शरीयत पर इतनी हायतौबा भी ठीक नहीं

Publsihed: 22.Feb.2009, 21:01

पाकिस्तान के एनएफडब्ल्यूपी में लोगों की समस्याओं और आक्रोश का निदान करने के लिए शरीयत लागू की गई है। मौलाना सुफी मोहम्मद के साथ हुआ समझौता उनके तालिबानी दामाद मौलवी फजलुल्लाह को अलग-थलग करने में सहायक हुआ, तो यह स्वात घाटी में तालिबान की कमर तोड़ने में सहायक होगा।

पिछले हफ्ते इसी कालम में मैंने तालिबान के भारत के सिरहाने तक आ पहुंचने की चिंता जताई थी। जिस दिन यह कालम छपा उस दिन इसी तरह की खबरें आनी शुरू हो गई थी। पिछले सोमवार का यह वही दिन था जब पेशावर में एनडब्ल्यूएफपी प्रशासन और वहां शरीयत कानून लागू करने की मांग कर रहे मुल्लाओं में समझौता हुआ। एनडब्ल्यूएफपी ने कट्टरपंथी मौलवी सूफी मोहम्मद की तहरीक-ए-निफाज-ए-शरीयत-ए मोहम्मदी (टीएनएसएम) के साथ समझौता किया है जिसके मुताबिक एनडब्ल्यूएफपी के मालाकंड डिवीजन में निजाम-ए-अदल शरीयत का कानून लागू हो जाएगा। इस खबर ने दुनियाभर को चौंका दिया क्योंकि इस घटनाक्रम को पाकिस्तान सरकार का तालिबान के सामने घुटने टेकना माना गया।

खासकर पश्चिमी देशों ने पाक सरकार के इस कदम को अपनी हार के तौर पर देखा है। भारत में भी इस घटना को पाकिस्तान सरकार का तालिबानियों के सामने समर्पण माना जा रहा है, लेकिन अपनी राय बनाने से पहले जरूरी होगा कि हम इस घटनाक्रम की पृष्ठभूमि को समझ लें।

दसवीं सदी तक स्वात घाटी की ज्यादातर आबादी बुध्द धर्मावलंबी थी, इसलिए यहां के लोग बेहद शांतिप्रिय थे। मीर उवैस जहांगीरी स्वात घाटी का आखिरी राजा था और उसका शासन जलालाबाद से झेलम तक फैला हुआ था। सोलहवीं शताब्दी में युसफजाई कबाइली जाति ने मालाकंड -स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया। युसफजाई कबीले की जातियां अलग-अलग इलाकों पर शासन करने लगे, कोई केन्द्रीय सत्ता लागू नहीं की गई। अगर कबीलों में कोई झगड़ा होता तो वे आपस में ही निपटा लेते थे, लेकिन बाहरी हमलावरों का मुकाबला करने के लिए सब कबीले एकजुट हो जाते थे। यह प्रणाली 1915 तक लागू रही, जब सभी कबीलों ने मिलकर एक केंद्रीय शासन प्रणाली गठित करके स्वात को एक देश की तरह स्थापित कर लिया। उन्होंने अब्दुल जाबर खान को अपना केन्द्रीय नेता चुना। वह दो साल ही शासन कर सका, उसके बाद मिया गुल अब्दुल वदूद केन्द्रीय नेता चुने गए। मिया गुल अब्दुल का अंग्रेजों के साथ समझौता हुआ, जिसके तहत ब्रिटिश हकूमत ने 1926 में उसे वली-ए-स्वात का पद दिया। वली-ए-स्वात ने अपनी प्रशासनिक और न्याय प्रणाली स्थापित की। उसने दो तरह की अदालतें स्थापित की और उनका अलग-अलग कार्य क्षेत्र तय कर दिया। धार्मिक विद्वान की रहनुमाई में गठित अदालत को 'काजी अदालत' कहा गया और क्षेत्र के तहसीलदार की रहनुमाई में गठित अदालत को 'न्यायिक अदालत' कहा गया। 'काजी अदालत' का दायरा शरीयत के तहत आने वाले सभी मामलों तक सीमित था जिसमें तलाक और पैतृक संपत्ति जैसे मामले भी आते थे। बाकी सभी मामले तहसीलदार की अदालत में जाते। इन दोनों अदालतों के फैसलों की अपील हाकिम की अदालत में पेश की जा सकती थी और अंतिम फैसला 'वली' से लिया जा सकता था। काजी या तहसीलदार की अदालत से शुरू हुए किसी भी मुकदमे का अंतिम फैसला होने की प्रक्रिया में सिर्फ एक महीने की मोहलत तय थी। उस समय सामाजिक समस्याएं भी इतनी नहीं थी, जिस कारण न्याय की प्रक्रिया बहुत तीव्र थी। स्वात की यह प्रशासनिक प्रणाली किसी भी हालत में पूरी तरह शरीयत के मुताबिक नहीं थी, इसलिए 1949 में कुछ मुस्लिम नेताओं ने इस्लामिक कानून लागू करने की मांग की, लेकिन उसे ठुकरा दिया गया।

