कांग्रेस और भाजपा दोनों ही 150-150 के आसपास ही निपट जाएंगे। यूपीए सरकार बनवाने वाले वामपंथी, द्रमुक, राजद, लोजपा, सपा को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। मायावती और जयललिता की सीटें बढ़ेंगी। इन दोनों के हाथों में होगी सत्ता की चाबी।
अगर चुनाव घोषणापत्र के आधार पर मतदाता फैसला करेंगे, तो भारतीय जनता पार्टी का पलड़ा भारी रहेगा। सबसे ज्यादा लोकलुभावन घोषणापत्र भाजपा ने ही पेश किया है। भाजपा के घोषणापत्र को पढ़कर लगता है कि वह 2004 की गलती को सुधारना चाहती है। तब उसने आम आदमी की उपेक्षा करके उच्च मध्यम और अमीर लोगों की ओर देखना शुरू कर दिया था। नतीजतन अटल बिहारी वाजपेयी की छह साल की शानदार उपलब्धियों के बावजूद भाजपा को 35 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने आठ महीने पहले फरवरी 2004 में लोकसभा भंग करके मध्यावधि चुनाव करवाने का एलान किया तो ऐसा नहीं लगता था कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार जाएगी। वह मानकर चल रही थी कि अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता जवाहर लाल नेहरू को भी पार कर गई है। इसलिए वाजपेयी पूरी उम्र प्रधानमंत्री पद पर बने रहेंगे। भाजपा भारत उदय के रथ पर सवार होकर अमर होने की कोशिश कर रही थी।
इसलिए उसने अपने सहयोगियों की परवाह नहीं की। तमिलनाडु में करुणानिधि को छोड़कर जयललिता से हाथ मिलाना और आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू का खिसक जाना राजग को भारी पड़ा। अगर चंद्रबाबू और करुणानिधि साथ होते तो अपनी 35 सीटें घट जाने के बावजूद वाजपेयी फिर से सरकार बनाने में कामयाब हो जाते। गठबंधन के जमाने में चुनाव घोषणापत्रों का उतना महत्व नहीं रहता। चुनाव घोषणापत्रों के आधार पर राजनीतिक दलों का गठबंधन बने, तो इस बार भाजपा और माकपा के चुनाव घोषणापत्र एक-दूसरे के काफी करीब दिखाई दे रहे हैं। यह कहना सही नहीं होगा कि चुनाव में घोषणापत्र की भूमिका नहीं होती। पिछली बार कांग्रेस ने आम आदमी को महत्वपूर्ण मुद्दा बनाकर अपनी 30 सीटें बढ़ा ली थी। वैसे यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा को हुए नुकसान का फायदा कांग्रेस को हुआ। भाजपा की 35 सीटें घटी थी, इसी का फायदा कांग्रेस को हुआ और उसकी 30 सीटें बढ़ गई थी। तेरहवीं लोकसभा में कांग्रेस 68 सीटें कम थी, जबकि चौदहवीं लोकसभा में सात सीटें ज्यादा हो गई।
1984 के बाद अब तक छह लोकसभाओं के चुनाव हो चुके हैं और कभी भी किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है। सिर्फ 1999 का चुनाव ही अपवाद है जब चुनाव पूर्व गठबंधन के आधार पर राजग स्पष्ट बहुमत हासिल कर सका। लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के लिए 272 सांसदों की जरूरत होती है लेकिन कोई राजनीतिक दल 1991 के बाद कभी दो सौ का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाया। कांग्रेस तो 1991 के बाद कभी डेढ़ सौ आंकड़े को भी नहीं छू पाई है। वामपंथियों की ओर से समर्थन वापस लेने के बाद मनमोहन सिंह सरकार बच गई थी तो ऐसा वातावरण बना था कि यूपीए पहले से ज्यादा मजबूत हो गया है। भाजपा के हौंसले टूटे हुए थे। तृणमूल कांग्रेस के बाद बीजू जनता दल ने ठीक चुनाव से पहले साथ छोड़कर राजग को चकनाचूर कर दिया। कांग्रेस के लिए एक अच्छा मौका बन गया, लेकिन उसने भी वही गलती की है जो 2004 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी ने की थी। भाजपा के घमंड के कारण चुनाव से ठीक पहले एम करुणानिधि, ओम प्रकाश चौटाला, चंद्रबाबू नायडू और प्रफुल्ल महंत साथ छोड़ गए थे। उसी घमंड का शिकार इस बार कांग्रेस हो गई है। उसने यूपीए के तौर पर चुनाव न लड़ने का एलान करके लालू यादव, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान और शरद पवार को नाराज कर लिया है। लालू-पासवान बिहार की सभी सीटों पर और मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। शरद पवार महाराष्ट्र में जरूर कांगेस के साथ गठबंधन में है, लेकिन उड़ीसा में उन्होंने बीजू जनता दल के साथ गठबंधन कर लिया है। बीजू जनता दल से गठबंधन का मतलब तीसरे मोर्चे में जाने का दरवाजा खोलना है। मेघालय में अपने बूते पर चुनाव मैदान में उतरे राष्ट्रवादी कांग्रेस के पीए संगमा पूर्वोत्तर में भाजपा का समर्थन कर रहे हैं। गुजरात में शरद पवार ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान करके कांग्रेस की मुश्किल बढ़ा दी है। पवार की गुजरात में अपनाई गई रणनीति से भी भाजपा को फायदा होगा। उड़ीसा में बीजू जद से गठबंधन करके तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता खोज रहे हैं। तो गुजरात और पूर्वोत्तर में भाजपा को फायदा पहुंचाकर भाजपा-शिवसेना, तेलुगूदेशम, बीजू जनता दल, जयललिता के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने का मार्ग भी खुला छोड़े हुए हैं।
