सवाल नाक का नहीं, आयोग की निष्पक्षता का

Publsihed: 01.Feb.2009, 21:03

सरकार का इरादा विवादास्पद चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने का नहीं है। विपक्ष के पास तीन रास्ते हैं- अदालत का दरवाजा फिर से खटखटाना, चुनाव का बायकाट करना और यूपीए के खिलाफ संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने का चुनावी मुद्दा बनाना।

अंग्रेजी में कहावत है कि राजा कभी गलत नहीं हो सकता। चुनाव आयोग को भी इस दिशा में चलाने की कोशिश की गई। जिसके मुताबिक सोनिया गांधी कभी गलत नहीं हो सकती और राजनाथ सिंह कभी सही नहीं हो सकते। उदाहरण के लिए दो घटनाएं याद आती हैं- कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गुजरात के चुनाव में नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था। चुनाव आयोग ने इस तरह की भाषा पर वैसी कड़ाई नहीं बरती, जैसी उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में एक सीडी के मामले में राजनाथ सिंह के खिलाफ बरती। राजनाथ सिंह ने वह सीडी जारी नहीं की थी, जबकि सोनिया गांधी ने अपनी जुबान से नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था। चुनाव आयोग ने राजनाथ सिंह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी थी। क्या यह सब भारतीय जनता पार्टी के चुनाव आयुक्त नवीन चावला के खिलाफ अपनाए गए कदम के कारण हो रहा था।

नवीन चावला जबसे सोलह मई 2005 को चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्त हुए थे, तब से उनकी मुखालफत शुरू हो गई थी। इसकी वजह उनका गांधी परिवार के नजदीक होना था। इमरजेंसी में वह दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर के सचिव थे। इमरजेंसी के बाद जब जनता पर हुई ज्यादतियों की जांच के लिए शाह आयोग बना, तो आयोग ने नवीन चावला के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां की थी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि वह लेफ्टिनेंट गवर्नर के इशारे पर नहीं अलबत्ता प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के इशारों पर काम कर रहे थे। आयोग ने कहा था कि वह ऐसे पद के योग्य नहीं हैं जिसमें निष्पक्षता अहम हो।  नवीन चावला की नियुक्ति पर भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा एतराज जताते हुए कहा था कि सभी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक नियुक्ति मंडल की ओर से की जानी चाहिए, जिसमें विपक्ष का नेता भी शामिल हो। यही बात अपनी रिटायरमेंट से पहले राष्ट्रपति को लिखी चिट्ठी में  मुख्य चुनाव आयुक्त बीबी टंडन ने भी कही थी। ऐसा होना इसलिए जरूरी है ताकि नवीन चावला जैसा विवादास्पद अधिकारी चुनाव आयुक्त जैसे पद पर न पहुंच सके, जहां निष्पक्षता होना बहुत अहम होता है।

