क्या होगा परवेज मुशर्रफ का

Publsihed: 02.Dec.2007, 07:06

आठ जनवरी को होने वाले पाकिस्तान के चुनावों के लिए चीन से बनवाई गई मतदान पेटियां पहुंच चुकी हैं। चुनावों से पहले अमेरिका ने राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के सामने वर्दी उतारने और आपातकाल हटाने की शर्तें रखी थीं। इनमें वर्दी उतारने की पहली शर्त पूरी हो चुकी है। और आपातकाल हटाने की दूसरी शर्त सोलह दिसंबर को पूरी करने का वादा है। वर्दी उतारते समय परवेज मुशर्रफ बहुत असहज महसूस कर रहे थे, जिससे स्पष्ट था कि उन्हें कितनी मजबूरी में यह करना पड़ रहा है।

जिस तरह उन्होंने फौज से बेपनाह मोहब्बत होने की बात कही है। उससे स्पष्ट है कि उनके दिमाग पर फौज की ओर से तख्ता पलट का इतिहास छाया हुआ था। जुल्फकार अली भुट्टो ने दो जनरलों की वरीयता को खारिज करते जिया उल हक को राष्ट्रपति बनवाया था। भुट्टो समझते थे कि फौज अब उनकी मुट्ठी में रहेगी, लेकिन उसी जिया उल हक ने न सिर्फ भुट्टो का तख्ता पलट किया, बल्कि फांसी पर भी चढ़ा दिया। इसी तरह नवाज शरीफ ने भी दो जनरलों की वरीयता को दरकिनार करते परवेज मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष बनाया था। नवाज शरीफ भी यह समझते थे कि मुशर्रफ एहसान में दबकर उनकी मुट्ठी में रहेंगे। लेकिन मुशर्रफ ने एक साल के अंदर ही न सिर्फ शरीफ को अंधेरे में रखकर पहले कारगिल कर दिया और बाद में उनका तख्ता पलट कर देश निकाला भी दे दिया।अब परवेज मुशर्रफ ने फौज के वरीयता क्रम को तोड़े बिना ही जनरल आफताब कियानी को सेनाध्यक्ष बनाया है। इसलिए मुशर्रफ ने कियानी को सेनाध्यक्ष बनाकर कोई एहसान भी नहीं किया। कियानी को सेनाध्यक्ष भी अमेरिका के दबाव में बनाना पड़ा, वे भी अमेरिका के उतने ही नजदीक हैं जितने खुद परवेज मुशर्रफ। इसलिए विदाई भाषण के समय परवेज मुशर्रफ असहज और डरे हुए दिखाई दे रहे थे। फौज से बेपनाह मोहब्बत की बात दोहराते हुए उन्होंने कम से कम पंद्रह बार कहा कि उन्हें वर्दी उतारते हुए अफसोस हो रहा है। वह बार-बार फौज को बताना चाहते थे, कि वह भले ही नागरिक राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं लेकिन उनके साथ भुट्टो व नवाज शरीफ जैसा सलूक न किया जाए। वह बार-बार कह रहे थे कि वर्दी उनके लिए उनके शरीर की दूसरी चमड़ी है और वह बिना वर्दी के भी भीतर से फौजी ही रहेंगे। मुशरर्फ ने वर्दी उतारते हुए खुद को पाकिस्तान से ज्यादा फौज का वफादार बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जब उन्होंने कहा- 'कौम को बचाना है। हर रुकावट को मार हटाना है। यह काम सिर्फ फौज ही कर सकती हैं। बिना इसके पाकिस्तान का कोई वजूद नहीं।' परवेज मुशर्रफ ने यहां फौज को यह बताने की कोशिश की है कि नवाज शरीफ, बेनजीर भुट्टो और इफ्तिकार चौधरी जैसे लोग फौज के लिए अड़चन हैं, वहां अमेरिका को भी संदेश दिया कि फौज के बिना पाकिस्तान में किसी का कोई वजूद नहीं।तख्तापलट का इतिहास दोहराया जाएगा या नहीं, दोहराया जाएगा तो कब। यह भविष्यवाणी करना अभी जल्दबाजी होगा। लेकिन इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। अमेरिका के दबाव में चीन ने निर्मित बैलेट बॉक्स पाकिस्तान का जो भविष्य तय करेंगे, काफी कुछ उस पर निर्भर रहेगा। लेकिन दुनियाभर के कूटनीतिज्ञों की निगाह परवेज मुशर्रफ के भविष्य पर टिक गई है और ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि उनके दिन अब थोड़े रह गए हैं। उनका हश्र या तो जिया उल हक जैसा होगा या जुल्फकार अली भुट्टो जैसा। अगर अमेरिका की मेहरबानी बरकरार रही तो वक्त रहते नवाज शरीफ और बेनजीर की तरह विदेश में पनाह मिल सकती है। पाकिस्तान के ज्यादातर लोग यही चाहते हैं कि परवेज मुशर्रफ वाशिंगटन का एकतरफा टिकट लेकर रुख्सत कर जाएं। क्योंकि पाकिस्तान को अमेरिका के साथ जोड़कर मुशर्रफ ने पाक का भला करने की बजाए नुकसान ज्यादा किया है। कट्टरपंथियों ने आम शहरियों पर हमले तेज कर दिए हैं, जिस कारण आम पाकिस्तानी नागरिक मानता है कि परवेज मुशर्रफ ने भाई-भाई में दरार पैदा करके देश को आत्मघाती मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।परवेज मुशर्रफ अमेरिकी राष्ट्रपति बुश से 2003 से वादा कर रहे थे कि वह पाकिस्तान में असली लोकतंत्र बहाल करेंगे। लेकिन एक महीने बाद भंग होने वाली राष्ट्रीय एसेंबली से खुद को अवैध तरीके से दोबारा चुनवाने के बाद ही उन्होंने वर्दी उतारी। चार साल से इंतजार कर रहे अमेरिका का डंडा न होता तो मुशर्रफ अभी भी वर्दी नहीं उतारते। क्योंकि वह जानते हैं कि पाकिस्तान में असली ताकत वर्दी में ही है। यही वजह है कि साठ साल के कार्यकाल में तीस साल तक पाकिस्तान में फौजी शासकों ने ही शासन किया। वर्दी उतारने के बाद परवेज मुशर्रफ ने भले ही नागिरक राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ले ली है। लेकिन उनके राष्ट्रपति पद पर चुने जाने को किसी भी हालत में वास्तविक लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता, जिसका वादा वह पिछले चार साल से कर रहे थे। क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बुश नहीं जानते कि भंग होने वाली राष्ट्रीय एसेंबली से उनके चुने जाने पर सुप्रीम कोर्ट में सवालिया निशान लगा हुआ था, खुद को राष्ट्रपति पद पर स्थापित करने के लिए परवेज मुशर्रफ ने आपातकाल लगाकर सुप्रीम कोर्ट के सारे जज बर्खास्त किए और अपने हक में फैसला देने वाले नए जज तैनात किए। मुशर्रफ ने राष्ट्र्रपति का पद चुनाव से हासिल नहीं किया अलबत्ता न्यायपालिका को बंधक बनाकर चुराया है। इसके बावजूद दुनियाभर में लोकतंत्र का दंम भरने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति बुश आए दिन परवेज मुशर्रफ के हर कदम की तारीफ कर रहे हैं। अगर राष्ट्रपति बुश सचमुच पाकिस्तान में वास्तविक लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें मुशर्रफ को समर्थन से हाथ खींचना होगा। क्योंकि मुशर्रफ लोकतांत्रिक सिध्दांतों और न्यापालिका की हत्या कर राष्ट्रपति बने हैं।