कुल मिलाकर चुनावों की शुरूआत में जो यूपीए एकजुट दिखाई देता था, वह बिखर चुका है। कांग्रेस का अपनी सीटें बढ़ाकर दो सौ का आंकड़ा पार करने का सपना भी टूट गया है। कांग्रेस के अपने आंकलन के मुताबिक उसे 150 से 160 सीटें मिलेंगी। चौदहवीं लोकसभा में कांग्रेस 145 सीटें जीती थी, लेकिन इस समय उसके सांसदों की तादाद 151 है। कांग्रेस का अपना अनुमान अगर 150-160 का है, तो यह मानकर चलना चाहिए कि उसकी सीटें 140 से कम ही आएंगी। ऐसा मानने का आधार यह है कि कांग्रेस राजस्थान में 15, कर्नाटक में 12-13, उत्तर प्रदेश में 15, पंजाब में 8-9, केरल में 14-15 सीटें मानकर चल रही है। आंध्र प्रदेश में जहां उसके अभी 29 सांसद हैं, वहां उसका अनुमान 20 सांसदों का है, जबकि हकीकत इस अनुमान से कोसों दूर है। तेलुगूदेशम, टीआरएस और वामपंथी दलों का सीटों को लेकर शुरू हुआ झगड़ा करीब-करीब निपट गया है। दो-चार विधानसभा सीटों पर भले ही मित्रवत चुनाव हों। आंध्र का आंकलन कहता है कि कांग्रेस दस से पंद्रह सीटों के बीच ही ठहर जाएगी। इसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस को 12-13 सीटें तभी मिल सकती थी अगर उसका जनता दल सेक्युलर से गठबंधन होता। उत्तर प्रदेश में 15 सीटों का ख्वाब और जगदीश टाइटलर को 1984 के नरसंहार से बरी करने के बाद पंजाब में 8-9 सीटों का ख्वाब भी पूरा होता नहीं दिखता। केरल में वामपंथी दलों को भारी नुकसान तो होगा लेकिन कांग्रेस कुछ ज्यादा ही सोच रही है।
दूसरी तरफ भाजपा जमीनी हकीकत के ज्यादा करीब है। भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए सेफोलोजिस्ट जीवीएल नरसिंहराव ने 162 सीटों का आंकलन पेश किया है। यह भाजपा का सीटें जीतने का अनुमान नहीं, अलबत्ता चिन्हित की गई वे सीटें हैं, जिन्हें थोड़ा जोर लगाकर जीता जा सकता है। भाजपा पिछली बार 138 सीटें जीती थी, लेकिन चुनावों का एलान होते समय उसके 129 सांसद बचे थे। भाजपा अगर 162 सीटों का लक्ष्य हासिल कर लेती है तो वह 33 सीटों की बढ़ोत्तरी करेगी। भाजपा जमीनी हकीकत के नजदीक इसलिए भी लगती है क्योंकि वह मानकर चल रही है कि उसे राजस्थान, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में 14-15 सीटों का नुकसान होगा। लेकिन वह इसकी भरपाई उत्तर प्रदेश में वरुण गांधी के कारण बने माहौल और गुजरात में नरेन्द्र मोदी को शरद पवार से मिलने वाली मदद से पूरी कर लेगी। भाजपा अपनी सीटों में बढ़ोत्तरी की उम्मीद उत्तराखंड, दिल्ली, झारखंड, महाराष्ट्र, असम, जम्मू कश्मीर, हिमाचल और बिहार से लगाए हुए है। अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए भाजपा को इन राज्यों में 45 सीटें बढ़ानी होंगी। हालात में कोई बड़ा परिवर्तन आता दिखाई नहीं दे रहा। कांग्रेस अपने 200 के लक्ष्य से बहुत पीछे जाती दिखाई दे रही है और भाजपा का भी 162 का लक्ष्य पूरा होता दिखाई नहीं देता। दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की सीटें 150-150 के आसपास ही रहेंगी। दोनों राजनीतिक दलों में अंतर भी दस-पंद्रह सीटों का ही रहेगा। यूपीए की सरकार बनवाने वाले वामपंथी दलों, करुणानिधि, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, झारखंड मुक्तिमोर्चा और बाद में सरकार बचाने वाले मुलायम सिंह यादव की मौजूदा लोकसभा में 160 सीटें थी। इन सभी दलों को चुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। अब ये सभी दल 80-85 सीटों पर निपट जाएंगे। इसलिए पच्चीस-पच्चीस, तीस-तीस सीटें लाने वाली दो देवियों मायावती और जयललिता की अगली सरकार बनवाने में अहम भूमिका होगी।
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