शेख अब्दुल्ला और फारुख अब्दुल्ला के साथ कांग्रेस के रिश्ते दोस्ती और दुश्मनी के रहे। अब बारी अब्दुल्ला परिवार के तीसरी पीढ़ी के वारिस उमर अब्दुल्ला के साथ राजनीतिक रिश्तों की। उमर कांग्रेस की मदद से ही मुख्यमंत्री बने हैं।
भारत यह कभी नहीं भूल सकता और भूलना भी नहीं चाहिए कि जम्मू कश्मीर की मौजूदा समस्या की जड़ में अमेरिका का हाथ है। पंडित जवाहर लाल नेहरू जब कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में लेकर गए थे तो जनमत संग्रह का प्रस्ताव अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर रखा था। छह नवंबर 1952 को पेश किए गए इस प्रस्ताव का मकसद पाकिस्तान को फायदा पहुंचाना था। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि दोनों तरफ की फौजों को हटाकर जनमत संग्रह करवाया जाए, जबकि संयुक्त राष्ट्र आयोग के अध्यक्ष की ओर से रखे गए पहले प्रस्ताव में पाकिस्तान की हमलावर फौज को ही हटाने की बात कही गई थी। जम्मू कश्मीर का बाकायदा भारत में विलय हो गया था और वहां चुनी हुई सरकार कायम थी। नवंबर के पहले हफ्ते में विधानसभा ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को पारित कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने विधानसभा में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को अंतिम करार दिया था। अमेरिका का यह प्रस्ताव साजिश भरा था, जिसका खामियाजा भारत आज तक भुगत रहा है।
पिछले हफ्ते मैंने अमेरिका के दोहरे चरित्र का जिक्र करते समय नाईन-इलेवन के बाद उसकी ओर से अफगानिस्तान के सामने रखी गई पांच मांगों का जिक्र किया था। उन्हें यहां फिर से दोहराना जरूरी है क्योंकि पिछले एक हफ्ते में अमेरिका का दोहरा चरित्र और ज्यादा खुलकर सामने आ गया है। पहली मांग थी- अल कायदा के सारे लीडर अमेरिका के हवाले किए जाएं। दूसरी मांग थी- तालिबान सरकार गिरफ्तार किए गए सभी विदेशी नागरिकों को फौरन रिहा करे। तीसरी मांग थी- विदेशी पत्रकारों और दूतावास कर्मियों को सुरक्षा मुहैया करवाई जाए। चौथी मांग थी- आतंकवादियो के सभी ट्रेनिंग कैंप बंद करके आतंकवादियों को गिरफ्तार किया जाए। पांचवीं और सबसे महत्वपूर्ण मांग यह थी कि ट्रेनिंग कैंपों के बंद होने की पुष्टि के लिए अमेरिका को सभी ट्रेनिंग कैंपों का मौका मुआइना करने की इजाजत दी जाए। इन मांगों के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था- 'वे आतंकवादियों को हमारे हवाले करेंगे, नहीं तो नतीजा भुगतेंगे।' राष्ट्रपति बुश ने अभी अपनी सत्ता नए राष्ट्रपति बाराक ओबामा को नहीं सौंपी है। उन्हीं के शासनकाल में कितना फर्क आ गया है कि अब अमेरिका ने पाकिस्तान से भारत में आतंकवाद फैलाने वालों के खिलाफ पाकिस्तान में ही कार्रवाई करने की वकालत शुरू कर दी है। अमेरिका एक बार फिर पाकिस्तान की तरफदारी करता हुआ दिखाई दे रहा है। पिछले हफ्ते तो मैंने सिर्फ पाक पर सर्जिकल हमला करने में रुकावट बनने का दोहरा चरित्र उजागर किया था। अब उसमें आतंकवाद की साजिश रचने वाले को प्रभावित देश के सुपुर्द नहीं करने का नया उदाहरण जुड़ गया है। यहां यह याद कराना भी वाजिब होगा कि नाईन-इलेवन के छब्बीसवें दिन सात अक्टूबर 2001 को अमेरिकी हमले से ठीक पहले अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने ओसामा बिन लादेन के खिलाफ अफगानिस्तान में ही इस्लामी कानून के तहत मुकदमा चलाने की पेशकश की थी जिसे अमेरिका ने ठुकरा दिया था। अब वही अमेरिकी प्रशासन मुंबई पर हमला करने की साजिश रचने वाले लश्कर-ए-तोयबा के जरार शाह, अबू हमजा और अबू काफा को भारत के सुपुर्द करने की बजाए पाक में ही मुकदमा चलाने की बात कह रहा है।
