भाजपा के खिलाफ तीन मोर्चे नकारात्मक आधार पर चुनाव लड़ रहे हैं। तीनों मोर्चे आपस में भी एक-दूसरे को कमजोर करने की नकारात्मक सोच के शिकार।
गरीबों के वोट खरीद कर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा फिर खोखला साबित हो गया है। आंध्र प्रदेश जहां लोकसभा के साथ विधानसभा के चुनाव भी हो रहे हैं, इस खोखलेपन को साबित कर रहा है। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी ने बताया था कि चुनाव के दौरान साढ़े पैंतालीस करोड़ रुपए की नकदी, शराब और अवैध प्रचार सामग्री जब्त की गई। अब जबकि अभी चुनाव प्रचार का दौर चल रहा है, तो आंध्र प्रदेश में पिछले शुक्रवार तक पुलिस ने 25 करोड़ रुपए नकदी और सोने की अंगूठियां पकड़ी हैं। एक-एक, डेढ़-डेढ़ ग्राम सोने की अंगूठियां बनाकर वोटरों को देने की नई परंपरा शुरू हुई है आंध्र प्रदेश में। यह तो वोटरों की सीधे खरीद-फरोख्त की बात। सरकारी धन से अपना वोट बैंक बनाने और वोट बैंक को लुभाने का नंगा नाच भी इस बार खूब हुआ है।
अपने चुनाव घोषणापत्रों के जरिए सभी राजनीतिक दलों ने जीतने के बाद सरकारी धन विकास कार्यों पर खर्च करने की बजाए वोटरों पर लुटाने का वादा किया है। इमरजेंसी के बाद से तो हम देख ही रहे हैं कि सरकारी धन का वोट बैंक के लिए ज्यादा और आधारभूत ढांचे का विकास करने के लिए कम खर्च हो रहा है। पिछले पांच सालों में भारत निर्माण के नाम से चलाई गई योजना के नतीजे निर्माण कार्यों में तो दिखाई नहीं दिए। निर्माण के नाम पर चलाई गई यह योजना भी वोट बैंक सुरक्षित करने और सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं को समृध्द करने में खर्च हो गई। देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में जमीन पर विकास दिखाई देने लगा था। पहली बार देश के राष्ट्रीय राजमार्ग अंतरराष्ट्रीय स्तर के होते दिखाई देने लगे थे। गांव-गांव में सड़कें पहुंचने लगी थीं। किसानों को सात फीसदी सस्ती ब्याज दर पर कर्ज मिलने लगा था। शहरी मध्यम वर्ग को भी मकान बनाने के लिए सात-आठ फीसदी दर पर कर्ज मिलने लगा था। वाजपेयी लोगों की आर्थिक हालत सुधारने और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की नीतियों पर चल रहे थे। वह हर साल बाढ़ राहत के नाम पर बर्बाद हो रहे लाखों करोड़ रुपए की राशि को बचाने के लिए देश की नदियों को जोड़ना चाहते थे, ताकि सिंचाई भी ज्यादा हो सके और बाढ़ राहत के नाम पर धन की बर्बादी भी रुक सके। लेकिन वाजपेयी सरकार चुनाव में हार गई। इसका मतलब यह निकलता है कि वाजपेयी सरकार की नीतियां गलत थी, उनमें गरीबों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर धन की मदद के प्रावधान नहीं थे। नतीजा यह भी निकला कि देश की गरीब-गुरबा जनता के मुंह में जो खून लग चुका था, उसकी सप्लाई बंद हो जाने के कारण वाजपेयी हारे।
अब भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र को देखकर लगता है कि उसने 2004 के नतीजों से सबक सीखा है। भारतीय जनता पार्टी ने गरीब गुरबों को अपने पैरों पर खड़ा करने की नीति को त्यागते हुए कांग्रेस और अन्य पार्टियों की तरह सरकारी धन सब्सिडी में लुटाने का वायदा किया है। सवाल खड़ा होता है कि क्या देश की गरीब-गुरबा जनता भाजपा के लोक लुभावन वादों पर भरोसा करेगी। देश का मध्यम वर्ग विकास चाहता है, वह सस्ता राशन और सब्जी चाहता था। वह चाहता है कि जरूरत पड़ने पर उसके परिवार को सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो सके। उसे दूर-दराज से दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में इलाज कराने न आना पडे। दिल्ली जैसे महंगे शहर जैसी स्वास्थ्य सेवाएं उसके राज्य में भी उपलब्ध हो जाएं। वह चाहता है कि उसके बच्चे को अच्छी और सस्ती शिक्षा मिल सके। अमीरों के बच्चों की तरह अपने बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में भेजने का माद्दा उसमें नहीं है। वह चाहता है उसके कस्बे-शहर की सड़कें अच्छी हों, सफाई की व्यवस्था नई दिल्ली जैसी हो। यातायात के साधन अंतरराष्ट्रीय स्तर के हो जाएं। लेकिन विकसित देशों जैसी सुविधाओं की कल्पना करने वाला मध्यम वर्ग वोट डालने के लिए पोलिंग बूथ पर ही नहीं जाता। इसलिए देश की सरकार ऐसे लोग चुनते हैं जिनके लिए चुनाव कमाई का साधन बन गए है।