स्वात शासन के तहत आने वाले डीर, मालाकंड और बाजौर इलाके 1960 में पाकिस्तान में शामिल हुए थे जबकि स्वात घाटी का विलय 1969 में हुआ। ब्रिटिश शासन के बाद भी स्वतंत्र रहे इन तीनों क्षेत्रों को क्षेत्रीय प्रशासित कबाइली क्षेत्र 'पाटा' घोषित करके जिले का दर्जा दे दिया गया। पाकिस्तान का पुलिस प्रशासन लागू करके जिला मेजिस्ट्रेट तैनात कर दिया गया लेकिन न्यायिक प्रणाली 'जिरगा' आधारित ही रखी गई। पाकिस्तान के वकीलों ने 1992 में एक याचिका दायर करके जिरगा प्रणाली को चुनौती दी, ताकि इस्लामिक कानून लागू हो और वकीलों का फायदा हो। अदालत के फैसले के बाद 'पाटा' में लागू कानून प्रणाली तो खत्म कर दी गई लेकिन कोई वैकल्पिक व्यवस्था लागू नहीं की गई। नतीजतन न्यायिक व्यवस्था ठप्प पड़ गई, जिससे जनता में असंतोष पैदा हो गया। इसी स्थिति के खिलाफ मौलाना सुफी मोहम्मद ने तहरीक-ए-निफाज-ए-शरीयत-ए-मोहम्मदी (टीएनएसएम) का गठन किया। यह संयोग ही है कि सूफी मोहम्मद ने जब नवंबर 1994 में टीएनएसएम का गठन किया, ठीक उसी समय तालिबान ने कंधार पर कब्जा कर लिया। मुल्ला उमर ने मदरसे के सिर्फ 50 छात्रों को साथ लेकर तालिबान आंदोलन शुरू किया था। कंधार पर तालिबान का कब्जा होते ही पाकिस्तानी मदरसों में पढ़ रहे हजारों छात्रों ने अफगानिस्तान की तरफ कूच शुरू कर दिया और एक महीने के अंदर दिसंबर 1994 में बारह हजार तालिबानी लड़ाकों की फौज खड़ी हो गई। इसका असर पाकिस्तान की स्वात घाटी पर पड़ा, जहां सूफी मोहम्मद की रहनुमाई वाले टीएनएसएम ने छह जिलों पर कब्जा कर लिया। टीएनएसएम ने बाईं ओर गाड़ी चलाने को गैर इस्लामी करार देते हुए दाईं ओर गाड़ियां चलाने का फरमान जारी कर दिया। उन्होंने बाएं हाथ पर घड़ी पहनने पर भी इस्लाम विरोधी करार दे दिया। वैसे सूफी मोहम्मद खुद बहुत ही साधारण और शांतिप्रिय व्यक्ति हैं, वह गैर मुसलमानों के खिलाफ जेहाद के अलावा हिंसा के खिलाफ है। लेकिन उसमें नेतृत्व की क्षमता नहीं है, इसी का नतीजा था कि उनके आंदोलन में लुच्चे-लफंगे और समाज विरोधी लोग शामिल हो गए, जिन्होंने जंगल का राज स्थापित करने की कोशिश की। हिंसा के कारण तब प्रांतीय सरकार ने पहली दिसंबर 1994 में स्थिति अपने हाथ में लेने के लिए स्वात समेत मालाकंड डिवीजन और कोहिस्तान में निजाम-ए-शरीयत लागू कर दिया। निजाम-ए-शरीयत करीब-करीब वैसी ही कानून व्यवस्था थी जैसी कि 1992 से पहले वहां लागू थी। लेकिन काजी अदालतों में भ्रष्टाचार के कारण पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ जनता का आक्रोश खत्म नहीं हुआ। इसलिए टीएनएसएम ने कानून व्यवस्था को बदलने और इस्लामिक कानून लागू करने के लिए अपना आंदोलन और तेज कर दिया। पुलिस की ज्यादतियों, भ्रष्टाचार और आपराधीकरण ने लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित किया।

