कुछ दिन निगाह राष्ट्रपति भवन पर टिकी रहेंगी।
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