वाजपेयी के पांच सालों और मनमोहन सिंह के पांच सालों का अंतर सबके सामने है। वाजपेयी की ओर से बनवाए जा रहे राष्ट्रीय राजमार्ग वहीं के वहीं खड़े हैं, पुल अधूरे खड़े हैं, सड़कों के आसपास अवैध कब्जे शुरू हो चुके हैं। यातायात पहले से भी विकट हो गया है, लेकिन सभी अखबारों और न्यूज चैनलों की ओर से करवाए जा रहे सर्वेक्षणों का मानना है कि यूपीए लौटकर आ रहा है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की ताकत बढ़ रही है, अलबत्ता हमारी चुनाव प्रणाली में अब नीतियां और विकास अहम मुद्दा नहीं रही। देश का लोकतंत्र अब विचारधारा के मकड़जाल में फंस गया है। ज्यादातर राजनीतिक दल सेक्युलरिज्म को विकास से बड़ा मुद्दा बनाकर चुनाव मैदान में उतरे हैं। केंद्र में लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात में नरेंद्र मोदी की मुखालफत इसका प्रमाण है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इन दोनों से विकास के मुद्दों पर बहस करने को तैयार नहीं हैं। आडवाणी की पेशकश ठुकराने के लिए मनमोहन सिंह अल्पसंख्यकों के कार्यक्रम का मंच जानबूझकर चुनते हैं। ताकि विकास को चुनावी मुद्दा नहीं बनने दिया जाए।
यह चुनाव पूरी तरह नकारात्मक आधार पर लड़ा जा रहा है। यूपीए सरकार में मंत्री लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं। इन दोनों दलों के आधा दर्जन मंत्री चुनाव मैदान में हैं और कांग्रेस के उम्मीदवार उनके सामने खड़े हैं। लोकसभा के आम चुनावों से ठीक पहले मनमोहन सरकार को बचाने वाली मुलायम सिंह की पार्टी अब कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ रही है। इन तीनों दलों का मकसद कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और बिहार में ताकतवर होने से रोकना है। कांग्रेस भी अपनी सरकार को समर्थन देने वाले दलों के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ना चाहती थी। इसकी वजह भी नकारात्मक सोच थी। वह भी चाहती थी कि उनको समर्थन देने वाले दल कमजोर हों, ताकि उत्तर प्रदेश, बिहार मे खुद उसकी ताकत बढ़े। लालू-मुलायम-पासवान ने अब अपनी रणनीति स्पष्ट कर दी है। इन तीनों की रणनीति कांग्रेस को इतना कमजोर करने की है कि वह क्षेत्रीय दलों पर अपना प्रधानमंत्री बनाने का दबाव न बना सके। मनमोहन सरकार के एक और मंत्री शरद पवार हालांकि महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन गुजरात, उड़ीसा और मेघालय में कांग्रेस को कमजोर करने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं। साढ़े चार साल तक यूपीए सरकार चलवाने वाले वामपंथी दलों ने यूपीए को कमजोर करने के लिए चुनावों से ठीक पहले तीसरा मोर्चा खड़ा कर लिया है। यूपीए सरकार को ही समर्थन देने वाले चंद्रशेखर राव के टीआरएस और मायावती की बीएसपी भी इसमें शामिल है। इसके अलावा वाजपेयी सरकार बनवाने वाली जयललिता, वाईको, रामदास, चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक भी इसमें शामिल हैं। चुनावों के बाद यूपीए के चार बड़े स्तंभ शरद पवार, लालू यादव, मुलायम सिंह और पासवान गैर कांग्रेसी सरकार बनवाने की कोशिश में जुटेंगे। ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जिसमें लालू, मुलायम, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू, चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, जयललिता, रामदौस, फारुख अब्दुल्ला मिलकर वामपंथियों और कांग्रेस की मदद से केंद्र में सरकार बनाने की कोशिश करें। मोटे तौर पर इन सभी दलों की ताकत सवा दो सौ सीटों की हो सकती है। इन सभी के एकजुट हो जाने पर कांगेस बौनी हो जाएगी, भले ही वह 150 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी हो या 140 सीटें जीतकर भाजपा के बाद दूसरे नंबर की पार्टी हो। पांच साल सरकार चलाने के बाद कांग्रेस ने अपने सहयोगियों को ठोकर मारते हुए अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। कांग्रेस के फैसले का इसी आलोक में आकलन किया जाए तो वह क्षेत्रीय दलों को समर्थन नहीं करेगी। तब एक बार फिर नकारात्मक राजनीति का खेल शुरू होगा। भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए वामपंथी दल मनमोहन सिंह को छोड़कर किसी अन्य कांग्रेसी की रहनुमाई में सरकार को समर्थन देने को तैयार हो जाएंगे। प्रणव मुखर्जी जैसे कांग्रेसी नेताओं का भी यही आकलन है। लेकिन यूपीए के मौजूदा घटक दलों के अलावा किसी अन्य दल के कांग्रेस को समर्थन की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। खासकर करुणानिधि और जयललिता में से एक ही कांग्रेस के साथ होगा। इसी तरह मुलायम और मायावती में से एक ही कांग्रेस के साथ होगा। कांग्रेस को चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव के समर्थन की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
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