इसी बीच नाईन-इलेवन ने हालात को नया मोड़ दे दिया। अमेरिका की ओर से अफगानिस्तान पर हमले का समर्थन करने से पाकिस्तान में परवेज मुशर्रफ के खिलाफ भारी आक्रोश पैदा हो गया था। मौलाना सुफी मोहम्मद ने हजारों नौजवानों के साथ काबुल की तरफ कूच कर दिया। वह अफगानिस्तान से लौट रहा था कि पाकिस्तान सरकार ने उसे गिरफ्तार कर लिया। मौलाना की गिरफ्तारी के दौरान उनके दामाद मौलवी फजलुल्लाह ने कमान अपने हाथ में ले ली। अपने ससुर से कहीं ज्यादा कट्टर आतंकवादी को 'मौलाना रेडियो' के नाम से जाना जाता है क्योंकि उसने इस्लामिक क्रांति और पाकिस्तान सरकार के खिलाफ प्रचार के लिए एफएम रेडियो शुरू किया हुआ है। पिछले सात सालों से मौलाना फजलुल्लाह का दबदबा लगातार बढ़ रहा है, पाकिस्तान की फौज को आए दिन फजलुल्लाह के आतंकवादियों से मुठभेड़ का सामना करना पड़ता है। पिछले साल फरवरी में हुए चुनावों के बाद पाकिस्तान में बनी पीपीपी सरकार में नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोवियंस की प्रमुख राजनीतिक पार्टी एएनपी भी शामिल है। एनएफडब्ल्यूपी में भी इस समय एएनपी की साझा सरकार है, जिसमें राष्ट्रवादी पस्तून और सेक्युलरिज्म समर्थक लोग भी शामिल हैं। मालाकंड डिवीजन में हालात सुधारने के लिए ही एनडब्ल्यूएफपी सरकार ने पिछले साल गर्मियों में टीएनएसएम नेता मौलाना सुफी मोहम्मद के साथ समझौता  करने की कोशिश की थी, लेकिन बातचीत सिरे नहीं चढ़ी थी। प्रोविंस की सरकार अपने आप इस समझौते को लागू भी नहीं कर सकती थी, इसलिए पाकिस्तान सरकार से इजाजत लेनी पड़ी। एनएफडब्ल्यूपी सरकार ने अब सोलह फरवरी को तहरीक-ए-निफाज-ए-शरीयत-ए-मोहम्मदी के साथ समझौता किया। समझौते में तहरीक के 29 नुमाइंदे और प्रोविंसियल सरकार में शामिल सभी राजनीतिक दलों के नुमाइंदे शामिल थे। समझौता सिर्फ यह हुआ है कि 1999 के निजाम-ए-अदल नियमों में थोड़ा फेरबदल किया जाएगा। नए नियम पाकिस्तान के मौजूदा संविधान के मुताबिक ही होंगे, खुद पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली ने मालाकंड डिवीजन के लिए 1994 और 1999 में यह संशोधन किए थे। पाकिस्तान, जहां पहले से इस्लामिक शासन कायम है, वहां शरीयत के मुताबिक कानून लागू होने पर दुनियाभर में हायतौबा मचाया जाना समझ से बाहर है। पाकिस्तान के एनएफडब्ल्यूपी में लोगों की समस्याओं और आक्रोश का निदान करने के लिए शरीयत लागू की गई है। मौलाना सुफी मोहम्मद के साथ हुआ समझौता उनके तालिबानी दामाद मौलवी फजलुल्लाह को अलग-थलग करने में सहायक हुआ, तो यह स्वात घाटी में तालिबान की कमर तोड़ने में सहायक होगा। शरीयत के मुताबिक होगा सिर्फ यही कि हर अदालत में सिविल जज के साथ एक धार्मिक नुमाइंदा बैठेगा(काजी)। वह सिर्फ यह देखेगा कि अदालत का फैसला इस्लाम के मुताबिक है या नहीं। काजी यह भी देखेगा कि कोई भी मुकदमा लंबे समय तक लटका न रहे। लंबे समय तक मुकदमे लटकने की समस्या पाकिस्तान ही नहीं, भारतीय भी झेल रहे हैं।

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