पाक भी अफगानिस्तान की तरह आतंकियों पर कार्रवाई की बजाए सबूत मांग रहा है। पाक आतंकवाद की फैक्टरी बंद नहीं करता, तो सर्जिकल स्ट्राइक ही विकल्प बचा है। अफगानिस्तान-इराक पर हमला करने वाले अमेरिका का दोहरा चेहरा सामने आ चुका है।
सात अगस्त 1998 को ओसामा बिन लादेन के आतंकी संगठन अल कायदा ने नैरोबी, केन्या और तंजानिया के अमेरिकी दूतावासों पर आतंकवादी हमला किया। अमेरिका ने पहली बार आतंकवाद का इतना कड़वा स्वाद चखा था, जबकि भारत इसी तरह के आतंकवादी हमले 1982 से झेल रहा था। तेरह अगस्त, 28 अगस्त और आठ दिसम्बर को संयुक्त राष्ट्र की ओर से पास किए गए प्रस्तावों का लक्ष्य अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को दबाव में लाना था। संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका का ध्यान सिर्फ अफगानिस्तान पर ही लगा हुआ था, जबकि भारत उस समय भी आए दिन पाकिस्तान से आतंकी हमले झेल रहा था। अमेरिका की नीति पाकिस्तान को अपने साथ रखकर अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को उखाड़ फेंकने की थी, जो उस समय ओसामा बिन लादेन को शरण दे रही थी।
संयुक्त राष्ट्र के पहले तीन प्रस्तावों के बाद 15 अक्टूबर 1999 को पारित प्रस्ताव संख्या 1267 की भाषा थोड़ी कड़ी थी, जिसमें कहा गया था कि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार उस ओसामा बिन लादेन को शरण दे रही है जो दुनियाभर में आतंकवाद फैलाने के लिए ट्रेनिंग कैंप चला रहा है। ग्यारह सितम्बर 2001 को अल कायदा के आतंकियों ने जब न्यूयार्क के टि्वन टावर और पेंटागन पर हमला बोला तो अमेरिका ने आर-पार का फैसला किया। नाईन-इलेवन के चौथे दिन पंद्रह सितम्बर को ही अमेरिका ने अफगानिस्तान से ओसामा बिन लादेन की मांग कर दी थी। नौवें दिन 20 सितम्बर 2001 को अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति बुश ने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के सामने पांच मांगें रखी थी। पहली मांग थी- अल कायदा के सारे लीडर अमेरिका के हवाले किए जाएं। दूसरी मांग थी- तालिबान सरकार गिरफ्तार किए गए सभी विदेशी नागरिकों को फौरन रिहा करे। तीसरी मांग थी- विदेशी पत्रकारों और दूतावास कर्मियों को सुरक्षा मुहैया करवाई जाए। चौथी मांग थी- आतंकवादियों के सभी ट्रेनिंग कैंप बंद करके आतंकवादियों को गिरफ्तार किया जाए। पांचवीं और सबसे महत्वपूर्ण मांग यह थी कि ट्रेनिंग कैंपों के बंद होने की पुष्टि के लिए अमेरिका को सभी ट्रेनिंग कैंपों का मौका मुआइना करने की इजाजत दी जाए। इन मांगों के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था- 'वे आतंकवादियों को हमारे हवाले करेंगे, नहीं तो नतीजा भुगतेंगे।' बाद में बुश ने यह भी कहा कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई सिर्फ अल कायदा को खत्म करने तक सीमित नहीं रहेगी। राष्ट्रपति बुश की मांगें ठुकराते हुए अफगानिस्तान के इस्लामाबाद स्थित राजदूत मोहम्मद सोहेल शाहीन ने कहा था कि अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन के खिलाफ कोई सबूत नहीं दिए हैं। ओसामा अफगानिस्तान का मेहमान है और मेहमान की हिफाजत तालिबान और पश्तून सभ्यता का हिस्सा है। नाईन-इलेवन के छब्बीसवें दिन सात अक्टूबर को अमेरिका ने जब अफगानिस्तान पर हमला किया तो उससे ठीक पहले तालिबान सरकार ने ओसामा बिन लादेन के खिलाफ अफगानिस्तान में ही इस्लामी कानून के तहत मुकदमा चलाने की पेशकश की थी। अमेरिका ने इस पेशकश को ठुकरा दिया था।
अफगानिस्तान के राजदूत मोहम्मद सोहेल शाहीन की तरह पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी बार-बार कह रहे हैं- भारत ने मुंबई के आतंकवादी हमले में पाकिस्तानियों के शामिल होने के कोई सबूत नहीं दिए हैं। वे यह भी कह रहे हैँ कि कोई सबूत दिया जाता है तो पाकिस्तान में ही वहां के इस्लामी कानून के मुताबिक कार्रवाई की जाएगी। पाकिस्तान की मौजूदा सरकार भी तालिबान के रास्ते पर चलती दिखाई दे रही है, जो जानबूझकर आतंकवादियों पर शिकंजा नहीं कस रही। राष्ट्रपति जरदारी ने शुरूआती प्रतिक्रिया में पाकिस्तानियों का हाथ होने से इनकार नहीं किया था। तब उन्होंने कहा था कि यह पाक के 'नान स्टेट एक्टरों' का काम हो सकता है। नान स्टेट एक्टर यानी ऐसे आतंकवादी संगठन जिन पर सरकार का जोर नहीं चलता। अमेरिकी विदेशमंत्री कोंडालीसा राइस ने जब उनसे कहा कि 'नान स्टेट एक्टर' पर शिकंजा कसना और उन पर कार्रवाई करना उनकी जिम्मेदारी है तो जरदारी ने जिम्मेदारी कबूल की। संयुक्त राष्ट्र के 1998, 1999, 2000 और 2001 में पारित प्रस्तावों में सभी सरकारों से इन 'नान स्टेट एक्टरों' पर कार्रवाई करने को कहा गया था। जनवरी 2004 में तब के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भारत से वादा किया था कि उसके खिलाफ पाकिस्तान की सरजमी से आतंकी वारदातें नहीं होने दी जाएंगी। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने अल कायदा पर कार्रवाई नहीं करके जो भूल की थी, वही भूल अब पाकिस्तान की सरकार कर रही है।
