इम्तिहान तो दोनों राष्ट्रीय दलों का

Publsihed: 03.May.2009, 20:36

लोकतंत्र का मतलब ही यही है कि देश हर पांच साल बाद अपनी नई सरकार और उसका मुखिया चुने। लोकतंत्र किसी एक राजनीतिक दल को ही सत्ता हासिल करने या उसी को प्रधानमंत्री पद हासिल करने का हकदार नहीं बनाता। लोकतंत्र का मतलब जनादेश से सत्ता तक पहुंचकर अपनी नीतियों से सरकार चलाना है। भारत के संसदीय लोकतंत्र में दो दलीय व्यवस्था भी नहीं है, कि छोटे-छोटे दलों को अपना विकास करके प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का हक न हो। इसलिए इस बार जब प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार दिखाई दे रहे हैं, तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही लोकतंत्र की विशेषता है। पांच साल के शासनकाल के बाद भी कांग्रेस अगर देशभर में 150 सीटों का आंकड़ा पार नहीं करती है, तो जनादेश उसके खिलाफ माना जाएगा।

नौ साल सत्ता से बाहर रहने के दौरान कांग्रेस की सीटें 114 से 145 के बीच झूलती रही थीं। लोकतंत्र ने ही क्षेत्रीय दलों को उभरने का मौका दिया, इसीलिए 2004 में कांग्रेस को मजबूर होकर अपने घोर विरोधी रहे क्षेत्रीय दलों के साथ सत्ता में हिस्सेदारी कबूल करनी पड़ी। सत्ता के बाद कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी कि 1989 में मुसलमानों, दलितों, ब्राह्मणों में टूटा उसका विश्वास इन पांच सालों में लौट आया होगा। चुनाव का एलान होने के बाद हुई पहली कांग्रेस कार्यसमिति में इसी बात पर विचार मंथन किया गया था। कांग्रेस को तय करना था कि जिनके बूते सरकार बनी और पांच साल चली, क्या उनके साथ मिलकर ही चुनाव लड़ा जाए या इन पांच सालों में कांग्रेस अपना खिसका आधार लौटाने में कामयाब हो गई है और अब यूपी, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़कर अपने पांव पर खड़ा होने का वक्त आ गया है। कांग्रेस इस नतीजे पर पहुंची थी कि राहुल गांधी को सामने करके तीनों हिंदीभाषी राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में पार्टी को अपने पैरों पर खड़े होने की शुरूआत की जा सकती है। सहयोगी दलों को दबाव में लाने के लिए कांग्रेस कार्यसमिति ने कहा कि यूपीए सरकार चलाने के लिए बना गठबंधन था, कांग्रेस अपने बूते पर चुनाव लड़ेगी। पहले कांग्रेस की सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाने वाले लालू यादव और राम विलास पासवान और बाद में कांग्रेस की सरकार बचाने वाले मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस की इस रणनीति को अपने लिए खतरे की घंटी माना। इन तीनों की ताकत कांग्रेस की जमीन पर ही खड़ी हुई है। अगर कांग्रेस अपनी जमीन वापस मांग लेगी तो इन तीनों की ताकत घटनी शुरू हो जाएगी।

कांग्रेस की रणनीति के कारण लालू-मुलायम-पासवान ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए नया मोर्चा खड़ा किया। लालू यादव ने अपना मुस्लिम, दलित, यादव वोट बैंक एकजुट करने की कोशिश की। तो मुलायम सिंह ने पासवान के जरिए मायावती के दलित वोट बैंक को लुभाने के साथ अपने यादव वोट बैंक में एक अन्य पिछड़ी जाति लोध को मिलाने की रणनीति बनाई। इसी रणनीति के तहत ही मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को अपने साथ जोड़ा। यूपीए सरकार के अंतिम दिनों में सहयोगी रहे इन तीनों ही नेताओं का कांग्रेस से कोई विरोध नहीं है। छोटी-मोटी स्वार्थी शर्तों के साथ तीनों ही दल केंद्र में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को समर्थन देने को कटिबध्द हैं। रामविलास पासवान जरूर एनडीए सरकार में मंत्री रहे हैं, लेकिन अब उनका भी एनडीए में लौटने का कोई इरादा नहीं दिखाई देता। लालू यादव और मुलायम यादव के एनडीए में जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए ये तीनों ही दल जितनी भी सीटें लाएंगे, वह यूपीए सरकार बनाने में मददगार होंगी। कांग्रेस ने कोई बहुत लंबा-चौड़ा लक्ष्य तय नहीं किया था। दोनों ही राज्यों में उसका लक्ष्य एक चौथाई सीटें हासिल करना था। उत्तर प्रदेश की 80 में से 20 सीटें और बिहार की 40 में से दस सीटें। पंजाब, राजस्थान, केरल में 30 सीटों की बढ़ोत्तरी और उत्तर प्रदेश, बिहार में 17 सीटों की बढ़ोत्तरी से आंध्र प्रदेश, असम, हरियाणा में नुकसान के बावजूद कांग्रेस इस बार 175 का आंकड़ा पार कर सकती है। लेकिन अब जबकि दो तिहाई सीटों पर चुनाव हो चुका है, तो कांग्रेस का अपना आकलन 160 सीटें हासिल होने का है। अगर यह भी हासिल हो जाता है तो पांच साल की सत्ता का फायदा माना जाना चाहिए। क्योंकि यह आंकड़ा पिछले तेरह साल में सबसे ज्यादा होगा।

दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी 1991 के बाद पहली बार 2004 में डेढ़ सौ सीटों से कम गई थी। बीस साल पहले 1989 में भाजपा पहली बार 86 सीटें जीतकर बड़ी ताकत के रूप में उभरनी  शुरू हुई थी। पंद्रह साल तक लगातार विकास के बाद 2004 में उसे करारा झटका लगा। इन पंद्रह सालों के चार लोकसभा चुनावों में भाजपा की ताकत लगातार बढ़ रही थी। राजीव गांधी की हत्या से कांग्रेस को मिले फायदे के बावजूद भाजपा 1991 में 120 सीटें हासिल करके दूसरी बड़ी पार्टी बन गई थी। 1996 में भाजपा ने 150 का आंकड़ा पार करके 161, 1998 में 182 और 1999 में 183 सीटें हासिल की थी। इसलिए 2004 के चुनाव में जब उसे 138 सीटें मिली तो यह 1996 के बाद सबसे कम थी। भारतीय जनता पार्टी अगर यूपीए में भारी विरोधाभासों, आखिरी दिनों में कांग्रेस-लेफ्ट में एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने के वातावरण का फायदा नहीं उठा पाई। वह यूपीए सरकार में इंफ्रास्टक्चर की अनदेखी, आर्थिक मंदी से उपजी बेरोजगारी और कमरतोड़ महंगाई का फायदा भी नहीं उठा पाई। चुनाव के दौरान अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए वरुण गांधी की गिरफ्तारी और नरेन्द्र मोदी पर कसते कानूनी शिकंजे के साथ सिखों के आक्रोश को नहीं भुना पाई। ठीक चुनावों के वक्त बोफोर्स घोटाले के मुख्य आरोपी ओतोवियो क्वात्रोची और स्विस बैंकों में जमा भारतीय राजनीतिज्ञों और उद्योगपतियों के काले धन के मुद्दे को भी नहीं भुना पाई। तो यह मान लेना चाहिए कि भारतीय आवाम उसे कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं देखता। भारतीय जनता पार्टी को चुनावों के वक्त अपने ग्यारह साल पुराने सहयोगी बीजू जनता दल ने गठबंधन तोड़कर झटका दिया। जयललिता ने तीसरे मोर्चे को और ममता ने कांग्रेस को अपना सहयोगी चुना तो भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदों पर पानी फिरा। लेकिन भारतीय जनता पार्टी अगर अपने बूते पर 1996 की स्थिति में भी पहुंच गई तो एनडीए का कुनबा दुबारा जुटने में कोई वक्त नहीं लगेगा।

इम्तिहान देश की दोनों बड़ी पार्टियों का है। अगर वे लोकसभा की 543 सीटों में एक तिहाई यानी 181 सीटें नहीं तो क्या डेढ़ सौ का आंकड़ा पार कर पाएंगी। यहां यह बताना भी ठीक रहेगा कि 1989 में कांग्रेस 187 सीटें हासिल करके भी सरकार नहीं बना पाई थी क्योंकि 142 सीटें हासिल करने वाले जनता दल को 86 सीटें हासिल करने वाली भाजपा और 39 सीटों वाले वाममोर्चे ने समर्थन देकर वीपी सिंह की सरकार बनवा दी थी। 1977 के बाद वह कांग्रेस विरोध का दूसरा चरम काल था। लेकिन 1989 में कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान अब कांग्रेस के साथ खड़े हैं तो यह संभावना टटोली जा रही है कि इस बार कांग्रेस विरोधी सरकार बन पाएगी या नहीं। वामदल केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनवाने के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। उनकी पहली प्राथमिकता गैर कांग्रेस-गैर भाजपा सरकार बनवाने की होगी लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाया तो उनका दूसरा प्रयास गैर भाजपा सरकार बनाने की होगी। गैर कांग्रेस-गैर भाजपाई 1989 के दोहराव की इच्छाशक्ति पाले हुए हैं। वे ऐसे व्यक्ति की तलाश में हैं, जिसे या तो कांग्रेस और तीसरे मोर्चे का समर्थन मिल जाए या भाजपा और वामदलों का समर्थन मिल जाए और गैर कांग्रेस-गैर भाजपा सरकार बन सके। पहले समीकरण के लिए शरद पवार, लालू यादव और रामविलास पासवान प्रधानमंत्री पद पर निगाह टिकाए हुए हैं। तो दूसरे विकल्प के तौर पर जयललिता, मायावती, चंद्रबाबू नायडू के साथ नीतिश कुमार का नाम भी लिया जा रहा है। हालांकि कांग्रेस और भाजपा की कोशिश होगी कि जो भी सरकार बने उसका नेतृत्व उनके हाथ में रहे। यहां यह याद करना भी महत्वपूर्ण होगा कि 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी प्रधानमंत्री पद के प्रमुख दावेदार थे और दोनों ही प्रधानमंत्री नहीं बन पाए थे।

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