वोटरों, सांसदों की खरीद-फरोख्त वाला लोकतंत्र

Publsihed: 22.Mar.2009, 20:39

सबको वोट के हक से शुरू हुई लोकतंत्र में खराबी। पहले दलितों के वोट खरीदे जाते थे। फिर सरकारी खजाने का बेजा इस्तेमाल शुरू हुआ। अब तो राजनीतिक दल टिकट बेच रहे हैं। विधायक-सांसद खुद बिक रहे हैं।

चुनाव में वोटरों को खरीदने की बात कोई नई नहीं है। पहले गांवों में दलितों को ऊंची जातियों के लोग वोट नहीं डालने देते थे फिर दलितों के एक नेता को एक पसेरी चावल पहुंचा कर ऊंची जाति के लोग पूरे समुदाय की ठेकेदारी उसी को दे देते थे। वक्त बीता तो दलितों के कई नेता उभरने लगे और खरीदारों की तादाद भी बढ़ गई। धीरे-धीरे नौबत यह आ गई कि उम्मीदवार और राजनीतिक दल नगदी और शराब की बोतल लेकर सीधे दलित के घर पहुंचने लगे। इस तरह सत्ता खुद दलित के घर तक पहुंच गई। पचास साल के भारतीय लोकतंत्र का यह सफर सुनने में बड़ा अजीब लगता है। फिर भी इस सच्चाई को नकारना अपनी आंखों पर पट्टी बांधने जैसा ही होगा। पिछले पचास सालों से लोकतंत्र धन्ना सेठों का बंधक होकर रह गया है। पैसा भी उन कुछ परिवारों तक सीमित हो गया है, जिन्होंने राजनीति को अपना पेशा बना लिया है।

संविधान निर्माताओं के मन में ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं थी। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि राजनीति धन कमाने का जरिया बन जाएगी। उनके मन में ऐसी आशंका भी पैदा नहीं हुई होगी कि कुछ परिवार राजनीति से धन कमाकर वोटरों को खरीदने का धंधा शुरू कर देंगे।

लेकिन यह पहले चुनाव के फौरन बाद शुरू हो गया। अगर संविधान निर्माताओं ने ऐसा सोचा होता तो सभी को वोट का अधिकार देने के फैसले से बचा जा सकता था। देश के हर नागरिक को वोट का अधिकार देते समय यह आशंका कतई नहीं थी कि वोट खरीदे जा सकते हैं। दुनिया के बाकी देशों ने अपना लोकतंत्र धीरे-धीरे विकसित किया था। खुद ब्रिटेन में लोकतंत्र विकसित होने में सौ साल से ज्यादा का वक्त लग गया था। जबकि हमने ब्रिटेन की नकल करते हुए पहले ही झटके में विकसित लोकतंत्र की स्थापना कर दी।

स्विटजरलैंड यूरोप का सबसे पुराने लोकतंत्र वाला देश है, लेकिन 1920 तक वहां औरतों की वोट का अधिकार नहीं था। ब्रिटेन में भी 1929 तक औरतों को वोट का अधिकार नहीं था। तब तक सिर्फ आयकर दाताओं, संपत्ति धारकों और ग्रेजुएट्स को वोट का अधिकार था। ब्रिटिश लोकतंत्र की तर्ज पर भारत में लोकतंत्र शुरू करने के लिए अंग्रेजों ने 1935 में इंडिया एक्ट बनाया। इस एक्ट के तहत ग्रेजुएट्स, आयकर दाताओं, संपत्ति कर दाताओं, राजस्व और पानी का टैक्स देने वालों को वोट का अधिकार दिया गया। वोट का हक पाने के लिए ये सभी बातें इंसान को पढ़ने-लिखने, मेहनती और ईमानदार बनने की प्रेरणा देती हैं। एक ऐसा नागरिक बनने की प्रेरणा देती हैं, जो देश-समाज के प्रति जिम्मेदारी का निर्वहन करे। संविधान निर्माताओं ने इसके गूढ़ अर्थ को नहीं समझा, अन्यथा सबको वोट का अधिकार देने से पहले सौ बार सोचते। पाकिस्तान और बर्मा में भी लोकतंत्र कायम हुआ, लेकिन वहां सभी को वोट का अधिकार नहीं दिया गया। यह बात अलग है कि बर्मा में सही अर्थो में लोकतंत्र कायम नहीं हुआ और पाकिस्तान में अब तक 16 संविधान सभाएं बन चुकी हैं। भारत में भी यूरोप की तरह लोकतंत्र को सीढी दर सीढ़ी विकसित किया जाता तो आज की दशा से बचा जा सकता था।