फरवरी 2006 में नवीन चावला की नियुक्ति ज्यादा विवादास्पद बन गई, जब यह खुलासा हुआ कि कांग्रेस के सांसद उनकी पत्नी रूपिका के जयपुर स्थित लाला चमनलाल एजुकेशन ट्रस्ट को सांसद निधि से धन लुटा रहे हैं। कांग्रेसी सांसदों एके खान, अंबिका सोनी, डाक्टर कर्ण सिंह, एआर किदवई की सांसद निधि से नवीन चावला  की पत्नी के ट्रस्ट में पैसा पहुंचने का खुलासा हुआ था। यह भी खुलासा हुआ कि नवीन चावला जब भारत सरकार के सचिव थे, तो वह अपने लेटरहेड पर सांसदों को सिफारिशी चिट्ठियां भेजा करते थे। अशोक गहलोत जब पहली बार मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने नवीन चावला की पत्नी के ट्रस्ट को छह एकड़ जमीन अलाट की थी। इन सब खुलासों ने विपक्ष को नवीन चावला के खिलाफ अभियान चलाने के लिए मजबूर किया। सोलह मार्च 2006 को लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी की रहनुमाई में राजग के 205 सांसदों ने संसद भवन से पद यात्रा करते हुए राष्ट्रपति भवन में जाकर राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को उन्हें बर्खास्त करने की याचिका दाखिल की। याचिका में उनकी कांग्रेस से नजदीकी और सरकारी धन में गड़बड़ी के कई आरोप लगाए गए थे। याचिका में नवीन चावला की सोनिया गांधी से नजदीकी के कई उदाहरण दिए गए थे। वैसे सोनिया गांधी के साथ उनकी नजदीकी साबित करने के लिए यह एक उदाहरण काफी होगा कि नवीन चावला के चुनाव आयुक्त बनने से ठीक पहले इटली सरकार ने उन्हें माजिनी अवार्ड से सम्मानित किया था। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने चावला के खिलाफ दाखिल याचिका मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी को भेजने के बजाए 20 मार्च 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेज दी। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 324 में स्पष्ट कहा गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को जजों की तरह महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है जबकि चुनाव आयुक्तों को मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश पर हटाया जा सकता है।  विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रपति के इस फैसले के बाद आठ अप्रेल 2006 को जारी बयान में कहा था- 'हमारा मुख्य लक्ष्य देश की जनता को सतर्क करना है कि यूपीए सरकार लोकतांत्रिक संस्थाओं का दुरुपयोग करके किस तरह लोकतांत्रिक प्रणाली को नष्ट कर रही है। यूपीए सरकार उन्हें हर हालत में बनाए रखना चाहती है ताकि उनका अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर सके। सरकार को चाहिए कि वह चुनाव आयोग की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए राष्ट्रपति की ओर से भेजी गई याचिका को मुख्य चुनाव आयुक्त के पास भेज दे।' लेकिन जैसी की उम्मीद थी, वैसा ही हुआ। प्रधानमंत्री ने मुख्य चुनाव आयुक्त को याचिका भेजने के बजाए अटार्नी जनरल से राय लेकर वहीं पर रफा-दफा कर दिया। यूपीए सरकार का यह फैसला न्याय के प्राकृतिक सिध्दांत के एकदम खिलाफ था। उसने ऐसा करके विपक्ष के आरोप को सही साबित कर दिया था कि चुनाव आयुक्त नवीन चावला कांग्रेस के हितों की रक्षा कर रहे हैं। नतीजतन राज्यसभा में विपक्ष के नेता जसवंत सिंह को मई 2006 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। जसवंत सिंह ने अपनी याचिका में कहा कि नवीन चावला को उसके  पद से हटाया जाए क्योंकि उनकी पृष्ठभूमि कांग्रेस से निकटता की है और वह अब भी चुनाव आयोग में कांग्रेस के हितों की रक्षा कर रहे हैं। चुनाव आयोग ने इस याचिका को खारिज नहीं किया था। अलबत्ता सुनवाई के दौरान मुख्य चुनाव आयुक्त को भी तलब किया गया था। मुख्य चुनाव आयुक्त ने सुप्रीम कोर्ट में अपने वकील के माध्यम से कहा था कि विपक्ष की याचिका उन्हें नहीं मिली, न ही वह याचिका उनके नाम पर थी। विपक्ष अगर उन्हें याचिका भेजता, तो वह संविधान के अनुच्छेद 324 (5) के तहत चुनाव आयुक्त के खिलाफ कदम उठाने के लिए अधिकृत हैं। बात तो यहां तक आई थी कि वह अपने आप सिफारिश करने का कदम उठा सकते हैं। तब सुप्रीम कोर्ट के दोनों जजों जस्टिस अशोक भान और वीएस सरपुरका ने कहा था- 'हम इस मौके पर इस बात का फैसला नहीं कर रहे कि चुनाव आयोग को अपने आप कार्रवाई का हक है या किसी की शिकायत मिलने पर। लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त कानून के मुताबिक अपने सहयोगी के खिलाफ मिली याचिका का निपटारा करने के लिए स्वतंत्र हैं।' सुप्रीम कोर्ट में जसवंत सिंह की याचिका पर भाजपा महासचिव अरुण जेटली भी पेश हुए थे। अरुण जेटली ने कहा है कि उन्होंने सात अगस्त 2007 को अदालत के कहने पर ही याचिका वापस ली थी कि याचिका पहले मुख्य चुनाव आयुक्त को भेजी जाए। सुप्रीम कोर्ट से अपनी याचिका वापस लेकर भारतीय जनता पार्टी ने मुख्य चुनाव आयुक्त को नए सिरे से याचिका दी।

मुख्य चुनाव आयुक्त के सामने पेश की गई याचिका में नवीन चावला के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कई पिछले उदाहरण तो दिए ही गए थे, चुनाव आयुक्त के नाते उनकी भूमिका पर भी सवाल उठाए गए थे। याचिका में एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त खुद आयोग की बैठकों में नवीन चावला की ओर से विभिन्न मुद्दों पर लिए गए स्टेंड से वाकिफ हैं। अब जबकि मुख्य चुनाव आयुक्त ने अपनी रिटायरमेंट से तीन महीने पहले राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश भेज दी है, तो उनकी नियत पर तरह-तरह के सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कांग्रेस उनके अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठा रही है और यह भी कह रही है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश सरकार पर बाध्यकारी नहीं। दूसरी तरफ विपक्ष का कहना है कि जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की राय सरकार पर बाध्यकारी होती है, उसी तरह मुख्य चुनाव आयुक्त की राय भी सरकार पर बाध्यकारी है। अगर सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश पर अमल नहीं करती तो यह मामला एक बार फिर अदालत में जा सकता है। कांग्रेस और यूपीए सरकार जिस तरह नवीन चावला का बचाव कर रही हैं, उससे यह साबित हो गया है कि उनकी नियुक्ति किसी खास मकसद को हासिल करने के लिए की गई थी। संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता भंग होने का यह पहला उदाहरण नहीं है, इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड चीफ जस्टिस राज्यसभा सदस्यता का भोग कर चुके हैं। टीएन शेषन और एमएस गिल के मुख्य चुनाव आयुक्तों के पद से रिटायर होने के बाद सक्रिय राजनीति में आने से चुनाव आयोग की पवित्रता भी पहले ही भंग हो चुकी है। नवीन चावला का यह मामला उसी कड़ी में जुड़ने वाला अगला मामला है। विपक्ष के पास इस लड़ाई को अंत तक ले जाने के तीन रास्ते हैं। पहला रास्ता है- नवीन चावला के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने पर चुनावों का बायकाट करे। दूसरा रास्ता है- सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा फिर से खटखटाए। तीसरा रास्ता है- इमरजेंसी की तरह नवीन चावला के प्रकरण को कांग्रेस के खिलाफ चुनावों में मुद्दे की तरह पेश करे। राजग की ओर से लड़ाई को अंत तक ले जाने की मंशा दिखाई देती है, लेकिन सवाल यह है कि वह रास्ता कौन सा चुनती है।

आपकी प्रतिक्रिया