अमेरिका ने कश्मीर के जनमत संग्रह की ऐसी शर्त लगाई थी जिससे यह मसला हमेशा-हमेशा के लिए भारत-पाक में नासूर बन गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने खुद विधानसभा से जम्मू कश्मीर के भारत में विलय का प्रस्ताव पास करवाया था, लेकिन उन्होंने भी अमेरिका से शह मिलती देख आंखें तरेर ली। उन्होंने अमेरिका से आर्थिक मदद के बूते कश्मीर को स्विटजरलैंड जैसा आजाद देश विकसित करने की बात करनी शुरू कर दी। एसेंबली का बहुमत उनके साथ नहीं था, शेख अब्दुल्ला के अपने साथियों के साथ राजनीतिक मतभेद बढ़ते गए, जिससे राज्य की प्रशासनिक मशीनरी पूरी तरह ठप्प पड़ गई। नतीजतन जवाहर लाल नेहरू के इशारे पर सदर-ए-रियासत डा. कर्ण सिंह ने 9 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला को बर्खास्त करके उनके उपप्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को प्रधानमंत्री बना दिया। बख्शी गुलाम मोहम्मद ने प्रधानमंत्री बनते ही शेख अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया था, वह चौदह साल तक जेल में रहे। बख्शी गुलाम मोहम्मद लोकप्रिय प्रधानमंत्री साबित हुए, उन्होंने ही सदर-ए-रियासत का नाम बदलकर गवर्नर और प्रधानमंत्री का पद बदलकर मुख्यमंत्री करवाया था। जिस कारण जम्मू कश्मीर भारत के दूसरे राज्यों की तरह आत्मसात हो सका।
जम्मू कश्मीर में दूसरे युग की शुरूआत 1975 में इमरजेंसी के दौरान हुई, जब इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला से राजनीतिक समझौता करके जम्मू कश्मीर की सत्ता फिर से उन्हें सौंप दी। शेख अब्दुल्ला ने 1977 का चुनाव पूरी दबंगई के साथ लड़ा और 47 सीटें जीतकर अपार बहुमत से मुख्यमंत्री बने। वह आठ सितम्बर 1982 में अपनी मौत तक मुख्यमंत्री बने रहे। शेख अब्दुल्ला की मौत के बाद गुलाम मोहम्मद शाह के कड़े विरोध के बावजूद इंदिरा गांधी ने फारुख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनवाया था। शेख अब्दुल्ला ने अपने दामाद जीएम शाह की वरिष्ठता को दरकिनार करके अपनी मौत से पहले ही अपने बेटे को पार्टी का अध्यक्ष बनाकर अपना राजनीतिक वारिस घोषित कर दिया था। फारुख ने 1983 का विधानसभा चुनाव भी पूरी तरह दबंगई के साथ लड़ा और अपने विरोधियों को वोट नहीं डालने दिया, नतीजतन वह फिर बहुमत लेकर आ गए और जून 1984 तक मुख्यमंत्री बने रहे। फारुख अब्दुल्ला की हरकतें पूरी तरह भारत विरोधी हो गई थी, इसलिए इंदिरा गांधी ने फारुख को बर्खास्त करके उनके जीजा जीएम शाह को मुख्यमंत्री बना दिया। जीएम शाह 1987 के चुनाव तक मुख्यमंत्री रहे, लेकिन वह जितनी देर मुख्यमंत्री रहे, उतनी देर घाटी में कर्फ्यू लगा रहा। इसलिए उन्हें आज भी कर्फ्यू मुख्यमंत्री के तौर पर याद किया जाता है। फारुख अब्दुल्ला लोकप्रिय मुख्यमंत्री नहीं थे। वह चुनाव में गड़बड़ी करके जीतकर आए थे, लेकिन उन्हें बर्खास्तगी का फायदा मिला, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ गई। फारुख अब्दुल्ला ने अपनी बर्खास्तगी के दौरान मार्च 1984 में पहली बार देशभर के कांग्रेस विरोधी राजनीतिक दलों को