धन बल का उपयोग पहले ही चुनाव में शुरू हो गया था, लेकिन जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी ने चुनाव सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं ली। दूसरे चुनावों पर कांग्रेस को सत्ता का स्वाद मुंह लग गया था। इसलिए उसने लोकतंत्र की इस बड़ी खामी को सत्ता हासिल करने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। दो-तीन चुनावों के बाद वोटरों के मुंह में खून लग गया था। उनकी कीमत बढ़ने लगी, तो राजनीतिक दलों ने दूसरे तरीके निकालने शुरू किए। वोट बैंक बनाने के लिए सीधे सरकारी खजाने का इस्तेमाल शुरू हो गया। राशन की दुकान, खाद का डिपू, मिट्टी तेल का लाइसेंस अपने खास लोगों को देकर चुनाव के वक्त पांच-पांच गांवों में वोट खरीदने का ठेका थमा दिया गया। सरकारी खजाने पर बोझ डालने वाली सस्ते राशन की दुकानें वोटरों को खरीदने के लिए धन कमाने का जरिया बन गई। करीब तीन दशक तक लाईसेंस प्रणाली वोट बैंक साधने और वोटरों की खरीद-फरोख्त का हथियार बने रहे। इसके बाद सरकारी खजाने से वोटरों को खरीदने के लिए काम के बदले अनाज योजनाएं और चावल, गेहूं, पेट्रोल पर सब्सिडी जैसे फार्मूले निकले। शिक्षा का विस्तार करने, मुफ्त और लाजिमी शिक्षा देने, सड़कों का निर्माण करने, बिजली उत्पादन करने, रोजगार के लिए अवसर पैदा करने की बजाए लोकतंत्र का यह विभत्स रूप हमारे सामने आया। जिसमें सरकारी खजाने का राष्ट्र निर्माण की बजाए वोटरों को लुभाने के लिए इस्तेमाल शुरू हो गया। जातियों को आरक्षण की सुविधा, जाति आधारित स्कूलों, कालेजों में प्रवेश का कोटा। सरकारी फंड से बने भवनों, स्कूलों, कालेजों का वोट बैंक बनाने के लिए इस्तेमाल लोकतंत्र का कुरूप चेहरा है। नरसिंह राव के शासनकाल में लोकतंत्र का स्तर और नीचे चला गया जब सांसदों की मंडी लगी। उन्हीं के शासनकाल में भ्रष्टाचार ने नया आयाम पैदा किया जब सांसद निधि तय कर दी गई। सांसद निधि दूध देने वाली ऐसी दुधारू गाय बन गई है, जो वोटरों को सरकारी खजाने से रिश्वत देने के काम तो आ ही रही है, ठेकेदार से कमिशन की मोटी रकम घर बैठे मिलने लगी है।

मौजूदा सभी समस्याओं की जड़ में सभी को वोट का अधिकार देना था। शुरू में हम सिर्फ उन्हीं को वोट का अधिकार देते, जो कम से कम मैट्रिक पास होता। तो लोगों में मैट्रिक तक पढ़ने की लालसा पैदा होती और तीन दशक पहले ही सारा भारत कम से कम मैट्रिक पास होता। पढ़े-लिखे वोटरों की खरीद-फरोख्त आसान नहीं होती और लोकतंत्र का स्वरूप ही कुछ और होता। आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या चुनावों का इतना महंगा हो जाना है कि लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लग गया है। साठ साल बाद लोकतंत्र का विभित्स रूप हमारे सामने है। अब देश के हर राज्य में कुछ राजनीतिक घराने बन गए हैं, जिनके परिवार का कोई न कोई सदस्य विधायक या सांसद जरूर होता है। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन जरूर ऐसा मोड़ था, जिसने जमीन से जुडे नए चेहरे भारतीय राजनीति को दिए। लेकिन जयप्रकाश नारायण आंदोलन से निकले लालू यादव, मुलायम यादव, राम विलास पासवान ने भी राजनीति की वही डगर पकड़ ली है। लालू यादव भ्रष्टाचार में फंस जाते हैं तो वह मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने परिवार की जागीर बना देते हैं। मुलायम सिंह यादव ने अपने पूरे कुनबे को ही राजनीति में उतार दिया है। पासवान अपने भाई के बाद अपनी पत्नी को लाने की फिराक में हैं। राजनीतिक दल भी परिवारों की संपत्ति बन गए हैं। चाहे वह कांग्रेस हो या शिवसेना। द्रमुक हो या राजद। तेलुगूदेशम हो या अकाली दल। चंद परिवारों और पैसे का बंधक हो गया है भारत का लोकतंत्र।

देश में ऐसे सौ परिवार ऊंगलियों पर गिने जा सकते हैं, जिनका मूल पेशा राजनीति हो चुका है। राजनीति उन परिवारों के लिए समाज सेवा का जरिया नहीं रहा। उनकी संपत्ति दिन दुगनी-रात चौगुनी बढ़ रही है। उस अनुपात में और किसी काम धंधे में इतनी संपत्ति नहीं बढ़ती, जितनी राजनीतिक परिवारों की बढ़ी है। उन्हें एक दल से टिकट नहीं मिले तो दूसरे दल में चले जाते हैं। दूसरे दल से टिकट मिल जाता है। राजनीतिक दलों का टिकट भी अब बिकने लगा है। नेपाली नागरिकता के केस में फंसे मणिकुमार सुब्बा ने एक दशक पहले ही धन बल के जरिए टिकट हासिल करके टिकटार्थियों के लिए नए रास्ते खोज दिए थे। यह रास्ता अब राजनीतिक दलों के मठाधीशों के लिए धनोपार्जन का साधन बन चुका है। कितनी हैरानी की बात है कि जिस कांग्रेस सरकार की सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट दाखिल की है कि मणिकुमार सुब्बा भारत का नागरिक नहीं, उसी कांग्रेस ने इस बार भी मणि कुमार सुब्बा को टिकट दे दिया है। पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों पर टिकट बेचने का आरोप लगा था। लोकतंत्र में धन का प्रभाव सब जगह दिखाई देने लगा है। करोड़ों-अरबों रुपए का लेन-देन सबको पता है लेकिन राजनीतिज्ञों ने मिलकर तय कर लिया है कि सार्वजनिक तौर पर शोर भले ही मचाएं, पर एक-दूसरे को बचाएंगे। उनकी आपसी सहमति से सिध्दांत यह बन गया है कि जो पकड़ा जाए, सिर्फ उसे चोर कहा जाए। इसका सबूत यह है कि चौदहवीं लोकसभा में ग्यारह सांसद कुछ हजार रुपए की भेंट लेते हुए पकड़े गए तो बर्खास्त कर दिए गए। लेकिन जिन सांसदों की संपत्ति पांच साल में कई करोड़ हो जाती है, उनका कुछ नहीं बिगड़ता।

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