ब्रिटेन और राष्ट्रकुल की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने मुशर्रफ की देश को जल्द ही लोकतांत्रिक पटरी पर लाने की दलील को नामंजूर करते हुए पाकिस्तान की सदस्यता निलंबित कर दी। लेकिन सच यह है कि दुनिया की राजनीति में राष्ट्रकुल का उतना महत्व नहीं है, जितना अमेरिका का। अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने परवेज मुशर्रफ पर वर्दी उतारने और आपातकाल हटाने का दबाव तो डाला, लेकिन स्वतंत्र न्यायपालिका की बहाली का कोई दबाव नहीं डाला। इससे स्पष्ट है कि बुश किसी न किसी तरह मुशर्रफ को बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी तरफ अगर जल्द ही मुशर्रफ का तख्तापलट न भी हुआ तो भी नागरिक राष्ट्रपति के तौर पर वह इतने कमजोर हो जाएंगे कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उन्हें जल्द ही एहसास हो जाएगा कि वर्दी के बिना उस राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में भी उनकी क्या हैसियत है, जिसे उन्होंने खुद बनाया है। तीन नवंबर को आपात स्थिति लगाकर निलंबित किए गए संविधान की अगले महीने बहाली के बाद नागरिक राष्ट्रपति के नाते परवेज मुशर्रफ के पास सिर्फ संसद को भंग करने का अधिकार रह जाएगा। अभी फिलहाल चुनाव से पहले ही इस बात का भी फैसला होना है कि देश का कोई नागरिक चौथी बार प्रधानमंत्री बन सकता है या नहीं। इस पर अमेरिका का रुख  साफ नहीं है, लेकिन परवेज मुशर्रफ इस संवैधानिक प्रावधान के जरिए नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो को प्रधानमंत्री पद की दौड़ से बाहर कर चुके हैं। फिलहाल तो मुशर्रफ को इन दोनों पूर्व प्रधानमंत्रियों से निपटना होगा, जो पूरी तरह टकराव के मूड में आ चुके हैं। इन दोनों ने सत्ता में आने पर बर्खास्त चीफ जस्टिस इफ्तिकार चौधरी की बहाली का मन बनाया हुआ है। अगर चुनावो ंमें मुशर्रफ की पार्टी हारी, तो उनका राष्ट्रपति पद पर रहना मुश्किल ही नहीं अलबत्ता असंभव हो जाएगा।

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