एक दशक से दक्षिण बना-बिगाड़ रहा सरकार

Publsihed: 01.Mar.2009, 20:39

आठवीं लोकसभा के बाद किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। पंद्रहवीं लोकसभा भी त्रिशंकु होगी। तीसरा मोर्चा अभी भले ही उभरता दिखाई दे रहा हो, लेकिन तीसरे मोर्चे की सरकार नहीं बनीं, तो चंद्रबाबू, जयललिता, मायावती एनडीए के साथ जा सकती हैं। तीनों पहले भी एनडीए के साथ रहे हैं।

यूपीए सरकार ने अल्पमत में होते हुए अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। पहले वामपंथी दलों के समर्थन से और बाद में समाजवादी पार्टी के समर्थन से सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। कांग्रेस को दो बार अल्पमत सरकार चलाने का मौका मिला। और दोनों ही बार उसने सांसदों की खरीद-फरोख्त करके अपना कार्यकाल पूरा किया। नरसिंह राव ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों को पैसा देकर और जनता दल अजित के चार सांसद मंत्रिपद का लालच देकर खरीदे थे, जिसका सबूत बाद में ऐतिहासिक यूरिया घोटाले में मिला। इस बार भी जब वामपंथी दलों ने समर्थन वापस ले लिया था। तो कांग्रेस को बड़े पैमाने पर सांसदों की खरीद-फरोख्त करनी पड़ी। इस बीच दल बदल कानून कड़ा हो जाने के कारण एक दर्जन सांसदों को अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि कोई बिना मोटे लाभ के खुद को क्यों बर्खास्त करवाना चाहेगा। यह सत्ता लोलुपता ही है जो आजादी के लिए संघर्ष करने का दम भरने वाली कांग्रेस सांसदों की खरीद फरोख्त से सरकार बचाती है। महात्मा गांधी, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी या जयप्रकाश नारायणन ऐसी स्थिति में निश्चित ही मध्यावधि चुनाव को प्राथमिकता देते। दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेयी सरकार 1999 में एक मुख्यमंत्री के वोट से गिर गई थी। एक-दो सांसदों की खरीद-फरोख्त सरकार को बचा सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया था। यही वजह है कि उनके विरोधी भी वाजपेयी को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।

आजादी के बाद चौदह लोकसभाओं के चुनाव हुए हैं। पहली आठ लोकसभाओं को छोड़ दें, तो बाद की छह लोकसभाओं में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। अंतिम बार 1984 में देश की जनता ने राजीव गांधी को दो तिहाई बहुमत देकर जो गलती की थी, उसी की भरपाई वह लगातार त्रिशंकु लोकसभाएं देकर कर रही है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बोफोर्स घोटाले के बाद देश की जनता का कांग्रेस पर से विश्वास उठ चुका है। लगातार पांच चुनावों में हारने के बाद कांग्रेस ने विपक्ष से गठबंधन की सरकार बनाना सीखा, लेकिन इस बार भी उसने दसवीं लोकसभा वाली गलती दोहराकर खुद को अमर्यादित साबित कर दिया है। यही वजह है कि पूरे पांच साल शासन करने के बाद भी कांग्रेस यह दावा नहीं कर सकती कि वह 2009 के चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल कर लेगी। पिछली बार की तरह इस चुनाव में भी राजग और यूपीए के साथ लेफ्ट की रहनुमाई वाला तीसरा मोर्चा भी सत्ता के लिए मैदान में कूद रहा है। हालांकि पिछले दो दशक से तीसरे मोर्चे का प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले मुलायम सिंह अब यूपीए के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं, इसके बावजूद संसद के आखिरी सत्र में ज्यादातर राजनीतिक महारथियों का अनुमान पंद्रहवीं लोकसभा में तीसरे मोर्चे के हाथ में सत्ता की बागडोर रहने का था। तीसरे मोर्चे को मुलायम सिंह का विकल्प मायावती के रूप में मिल चुका है। अपनी प्रमुख प्रतिद्वंदी मायावती को तीसरे मोर्चे का रहनुमा बनते देखकर मुलायम सिंह की स्थिति फिलहाल डांवाडोल है। यूपीए सरकार बचाने में मदद देकर मुलायम सिंह कांग्रेस और यूपीए से जिस सम्मान की उम्मीद कर रहे थे, उससे उन्हें धोखा मिला है। इसलिए वह तीसरे मोर्चे में लौटने के लिए छटपटा रहे हैं।