आसिफ अली जरदारी अपनी पत्नी बेनजीर भुट्टो की आतंकवादी वारदात में हत्या के कारण ही राष्ट्रपति बने हैं। इसलिए उनसे उम्मीद की जानी चाहिए कि वह तालिबान सरकार के मुल्ला उमर की तरह व्यवहार नहीं करें। शुरू में उनका व्यवहार मुल्ला उमर की तरह था भी नहीं। वह मनमोहन सिंह की यह मांग बहुत असानी से मान गए थे कि आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा खुद भारत आकर मुंबई में पकड़े गए आतंकी कसाब से बात करके सबूत देख लें। लेकिन बाद में वह साफ मुकर गए, जरदारी के पीछे हटने और 'नान स्टेट एक्टरों' के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने से साफ है कि वह पाकिस्तानी फौज और उसके तहत काम करने वाली एजेंसी आईएसआई के दबाव में आ गए हैं। पाकिस्तानी सरकार ने अब कसाब के पाकिस्तानी होने के सारे सबूत मिटाने शुरू कर दिए हैं। फौज और आईएसआई के दबाव में पाक सरकार ही नहीं, अलबत्ता विपक्ष के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भी पलटी खाने को मजबूर हो गए हैं। नवाज शरीफ ने कसाब को पाकिस्तानी बताकर अपना कद एक स्टेटसमैन का बना लिया था लेकिन पांचवें ही दिन पलटी खाते हुए उन्होंने कहा कि भारत पाकिस्तानियों के शामिल होने का सबूत दे। पाकिस्तान की मौजूदा सरकार ठीक तालिबान की तरह साबित हो रही है। उमर उल्ला की तालिबान सरकार उस समय अल कायदा और ओसामा बिन लादेन के इशारों पर चल रही थी, अब पाकिस्तान की जरदारी-गिलानी सरकार सेना प्रमुख जनरल कियानी और आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा के इशारों पर चल रही है। ऐसा लगता है कि इन दोनों ने राष्ट्रपति जरदारी और प्रधानमंत्री गिलानी को सत्ता में बने रहने के लिए सेना और आईएसआई से पंगा नहीं लेने की चेतावनी दे दी हो।
पाकिस्तान उसी रास्ते पर चल रहा है, जिस रास्ते पर 2001 में अफगानिस्तान चला था। अब भारत के पास दो ही रास्ते हैं। पहला रास्ता अमेरिका के राष्ट्रपति बुश का अमेरिकी कांग्रेस में दिया गया वह भाषण याद दिलाना, जिसमें उन्होंने सभी आतंकी शिविरों को खत्म करने और मौका मुआइना करने की मांग की थी। राष्ट्रपति बुश का वह बयान भी याद दिलाना जिसमें उन्होंने कहा था कि आतंकवाद के खिलाफ उसकी लड़ाई अल कायदा तक सीमित नहीं रहेगी। अमेरिका फिलहाल भारत के साथ दिखाई दे रहा है, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ उसके तेवर अब वैसे नहीं हैं, जैसे अफगानिस्तान और इराक पर युध्द के समय अपनाए थे। हमें सिर्फ अमेरिका पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए, बाकी दुनिया को भी अपने पक्ष में करके पाकिस्तान पर आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बनाना चाहिए। पाकिस्तान अगर अफगानिस्तान की तालिबान सरकार की तरह दुनिया के दबाव में नहीं झुकता तो दूसरा रास्ता वही बचा है, जो अमेरिका ने अपनाया था, जो 27 दिसम्बर को इस्राइल ने फिलिस्तीन के आतंकी संगठन हमास के तीस ट्रेनिंग कैंपों पर हमला करके अपनाया। भारत के पास भी इस्राइल की तरह पाकिस्तान के आतंकवादी ट्रेनिंग कैंपों पर हमला करने का विकल्प ही बचेगा। संसद पर हमला पाकिस्तान के आतंकी शिविरों पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' के लिए काफी था, तब अटल बिहारी वाजपेयी आर-पार का जुमला कसने के बावजूद अमेरिकी दबाव में चूक गए थे। अब मुंबई पर हमले के बाद मनमोहन सिंह भी अमेरिकी दबाव में चूक रहे हैं। महीनाभर जंग का माहौल बनाकर मनमोहन सिंह सरकार पीछे हट गई है, मुंबई पर हमले के बाद राजनीतिज्ञों के खिलाफ उभरा गुस्सा अगली बार सिर्फ नारों तक सीमित नहीं रहेगा। दोनों ही बार अमेरिका का आतंकवाद के खिलाफ दोहरा चेहरा भी बेनकाब हो गया है। पाक के खिलाफ पुख्ता सबूत के बावजूद अमेरिका उस पर मेहरबानी दिखाकर भारत को जंग से रोक रहा है और खुद सद्दाम हुसैन के खिलाफ बिना पुख्ता सबूतों के ही हमला कर दिया था। यह ठीक है कि जंग समस्या का हल नहीं पर पाक जब आतंकवादियों को शरण दे रहा हो तो उसके सिवा चारा भी नहीं।
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