इकट्ठा करके कांग्रेस को चुनौती दी। घोर विरोधी भाजपा और वामपंथी दलों को एक मंच पर लाना उनकी सबसे बड़ी सफलता थी। जिसे देखकर राजीव गांधी ने 1987 के चुनाव से ठीक पहले फारुख अब्दुल्ला के साथ राजनीतिक समझौता कर लिया। इस समझौते का असर यह हुआ कि कश्मीर में लोकप्रिय हो गए फारुख अब्दुल्ला का ग्राफ फिर से नीचे गिरने लगा। नतीजतन उन्हें चालीस सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि कांग्रेस के 26 विधायकों की मदद से आसानी से मुख्यमंत्री बन गए।
शेख अब्दुल्ला और उनके वारिस फारुख अब्दुल्ला के साथ जवाहर लाल नेहरू और उनकी वारिस इंदिरा गांधी के साथ दोस्ती और दुश्मनी के रिश्ते रहे। शेख अब्दुल्ला और फारुख अब्दुल्ला अपने राजनीतिक हितों के लिए भारत के खिलाफ भी बयानबाजी करते रहे, जब-जब ऐसा हुआ, उनके कांग्रेस से रिश्तों में दरार आई। फारुख अब्दुल्ला के शासनकाल में ही पाकिस्तानी आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकालने की शुरूआत की थी। जिस पर राजीव गांधी के साथ भी उनके रिश्ते खट्टे होने शुरू हो गए थे, राजीव ने जम्मू कश्मीर के हालात सुधारने के लिए जुलाई 1989 में जगमोहन को गवर्नर बनाकर भेजा तो जनवरी 1990 में फारुख अब्दुल्ला ने केंद्र के खिलाफ इस्तीफा दे दिया और लंदन रवाना हो गए। वह छह साल तक लंदन में बैठे रहे, 1996 का चुनाव लड़ने की हिम्मत भी हार गए थे, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा उन्हें मुख्यमंत्री बनवाने का वादा करके खुद कश्मीर लेकर गए। देवगौड़ा ने अपना वादा निभाया, चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली हुई और फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बन गए। फारुख अब्दुल्ला का बेटा उमर अब्दुल्ला केंद्र की वाजपेयी सरकार में राज्यमंत्री बना। नेशनल कांफ्रेंस की केंद्र सरकार में यह पहली भागीदारी थी।
बाप मुख्यमंत्री, बेटा केंद्र में मंत्री विधानसभा चुनाव तक बने रहे, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने जब निष्पक्ष चुनाव करवाने का ऐलान किया, तो नेशनल कांफ्रेंस ने राजग से नाता तोड़ लिया। निष्पक्ष चुनाव का नतीजा यह निकला कि नेशनल कांफ्रेंस सत्ता से बाहर हो गई। छह साल सत्ता से बाहर रहने के बाद दिसंबर 2008 को हुए विधानसभा चुनाव में भी नेशनल कांफ्रेंस को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है, वह कांग्रेस की मदद से सरकार बनाने जा रही है। फारुख अब्दुल्ला को अपने पिता की मौत के बाद सत्ता मिली थी, लेकिन उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को उनके जीते जी राज्य की सत्ता मिल गई है। ऐसा नहीं, जो फारुख ने अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री का ताज अपने बेटे को पहनाया है, उन्हें हालात के हाथों मजबूर होना पड़ा। अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी जम्मू कश्मीर का शासन संभाल रही है, लेकिन अपने दादा शेख अब्दुल्ला और अपने पिता फारुख अब्दुल्ला की तरह उमर अब्दुल्ला के पास विधानसभा का बहुमत नहीं है। वह गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री होंगे। कांग्रेस को उनके समर्थन का फैसला 22 सितम्बर 2008 को उसी समय हो गया था, जब उमर अब्दुल्ला ने अल्पमत में आई यूपीए सरकार को अपने वोट से बचाया था।
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