मार्च के महीने में जब चुनावी गोटियां पूरी तरह बिछ चुकी होंगी, तो तीनों मोर्चो में भारी उथल-पुथल दिखाई देगी। जयललिता वक्त के मुताबिक चुनाव से पहले या चुनाव के बाद पाला बदल सकती है। यही हालत मुलायम सिंह, मायावती, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी और करुणानिधि की भी है। चौदहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र का सत्रावसान होने के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने शरद पवार को राजग में आने का न्यौता देकर बिसात बिछा दी है। करुणानिधि को कांग्रेस से अलग-थलग करने के लिए जयललिता ने कांग्रेस को वक्त रहते तालमेल के लिए न्यौता दे दिया है। अगर कांग्रेस ऐसा करती है, तो रामसेतु पर गहरे मतभेद होने के बावजूद भाजपा-द्रमुक में तालमेल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। 1998 में वाजपेयी सरकार बनने में चंद्रबाबू नायडू और जयललिता की अहम भूमिका थी, 1999 में जयललिता की भूमिका करुणानिधि ने ले ली थी। पौने पांच साल पहले यूपीए सरकार बनने का कारण भी दक्षिण के इन्हीं दोनों बड़े राज्यों आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की अहम भूमिका थी। वाजपेयी सरकार को समर्थन देने वाले चंद्रबाबू नायडू को बुरी तरह हराकर कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश की 42 में से 29 सीटें जीत ली थी। वाजपेयी सरकार को समर्थन देने वाले करुणानिधि आखिरी वक्त में पाला बदलकर यूपीए में चले गए थे और तमिलनाडु की सभी सीटों पर कब्जा कर लिया था। तमिलनाडु में कांग्रेस खुद दस और उसका सहयोगी द्रमुक गठबंधन बाकी की सभी 29 सीटें जीत गया था। इस तरह यूपीए को मिली 211 सीटों में से 68 यानी करीब तिहाई सीटें तो इन्हीं दो राज्यों की थी। एक दशक तक केंद्र की सरकार बनाने-बिगाड़ने की भूमिका निभाने वाले दक्षिण के इन दोनों राज्यों पर यूपीए और एनडीए दोनों की निगाह टिकी हुई है। क्या इन दोनों राज्यों की नई सरकार बनाने में भी अहम भूमिका होगी। इन दोनों राज्यों के क्षेत्रीय दल परिस्थितियों के मुताबिक मोर्चा बदलने में माहिर हैं। फिलहाल तीनों मोर्चे बन-बिगड़ रहे हैं। मार्च महीने के आखिर में तीनों गठबंधनों की रूप रेखा साफ होगी। इनलोद, असमगण परिषद और लोकदल ने एनडीए में फिर से प्रवेश कर लिया है। एनडीए में रही नेशनल कांफ्रेंस साढ़े चार साल तीसरे मोर्चे में रहने के बाद यूपीए में जा चुकी है। एनडीए का एक और घटक तृणमूल कांग्रेस यूपीए के दरवाजे पर खड़ा है।

एक तरफ यूपीए और एनडीए दो बड़े घटक सत्ता के दावेदार हैं, तो दूसरी तरफ तीसरा मोर्चा नए सिरे से बन-बिगड़ रहा है। पिछले लोकसभा चुनावों के वक्त वामपंथी दलों, समाजवादी पार्टी और तेलुगू देशम ने मिलकर चुनाव तो नहीं लड़ा था लेकिन तीनों दल एक-दूसरे के काफी करीब आ चुके थे। इन सभी को तीसरा मोर्चा मानें, तो पिछले चुनाव में इन्हें 101 सीटें हासिल हुई थी और उनके समर्थन के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती थी। माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने चुनाव नतीजों के फौरन बाद सोनिया गांधी को समर्थन देकर तीसरे मोर्चे की ताकत को फ्यूज कर दिया था। कांग्रेस ने उसका भरपूर फायदा उठाते हुए तीसरे मोर्चे को पहले ही दिन तोड़ दिया था। केंद्र की एनडीए सरकार को समर्थन दे चुके अन्ना द्रमुक, बसपा, तेलगूदेशम और पिछले लोकसभा चुनाव में ही उभरे टीआरएस ने मिलकर अब नए सिरे से तीसरा मोर्चा गठित किया है। माकपा के महासचिव प्रकाश करात को हरकिशन सिंह सुरजीत की तरह कांग्रेस के प्रति नरम नहीं माना जाता। अगर कांग्रेस की सीटें भाजपा से कम आई, तभी तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की संभावना बनेगी। ऐसी सूरत में यूपीए के दल भी गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बनाने का दबाव डालेंगे, लेकिन तीसरे मोर्चे की सरकार नहीं बनी, तो वामपंथी दलों की कोशिश यूपीए सरकार बनवाने की होगी। जबकि तीसरे मोर्चे के बाकी दल अपने राज्यों की परिस्थितियों के मुताबिक फैसला करेंगे। इस बार तीसरे मोर्चे के प्रमुख घटक वामपंथी दलों की हालत पिछली बार जैसी मजबूत नहीं है। वामपंथी नेता भी मानते हैं कि इस बार उन्हें दोनों राज्यों में कम से कम पंद्रह सीटों का नुकसान होगा। इसकी भरपाई कहीं से होती दिखाई नहीं देती। वामपंथी दलों की नई साथिनों जयललिता और मायावती की हालत में जरूर सुधार होगा। पिछली बार तो जयललिता की अन्ना द्रमुक लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। तीसरा मोर्चा जयललिता, मायावती और चंद्रबाबू नायडू की ताकत पर निर्भर करेगा। इसमें कोई शक नहीं कि पिछली बार के मुकाबले तीसरे मोर्चे के ये तीनों नए घटक ज्यादा ताकतवर हैं। देखना होगा कि चंद्रबाबू, मायावती और जयललिता की सीटें कितनी आती हैं, लेकिन ये तीनों ही पहले एनडीए सरकार का समर्थन कर चुकी हैं। मुलायम अगर कांग्रेस के साथ रहेंगे तो मायावती मजबूरी में आडवाणी का साथ देंगी। करुणानिधि अगर सोनिया के साथ रहेंगे तो जयललिता भी आडवाणी का समर्थन कर देंगी। तीसरे मोर्चे की सरकार न बनी, तो चंद्रबाबू भी पिछली बार की तरह राष्ट्रपति से कहेंगे कि वह किसी भी हालत में कांग्रेस का समर्थन नहीं करेंगे।

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